बर्फ़बारी से पहले

“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं, और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।

“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”, एक बच्चा चिल्लाया।

“मुमताज़ भाई-जान हमें अपना पाइप दे दोगे? हम उसे स्नोमैन के मुँह में ठूँसेंगे”, दूसरे बच्चे ने कहा।
“कल सुब्ह शुमाल में हल्के-हल्के छींटे पड़ेंगे। और शुमाल मग़रिब में आँधी के साथ बारिश होगी। जुनूबी बलूचिस्तान और सिंध का मौसम ख़ुश्क रहेगा”, साहिब-ए-ख़ाना ने नाक पर ऐ'नक रखकर अख़बार उठाया और मौसम की पेशीन-गोई बा-आवाज़-ए-बुलंद पढ़नी शुरू’ की।

“ख़ूब बर्फ़ पड़ती है भाई। लेकिन एक बात है। उस तरफ़ फल बहुत उ'म्दा होते हैं। ऐबट आबाद में जब में था”, साहिब-ए-ख़ाना के मँझले बेटे ने ख़ुद ही अपनी बात जारी रखी।
बौबी मुमताज़ चुपका बैठा हँसता रहा।

“सारी दुनिया मौसम में इतनी शदीद दिलचस्पी क्यों लेती है। क्या इन लोगों को इस वक़्त गुफ़्तगू का कोई इससे ज़ियादा बेकार मौज़ू' नहीं सूझ रहा। क्वीनी लखनऊ रेडियो पर रोज़ाना आठ पचपन पर अंग्रेज़ी में मौसम की रिपोर्ट सुनाती थी। कल पच्छम में तेज़ हवा के साथ पानी आएगा। पूरब में सिर्फ़ थोड़े छींटे पड़ेंगे, उतर में सर्दी बढ़ जाएगी... क्वीनी... क्वीनी बी-बी... जो... फ्रे़ड कहाँ हो तुम सब... इस वक़्त तुम सब जाने क्या कर होगे”, उसने बहुत थक कर आँखें बंद कर लीं।
“मुमताज़ साहिब आज तो आप हमारे साथ ही खाना खाइए”, साहिब-ए-ख़ाना की बेगम ने कहा और शाल लिपटती हुई खाने के कमरे की तरफ़ चली गईं। उनकी आवाज़ पर आँखें खोल कर वो उन्हें पैंट्री के दरवाज़े में ग़ाइब होते देखता रहा।

साहिब-ए-ख़ाना की दो लड़कियाँ थीं। यही सारी बात थी। इसी वज्ह से उसकी इतनी ख़ातिरें की जा रही थीं। जब से वो पाकिस्तान मुंतख़ब करने के बा'द क्वेटा आया था, ये ख़ानदान उसे रोज़ाना अपने हाँ चाय या खाने पर मदऊ’' करता। अगर वो न आना चाहता तो वो जाकर उसे क्लब से पकड़ लाते। उसके लिए रोज़ तरह तरह के हल्वे तैयार किए जाते। उसकी मौजूदगी में उनकी बड़ी लड़की फीके शलजम के ऐसे चेहरे वाली सई'दा बड़ी मा'सूमियत और नियाज़-मंदी के साथ एक तरफ़ को बैठी निटिंग करती रहती। उसका चेहरा हर क़िस्म के तअ'स्सुरात से ख़ाली रहता। जैसे किसी कुल वाली चीनी की गुड़िया की उँगलियों में तितलियाँ थमा दी गई हों। कभी-कभी वो दूसरों की तरफ़ नज़र उठा कर देखती और फिर ख़ुद-ब-ख़ुद शर्मा कर दोबारा निटिंग पर झुक जाती।
ये लड़कियाँ कितनी निटिंग करती हैं। बस साल भर इनके हाथों में ऊन और सलाइयाँ देख लो। गोया ये ऊन के बने हुए पुलओवर और मोज़े क़यामत के रोज़ इन्हें बख़्शवाएँगे। फिर साहिब-ए-ख़ाना की बेगम बावर्चीख़ाने से वापिस आकर ख़ानसामाँ की ना-मा'क़ूलियत पर इज़हार-ए-ख़याल करने के बा'द अपनी सुघड़ बेटी को तहसीन-आमेज़ नज़रों से देखतीं और उसे मुख़ातिब हो कर कहतीं,

“बस इसको तो यही शौक़ है। दिन-भर इसी तरह किसी न किसी काम में लगी रहती है। अपने अब्बा का ये स्वेटर-कोट भी इसी ने बुना है।”
उस वक़्त वो यक़ीनन मुतवक़्क़े’ होतीं कि वो कहे, “ऊन मँगवा दूँगा मेरे लिए भी एक पुलओवर बना दीजिए।”, लेकिन वो उसी तरह ख़ामोश बैठा रहता। लड़की अपनी डायरैक्टर आफ़ प्रोपगंडा ऐंड पब्लिसिटी की तरफ़ से ये ता'रीफ़ होती सुनकर और ज़ियादा शर्मा जाती और उसकी सलाइयाँ ज़ियादा तेज़ी से मुतहर्रिक हो जातीं।

ख़ुदावंद... बौबी मुमताज़ ने बहुत ज़ियादा उकता कर खिड़की से बाहर नज़र डाली। अँधेरे में चनार के दरख़्त आहिस्ता-आहिस्ता सरसरा रहे थे। इस गर्म और रौशन कमरे के बाहर दूर-दूर तक मुकम्मल सुकूत तारी था। रात का गहरा और मुंजमिद सुकूत। वो रात बिल्कुल ऐसी थी अँधेरी और ख़ामोश। 9 सितंबर 47 की वो रात जो उसने अपने दोस्तों के साथ मसूरी के वाइल्ड रोज़ में आख़िरी बार गुज़ारी थी। क्वीनी और वजाहत का वाइल्ड रोज़। जब वो सब वाइल्ड रोज़ के ख़ूबसूरत लाऊंज में आग के पास बैठे थे और किसी को पता नहीं था कि वो आख़िरी मर्तबा वहाँ इकट्ठे हुए हैं। लेकिन वो रात भी पलक झपकते में गुज़र गई थी। वक़्त इसी तरह गुज़रता चला जाता है।
साहिब-ए-ख़ाना ने दफ़अ'तन बड़े ज़ोर से हँसना शुरू’ कर दिया। उसने चौंक कर उन्हें देखा। वो एक हाथ में अख़बार थामे वीकली के किसी कार्टून पर हँस-हँसकर दोहरे हुए जा रहे थे। बच्चे अपने तस्वीरों वाले रिसाले और कैरम छोड़कर उसके क़रीब आ गए और उससे कहने लगे कि अगर रात को उसकी मोटर बर्फ़ में फँस गई तो कितना मज़ा आएगा... एक बच्ची ने नाव बनाने के लिए औनलुकर का सर-वरक़ फाड़ डाला और एक तस्वीर दूसरी तराशी हुई तस्वीरों और कतरनों के साथ रिसाले में से सरक कर फ़र्श पर गिरी।

बौबी मुमताज़ की नज़र उस तस्वीर पर पड़ गई। उसने झुक कर देखा। वो सिग्रिड की तस्वीर थी। सिग्रिड अपने प्यारे से दो माह के बच्चे को मेज़ पर हाथों से थामे उसके पीछे से झाँक रही थी। वही मख़सूस तबस्सुम, उसके बाल उसी स्टाइल से बने थे। उसकी आँखें उसी तरह पुर-सुकून और पुर-असरार... उस तस्वीर के लिए बच्चों में छीना-झपटी शुरू’ हो गई। उसके जिस्म में सर्दी की एक तेज़ ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त काटती हुई लहर दौड़ गई। उसने पीछे मुड़ कर देखा। खिड़की बंद थी और आतिश-दान में शोले भड़क रहे थे। कमरा हस्ब-ए-मा'मूल गर्म था।
बच्चे उसी तरह शोर मचा रहे थे। लड़कियाँ निटिंग कर रही थीं। उसका दिल डूब रहा था। ये सिग्रिड की तस्वीर थी जो एक बच्ची ने बे-ख़याली से नए औनलुकर में से काट ली थी... सिग्रिड... सिग्रिड वो दफ़अ'तन कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ..

“कहाँ चले...? खाना आने वाला है”, साहिब-ए-ख़ाना हाथ फैला कर चलाए।
“बस पाँच मिनट और ठहर जाओ भैया। तवा चढ़ा ही है”, बेगम साहिब ने कहा।

“खाना ख़ाके जाइएगा”, सई'दा ने अपनी पतली सी आवाज़ आहिस्ता से बुलंद करके चुपके से कहा और फिर जल्दी से सलाइयों पर गई।
“हाँ-हाँ भाई जान... खाना खा के... और फिर अपना पाइप…”, बच्चों ने शोर मचाया। और फिर तस्वीर के लिए छीना-झपटी होने लगी।

“अरे मुझे दे... मैं इसकी मूँछें बनाऊँगा”, एक बच्चा अपनी छोटी बहन के हाथों से तस्वीर छीनने लगा। “नहीं, पहले मैं। मैं डाढ़ी भी बनाऊँगी इसकी। जैसी चचा मियाँ की है”, बच्ची ने ज़ोर लगाया।
“मैं इस मिसिज़ सिग्रिड उसमान के होंटों में पाइप लगा दूँगा”, दूसरा बच्चा चिल्लाया।

“वाह, लड़कियाँ पाइप कहाँ पीती हैं”, पहले बच्चे ने ए'तिराज़ किया।
“मुमताज़ भाई जान तो पीते हैं”, उसने अपनी मंतिक़ इस्तिमाल की।

“मुमताज़ भाई जान कोई लड़की थोड़ा ही हैं।”, सबने फिर क़हक़हे लगाने शुरू’ कर दिए।
बौबी मुमताज़ इंतिहाई बद-अख़्लाकी का सबूत देता कमरे से निकल कर जल्दी से बाहर आया। और अपनी ओपल तक पहुँच कर सबको शब-ब-ख़ैर कहने के बा'द तेज़ी से सड़क पर आ गया। रास्ता बिल्कुल सुनसान पड़ा था। और फ़रवरी का आसमान तारीक था। उसके मेज़बानों का घर दूर होता गया। बच्चों के शोर की आवाज़ पीछे रह गई। बिल्कुल ख़ाली-उल-ज़हन हो कर उसने कार बेहद तेज़ रफ़्तारी से सीधी सड़क पर छोड़ दी। घर चला जाए। उसने सोचा। फिर उसे ख़याल आया कि उसने अभी खाना नहीं खाया। उसने कार का रुख़ क्लब की तरफ़ कर दिया।

एक बैरे को खाने के मुतअ'ल्लिक़ कहते हुए वो एक लाऊंज की तरफ़ चला गया। जो अक्सर सुनसान पड़ी रहती थी। उसने सोफ़े पर लेट कर आँखों पर हाथ रख लिए। उसने आँखें बंद कर लीं। उसे लग रहा था जैसे वो सोचने समझने, महसूस करने, याद करने की सारी आदतें भूल चुका है। अब कुछ बाक़ी नहीं, कुछ बाक़ी नहीं।
उसने हाथों से अपनी आँखों को ख़ूब मला। और फिर ग़ौर से हथेलियों को देखने लगा। उसने महसूस किया कि इस वक़्त उसकी आँखें बहुत सूनी-सूनी लग रही होंगी। वो आँखें जिनके लिए कमला कहा करती थी कि इंतिहाई शराब उंडेलने वाली आँखें हैं। उसकी आँखों की ये ता'रीफ़ सबको याद हो गई थी। बौबी मुमताज़ की शराब उंडेलने वाली आँखें। और वो उस वक़्त वहाँ, इस अजनबी शहर के ग़ैर दिलचस्प क्लब के नीम-तारीक ख़ामोश लाऊंज में सोफ़े पर बच्चों की तरह पड़ा अपनी हथेलियों से उन आँखों को मल रहा था। गोया बहुत देर का सोया हुआ अब जगा है। बराबर के कमरे में ख़ूब ज़ोर ज़ोर से रेडियो बजाया जा रहा था। बहुत से लोग बातों में मशग़ूल थे। वहाँ भी मौसम के मुतअ'ल्लिक़ बहस छिड़ी हुई थी।

“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी।”, कोई बेहद वसूक़ और एहमियत के साथ कह रहा था।
“यहाँ बड़े कड़ाके का जाड़ा पड़ता है यारो”, दूसरे ने जवाब दिया। फिर सियासियात पर गुफ़्तगू शुरू’ हो गई। जहाँ चार आदमी इकट्ठे होते, ये लाज़िमी बात थी कि सियासत पर राय-ज़नी शुरू’ हो जाएगी। जवाहर लाल ने ये कहा। क़ाइद-ए-आ'ज़म ने ये कहा। माउंट बैटन ने ये कहा। ये अच्छा हुआ। ये बुरा हुआ। तुम कैसे आए? मैं ऐसे आया। मैं यूँ लुटा। मैंने रास्ते में यूँ तकलीफ़ें उठाईं। फ़लाँ मुलाज़िम हो गया। फ़लाँ ने इस्तीफ़ा दे दिया। फ़लाँ कराची में है। फ़लाँ पिंडी पहुँच चुका है..

बौबी मुमताज़ लाऊंज के सोफ़े पर चुप-चाप पड़ा ये सब सुना किया। गैलरी की दूसरी जानिब एक कमरे में चंद अंग्रेज़ मैंबर और उनकी ख़वातीन क़रीब-क़रीब बैठे एक दूसरे के साथ मय-नोशी में मसरूफ़ थीं। क्लब का वो हिस्सा निसबतन सुनसान पड़ा था। 15 अगस्त के बा'द शहर और छावनी में जो इक्का-दुक्का अंग्रेज़ रह गए थे वो सर-ए-शाम ही से वहाँ आन बैठते और ‘होम’ ख़त लिखते रहते या तामस कuक और बी.ओ.ए.सी. वालों से पैसिज के मुतअ'ल्लिक़ ख़त-ओ-किताबत करते। उनकी बीवियाँ और लड़कियाँ उकताहट के साथ बैठी रिकार्ड बजाती रहतीं। उनके गुड ओल्ड डेज़ के पुराने साथी और अ'ज़ीज़ होम जा चुके थे और जाने कहाँ-कहाँ से नए-नए देसी मैंबर क्लब में आन भरे थे... डैडी ने दो साल के लिए कंट्रैक्ट किया है। चार्ल्स ने साल भर के लिए वौलेंटियर किया है। क्वेटा तो मारग्रेट डार्लिंग बेहद दिलचस्प स्टेशन था। पर अब। अब तो इतना मरने को जी चाहता है। वो बेबसी के आ'लम में क्लब के देसी मैंबरों की ख़वातीन देखतीं।
“ओ गौश”, गैलरी में से गुज़रते हुए कर्नल रौजर्ज़ की सुर्ख़ बालों वाली लड़की ने चुपके से अपनी एक सहेली से उकता कर कहा, “आज वो भी नहीं आया…।”

“वो कौन...?”, उसकी सहेली ने पूछा…।
“वही... इंतिज़ामी सर्विस वाला... जो लखनऊ से आया है।”

“अच्छा वो...”
“हाँ, सख़्त बोर है। कल रात मेरा ख़याल था कि मुझसे रक़्स के लिए कहेगा। लेकिन चुप-चाप उल्लू की तरह आँखें झपकाता रहा।”

“लेकिन कैरल डारलिंग कितनी बिल्कुल शराब उंडेलने वाली आँखें।”
“होंगी... जैन डार्लिंग ये हिंदोस्तानी बिल्कुल एलिगेंट नहीं होते।”, वो दोनों बातें करती कार्ड रुम की तरफ़ चली गईं।

बाहर दरख़्त हवा में सरसराते रहे। उसके एक दोस्त ने गैलरी में से लाऊंज में आकर रौशनी जला दी। वो चौंक कर सोफ़े पर से उठ बैठा।
“अबे यार क्या अफ़ीमचियों की तरह बैठे हो। तुम्हें सारे में तलाश कर डाला, चलो कार्ड रुम में चलें। वहाँ रौजर्ज़ की लौंडिया भी मौजूद है। तुमने तो अभी सारा क्लब भी घूम कर नहीं देखा। ज़रा जाड़े निकलने दो, तफ़रीह रहेगी। सच पूछो तो ये शहर इतना बुरा नहीं। शुरू’ शुरू’ में तो सभी होम सिक, महसूस करते हैं लेकिन बहुत जल्द हम इन फ़िज़ाओं से मानूस हो जाएँगे”, उसके दोस्त ने कहा।

“हाँ बिल्कुल ठीक कहते हो भाई”, उसने पाइप जलाते हुए बे-ख़याली से जवाब दिया, “चलो ज़रा पोंटून ही खेलें।”
“तुम चलो। मैं अभी आता हूँ।”

“जल्द आना। सब तुम्हारे मुंतज़िर हैं”, दोस्त ने बाहर जाते हुए कहा।
बराबर के कमरे का शोर धीमा पड़ गया। शायद वो सब भी कार्ड रुम की तरफ़ चले गए थे। किसी बैरे ने ये समझ कर कि लाऊंज में कोई नहीं है। दरवाज़े में से हाथ बढ़ा कर लैम्प की रौशनी बुझा दी और आगे चला गया। लाऊंज में फिर वही नीम तारीकी फैल गई। रात का सेहर गहरा होता जा रहा था।

“बौबी... बौबी...”, वो फिर चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़ कर देखा। इस नाम से इस अजनबी जगह में उसको किस ने पुकारा। इस नाम से पुकारने वाले उसके प्यारे साथी बहुत पीछे बहुत दूर रह गए थे
बौबी... बौबी... नहीं... वहाँ पर कोई न था।

इस जगह पर तो महज़ मुमताज़ सग़ीर अहमद था। वो हँसी, वो शोर मचाने वाला, ख़ूबसूरत आँखों का मालिक, सब का चहेता बौबी तो कहीं और बहुत पीछे रह गया था। यहाँ पर सिर्फ़ मुमताज़ सग़ीर अहमद मौजूद था। उसने अपना नाम आहिस्ता से पुकारा। मुमताज़ सग़ीर अहमद कितना अ'जीब नाम है। वो कौन है। उसकी हस्ती क्या है क्यों और किस तरह अपने आपको वहाँ पर मौजूद पा रहा है... ये इंसान... ये इंसान सब कुछ महसूस करके, सब कुछ बता के अब तक ज़िंदा है। साँस ले रहा है। रात के खाने का इंतिज़ार कर रहा है। अभी वो कार्ड रुम में जाकर पौंटोन खेलेगा। कर्नल फ़्रीज़र की लड़की के साथ नाचेगा। इतवार को फिर उस शलजम की ऐसी शक्ल वाली लड़की सई'दा के घर मदऊ’ किया जाएगा।
“बौबी... बौबी...”, क्वीनी बी-बी... उसने चुपके से जवाब दिया। क्वीनी बी-बी... “वुजू भैया... ये तुम हो...?”, उसने अँधेरे में हाथ बढ़ाकर कुछ महसूस करना चाहा। उसने सोफ़े के मख़मलीं कुशन को छुआ। मख़मल इतनी गर्म थी, और राहत पहुँचाने वाली। दरीचे के बाहर फ़रवरी की हवाएँ साएँ-साएँ कर रही थीं

बौबी…, “हाँ क्वीनी बी-बी। तुम कहाँ हो। मैंने तुम्हारी आवाज़ सुनी है। अभी तुम और लू खिलखिला कर हँसी थीं। लेकिन वहाँ लू भी नहीं थी। वजाहत भी नहीं था। फ़्रेड भी नहीं था।”
क्वीनी बी-बी... उसने चुपके से दोहराया। आठ पचपन। उसकी नज़र घड़ी पर पड़ गई वो उस वक़्त, सैंकड़ों हज़ारों मील दूर, नश्रगाह के स्टूडियो में बैठी अपने सामने रखे हुए बुलिटेन के ठेट संस्कृत अल्फ़ाज़ निगलने की कोशिश में मसरूफ़ होगी। और मौसम की रिपोर्ट सुना रही होगी। घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही।

“वजाहत भाई... तुम इस वक़्त क्या कर रहे हो... और फ़्रेड... और... और... अनीस...।”
बराबर के कमरे में लाहौर से मौसम की रिपोर्ट सुनाई जा रही थी और ख़ाली कमरे में उसकी आवाज़ गूँज रही थी। आज शुमाल में बर्फ़-बारी होगी। शुमाल मग़रिब में बारिश के छींटे पड़ेंगे। जुनूब में तेज़ हवाएँ चलेंगी... घड़ी उसी तरह टक-टक करती रही। टक-टक-टक। एक, दो, तीन, चार, पाँच...छः... छः साल... ये छः साल... ख़ुदा-वंद।

इस तपिश, इस तड़प, इस बेचैनी के बा'द आख़िर-कार मौत आती है। आख़िर-कार ख़ुदा-ए-क़ुद्दूस का सपेद तख़्त नज़र आता है। आख़िर-कार वो ख़ूबसूरत विज़न दिखलाई पड़ता है। क्वीनी ने आहिस्ता-आहिस्ता कहा। पस-ए-मंज़र की मौसीक़ी दफ़अ'तन बहुत तेज़ हो गई।
हाँ... आख़िर-कार वो ख़ूबसूरत विज़न दिखलाई पड़ता है। अरे तुम किधर निकल आए ज़िंदगी की तरफ़ वापिस जाओ। इन्क़िलाब और मौत के तुन्द-रू आँधियों के सामने ज़र्द, कमज़ोर पत्तों की तरह भागते हुए इंसान। हमारी तरफ़ वापिस लौटो... इस विज़न की तरफ़... इस वज़न की तरफ़... लो ठहर गई। ठीक है? उसने अपने हिस्से की आख़िरी सतरें ख़त्म करके स्क्रिप्ट फ़र्श पर गिरा दिया।

“बिल्कुल ठीक है। थैंक यू…”, क्वीनी हेडफ़ोन एक तरफ़ को डाल कर बाहर आ गई। “लेकिन डार्लिंग तुमने टेम्पो फिर तेज़ कर दिया। ख़ुदा के लिए धीरे धीरे बोला करो।”
“ओ गौश। ये टेम्पो तो किसी चीज़ का कभी भी ठीक नहीं हो सकता। क्वीनी डारलिंग…।”, लू ने उकता कर जवाब दिया

“बौबी... बौबी…”, गैलरी में से वजाहत की आवाज़ सुनाई दी। “अरे क्या वुजू आया है?”, क्वीनी ने स्टूडियो का दरवाज़ा खोल कर बाहर झाँका।
उसका भाई वजाहत इंतिज़ार के कमरे में खड़ा किसी से बातें कर रहा था। “बेटा घर चल रही हो?” उसने क्वीनी से पूछा। “तुम इस वक़्त कैसे आ गए?”, क्वीनी ने दरियाफ़्त किया।

“मैं अभी-अभी बौबी मुमताज़ को बर्लिंगटन से लेने आया था। मैंने सोचा अगर तुम्हारा काम ख़त्म हो गया हो तो तुम्हें भी साथ लेता चलूँ”, वजाहत ने कहा।
“बौबी मुमताज़ कौन?”, क्वीनी ने बे-ख़याली से पूछा।

“है एक…”, वजाहत ने उसी बे-ख़याली से जवाब दिया। बौबी मुमताज़ ज़ीने पर से उतर के उनकी तरफ़ आया।
“कहाँ भाग गए थे?”, वजाहत ने डपट कर पूछा।

“अर… आदाब...”, बौबी मुमताज़ ने क्वीनी की तरफ़ मुड़कर कहा, “तुम ही क्वीनी बेटा होना?”
“हाँ । तस्लीम!”, क्वीनी नाख़ुन कुतरते हुए ग़ौर से उसके मुताले’ में मसरूफ़ थी। कितना स्वीट लड़का है। उसने दिल में कहा।

“तो फिर चलो हमारे साथ ही घर”, बौबी मुमताज़ ने कहा।
“नहीं भैया। अभी मुझे वो कमबख़्त मौसम की ख़बरें सुनानी हैं। आठ पचपन हो गए।”, वो उन्हें गैलरी में खड़ा छोड़कर स्टूडियो में तेज़ी से घुस गई। वो दोनों बाहर आ गए।

ये ख़ुलूस, ये सादगी, ये अपनाइयत ऐसे प्यारे दोस्त उसे आज तक कहीं न मिले थे। बहुत जल्द वो वजाहत के सट में घुल मिल गया। वो सब के सब इतने दिलचस्प थे। लियोनोर और शरजू लू कहलाती थी, जिसकी माँ अमरीकन और बाप पहाड़ी था। उसकी तिरछी-तिरछी नेपाली आँखों की वज्ह से सब उसे चिन्क चाय लू कहते थे और फ़्रेड जिसका तबस्सुम उतना मा'सूम, उतना पाकीज़ा, उतना शरीफ़ था। वो उसे छेड़ने के लिए हिंदुस्तानी ईसाई फ़िरक़े की मख़सूस हिमाक़तों का मज़ाक़ उड़ाते। लड़कियाँ ईसाइयों के बने हुए अंग्रेज़ी लहजे की नक़्ल कर के उससे पूछतीं, “फ़्रेड डियर क्या आज तुम किसी अपना गर्लफ्रेंड को बाहर नहीं ले जाने माँगता?”
“क्यों तुम सब मेरी इतनी टाँग खींचते हो”, वो हँसकर कहता। वो बहुत ऊँचे ईसाई ख़ानदान से था। लेकिन उसे इस तरह छेड़ने में सबको बहुत लुत्फ़ आता। वो सब लू से कहते, “लू डियर अगर फ़्रेड इस संडे को प्रोपोज़ करे तो फ़ौरन मान जाओ। हम सब तुम्हारी बराईड्ज़ मेड्ज़ और पीच ब्वॉय बनेंगे।”, फिर वो चिल्ला-चिल्ला कर गातीं, “सम संडे मॉर्निंग।”

वो 42 था, जब बौबी मुमताज़ पहली बार उन सबसे मिला। हर साल की तरह जब गर्मियाँ आईं और वो लोग मसूरी जाने लगे तो वो भी उनके हमराह मसूरी गया। क्वीनी और वजाहत केवाइल्ड रोज़ में सब इकट्ठे हुए। और वो वहाँ पर भी बहुत जल्द बेहद हर दिल-अ'ज़ीज़ हो गया।
बड़ी ग़ैर-दिलचस्प सी शाम थी। वो सब हैकमैन्ज़ के एक कोने में बैठे सामने से गुज़रने वालों को उकताहट से देख रहे थे। और चंद मिलने वालों के मुंतज़िर थे। जिन्हें वजाहत ने मदऊ’ किया था। इतने में गैलरी में से चची अरना गुज़रती नज़र आईं उन्होंने बालों में दो तीन फूल ठोंस रखे थे। और ख़ानाबदोशों का सा लिबास पहने थीं।

“कोई नया जनावर गिरा है”, यासमीन ने चुपके से क्वीनी से कहा।
“अमाँ चुप रहो यार”, क्वीनी ने उसे डपट कर जवाब दिया।

“क्या हुआ?”, बौबी ने पूछा।
“कुछ नहीं”, क्वीनी ने जवाब दिया। इतने में उनके मेहमान आ गए। और वो सब ब-ज़ाहिर बड़ी संजीदा शक्लें बना कर उनके पास जा बैठीं।

“ये चची अरना कौन हैं। तुम्हारी चची हैं?”, बौबी ने पूछा। ताज़ा वारिद मेहमान सब उन ही की बातें कर रहे थे।
“अरे नहीं भई”, क्वीनी ने शगुफ़्तगी से जवाब दिया।

“ये सिग्रिड की मम्मी हैं।”
“सिग्रिड कौन?”, बौबी ने पूछा।

“है... एक लड़की...।”, क्वीनी ने बे-ख़याली से गोया मज़ीद तशरीह कर दी और फिर दूसरी बातों में मुनहमिक हो गई।
अगले रोज़ वो सब टहलने के लिए निकले तो वजाहत ने तजवीज़ किया कि वुडस्टाक का चक्कर लगा आएँ। सिग्रिड से भी मिलते आएँगे। वो टोलियाँ बना कर पत्थर और चट्टानें फलाँगते वुडस्टाक के होस्टल की तरफ़ गए।

एक बड़े से सिलवर ओक के नीचे बौबी मुमताज़ ने सिग्रिड को देखा। वो इमारत की ढलवान पर दरख़्तों के झुंड में दूसरी लड़कियों के साथ बैठी निटिंग में मशग़ूल थी। उन सब को अपनी सिम्त आता देखकर वो बच्चियों की तरह दौड़ती हुई क्वीनी के क़रीब आ गई। क्वीनी ने उसका तआ'रुफ़ किराया, “ये हमारे बौबी भाई हैं। इतनी बढ़िया ऐक्टिंग करते हैं कि तुम देखकर बिल्कुल इंतिक़ाल कर जाओगी।”
वो बच्चों की तरह मुस्कुराई। वो उसका मा'सूम, पाकीज़ा तबस्सुम, ऐक्टिंग उन दोनों का मुशतर्का मौज़ू’-ए-गुफ़्तुगू बन गया। वो सब शाम की चाय के लिए इकट्ठे वाइल्ड रोज़ वापिस आए।

वो ज़माना जो उस साल बौबी मुमताज़ ने मसूरी में गुज़ारा, उसकी ज़िंदगी का बेहतरीन वक़्त था। मालपर से विनसंट हिल की तरफ़ वापिस आते हुए एक रोज़ उसने फ़्रेड से कहा, “ठाकुर पाल फ्रेडरिक रणबीर सिंह... क्या तुम जानते हो कि इस वक़्त दुनिया का सबसे ख़ुश-क़िस्मत इंसान कौन है?”
फ़्रेड ने संजीदगी से नफ़ी में सर हिलाया।

“सुनो”, उसने कहना शुरू’ किया। “जिस तरह अक्सर अख़बारों के मैगज़ीन सैक्शन में एक कालम छपता है कि दुनिया की सबसे ऊँची इमारत एम्पायर स्टेट बिल्डिंग है। दुनिया का सबसे बड़ा पुल सिडनी में है। दुनिया का अमीर-तरीन शख़्स निज़ाम-ए-हैदराबाद है। उसी तरह इस मर्तबा छुपेगा कि दुनिया का सबसे ख़ुश-क़िस्मत शख़्स मुमताज़ सग़ीर अहमद है। समझे ठाकुर साहिब... मुमताज़ सग़ीर... क्या समझे?”
फ़्रेड खिलखिला कर हँस पड़ा। वो बहुत ही गिराँ-बार, संजीदा, सुलझा हुआ आदमी था। उसकी उ'म्र इकत्तीस-बत्तीस साल की रही होगी। बहुत ही कन्फ़र्मड क़िस्म का बैचलर था और सारे बैचलर्ज़ का माना हुआ गुरु। अपने एक निहायत ही सआ'दत-मंद चेले से ये बच्चों की सी बात सुनकर वो सिर्फ़ हँसता रहा। और उसने बौबी को कोई जवाब न दिया। बौबी बे-फ़िक्री से सीटी बजाता आगे गया।

सड़क की ढलवान पर से मुड़ते हुए उसकी नज़र एक बड़ी सी दो-मंज़िला कोठी पर पड़ी जिसे उसने आज तक नोटिस न किया था। शायद उसकी वज्ह यही रही हो कि इस वक़्त उसके अहाते में ख़ूब गहमा गहमी नज़र आ रही थी। दरवाज़ों पर रोग़न किया जा रहा था। छत पर भी नया सुर्ख़-रंग किया गया था। एक अधेड़ उ'म्र के दाढ़ी-दराज़ बुजु़र्गवार बर-आमदे में खड़े क़ुलियों और नौकरों को हिदायात दे रहे थे। बड़ा कर्र-ओ-फ़र्र। बड़ी शान-ओ-शौकत नज़र आ रही थी।
“ये किस का मकान है भई?”, बौबी ने एक क़ुली से पूछा।

“ये...? क़ाज़ी जलीलुर्रहमान का एश्ले हाल”, क़ुली ने बड़े रौ'ब से उसे मतला’ किया। और आगे चला गया।
सियाह बादल बहुत तेज़ी से बढ़ते आ रहे थे। यक-लख़्त बारिश का एक ज़ोरदार रेला आ गया। बौबी ने अपनी बरसाती सँभाल कर जल्दी से वाइल्ड-रोज़ के रास्ते चढ़ाई तय करनी शुरू’ कर दी।

वो जुलाई का दूसरा हफ़्ता था। मौसम-ए-गर्मा की छुट्टियाँ ख़त्म हो रही थीं। चंद रोज़ बा'द वो सब मसूरी से वापिस आ गए।
लेकिन क़ाज़ी जलीलुर्रहमान और उनके भाँजे अनीस को मौसमी तातीलात के ख़त्म हो जाने की परवा न थी। वो मुरादाबाद के नवाह के ज़मींदार थे। उनके पास वक़्त और रुपये की फ़रावानी थी। और इन दोनों चीज़ों का कोई मुसर्रिफ़ उनकी समझ में न आता था। इसी वज्ह से दोनों मामूँ भाँजे मसूरी आए थे और पानी की तरह रुपया बहाने में मसरूफ़ थे और अक्तूबर से पहले उनका मुरादाबाद जाने का कोई इरादा था।

अनीस के वालिद का साल भर क़ब्ल इंतिक़ाल हो चुका था। और उसके मामूँ क़ाज़ी साहिब ने ख़ुद को उसका गै़र-क़ानूनी मुशीर मुक़र्रर कर रखा था। उनका असर उस पर बहुत ज़ियादा था। क़ाज़ी साहिब बेहद दिल-चले और शौक़ीन आदमी थे। बहनोई के इंतिक़ाल के बा'द उन्होंने अंदाज़ा लगाया कि लड़का बहुत सीधा और ख़ासा कम-उ'म्र है और सारी रियासत अब उनके हाथ में है, लिहाज़ा अब तो रावी चीन लिखता है। चुनाँचे अनीस के वालिद की बरसी के बा'द पहला काम जो उन्होंने किया वो ये था कि पहाड़ पर चल के रहने के फ़वाइद उसे ज़हन-नशीन कराने शुरू’ किए।
उसके हवालियों-मवालियों ने भी उठते-बैठते उससे कहा कि सरकार इक ज़री थोड़ी दूर किसी फ़रहत-बख़्श मक़ाम पर हो आवें तो ग़म ग़लत होवेगा। वो फ़ौरन मान गया और अपना लाव-लश्कर लेकर क़ाज़ी साहिब की क़ियादत में मसूरी आन पहुँचा। तय किया गया कि होटल में ठहरना झोल है और उठाई-गीरों का काम है जिनका कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता। हरी चुग की तरह आए और होटल में ठहर गए। लिहाज़ा एक उ'म्दा सी कोठी ख़रीदना चाहिए। अनीस ने कहा कि यहाँ की सबसे बढ़िया कोठी कौन सी है वही ख़रीद ली जाए। लोगों ने बताया कि कपूरथला हाऊस यहाँ की बेहतरीन कोठी समझी जाती है। कोठी क्या अच्छा-ख़ासा महल है। अनीस ने फ़ौरन अपनी चेक-बुक निकाली। ''लाओ फिर उसे ही ख़रीद हैं,'' उसने कहा

“अमाँ यार बावले हुए हो क्या। कपूरथला हाऊस तुम ख़रीद लोगे भला?”, एक दोस्त ने क़हक़हा लगाकर कहा।
“हुज़ूर दूसरा बेहतरीन मकान भोपाल हाऊस है। लेकिन इत्तिफ़ाक़ से वो भी बुक नहीं सकता। तीसरी बेहतरीन कोठी इसपर यंग-डील है और चौथी कोठी हुज़ूर के लाएक़ एश्ले हाल है”, एक मुसाहिब ने इत्तिला दी।

एश्ले हाल ख़रीद ली गई। उसे बेहतरीन साज़-ओ-सामान से आरास्ता किया गया। देहरादून से गोवा नीज़ मुलाज़िम और एक ऐंग्लो इंडियन हाऊस कीपर मँगवाई गई और एश्ले हाल मसूरी की चौथी बेहतरीन कोठी कहलाने लगी।
अनीस जब पहले-पहल मसूरी गया है उसकी ता'लीम ब-क़ौल शख़्से सिर्फ़ सरसी से संभल तलक की थी। नौवीं क्लास से उसने स्कूल छोड़ दिया था। इससे आगे पढ़ने की ज़रूरत ही न थी। अलबत्ता शेर के शिकार और शहसवारी और बुर्ज और घोड़-दौड़ के मैदान में रवेल खंड भर में दूर-दूर कोई उसका मुक़ाबला न कर सकता था। सोला साल की उ'म्र में उसकी शादी कुन्बे की एक लड़की से कर दी गई थी जो एक और ज़मींदार की इकलौती बेटी थी। अपनी जागीर पर बैठा चैन की बंसी बजाता था।

एश्ले हाल ख़रीद कर मसूरी में जब उसने रहना शुरू’ किया तो वहाँ की पहली झलक से उसकी आँखें चका-चौंद हो गईं। और उसने सोचा कि यार ये जो अब तक हम मुरादाबाद, संभल और अमरोहे में पड़े थे वो उतनी उ'म्र तो गोया बर्बाद ही गई। यहाँ तो एक अ'जीब-ओ-ग़रीब दुनिया आबाद थी। इंसानों की बस्ती थी। या इंद्र का अखाड़ा। चौदह तबक़ रौशन हो गए। लेकिन मुसीबत ये आन पड़ी कि एश्ले हाल का मालिक और मसूरी का सबसे ज़ियादा रुपया खर्चने वाला मेज़बान, लेकिन बिल्कुल ताज़ा-ताज़ा देहाती जागीरदार। इधर-उधर तो काम चल जाता था लेकिन ख़वातीन की सोसाइटी में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता था। पहला काम उसने ये किया कि एक ऐंग्लो इंडियन लेडी कम्पेनियन की ख़िदमात हासिल कीं। जो उसे सही अंग्रेज़ी बोलना और बाल रुम नाच सिखाए। चंद ही महीनों में वो एक और फ़र-फ़र अंग्रेज़ी बोलने वाला बेहद वेल ड्रेस्ड अनीस था जो मसूरी का सबसे ज़ियादा हर दिल-अ'ज़ीज़ शख़्स समझा जाता था। बिल्कुल ही काया पलट गई।
अगले साल 43 की गर्मियों में जब क्वीनी वजाहत और उनका ग्रुप मसूरी पहुँचा तो उन्हें एक ताज़ा वारिद अजनबी बाल रूम्ज़ की सत्ह पर बहता नज़र आया। जिसने हर तरफ़ धूम मचा रखी थी। वजाहत उसे पहले से जानता था। लेकिन इस अचानक काया पलट पर वो भी उसे न पहचान सका। इस साल वहाँ सारे मशहूर टेनिस स्टार्ज़ जमा थे। मिस ए'ज़ाज़, मिस काजी। ग़ियास मुहम्मद। अ'लीनगर की उबैदुल्लाह बहनें। उनकी भावज शाहनदा एहसान उबैदुल्लाह, बंबई से ज्योती भी हस्ब-ए-मा'मूल आया था। सीज़न अपने उ'रूज पर था। लखनऊ की खोचड़ बहनें भी हमेशा की तरह मौजूद थीं। निर्मला, प्रकाश, वायलट, रूबी ओब्ज़रोज़ा की पेशीन-गोई थी कि रूबी खोचड़ इस दफ़ा’ सालाना मुक़ाबला-ए-हुस्न में सिग्रिड रब्बानी से सबक़त ले जाएगी। एश्ले हाल की पार्टियों में ये सब अक्सर आतीं।

एक रोज़ हैकमैन्ज़ में अनीस रक़्स का पहला दौर ख़त्म करके क्वीनी की तरफ़ आया और उसे सलाम करके वजाहत के क़रीब जा बैठा।
“अबे ओबग़ चोंच... ये सूट बूट कैसे डाँट लिया। ये क्या स्वाँग भरा है ऐं?”, वजाहत ने उसे डाँट कर पूछा।

उसने इधर-उधर देखकर लड़कियों की मौजूदगी में ज़रा झेंपते हुए चुपके से वजाहत से पूछा, “क्यों यार अब ठीक लगता हूँ न...?”
“ज़रा इस गधे को देखना यासमीन डार्लिंग, ख़ुद तो शाम का लिबास पहन कर नाचता फिर रहा है और बीवी को वहीं क़स्बे में छोड़ रखा है। ऐसे आदमियों को तो बस...”, क्वीनी ने ग़ुस्से के साथ चुपके से कहा।

उसके अगले दिन क्वीनी अपने मकान के ऊपर के बरामदे में आराम-कुर्सी पर काहिल बिल्ली की तरह लेटी पढ़ने में मशग़ूल थी कि दफ़अ'तन उसे बरामदे के शीशों में से नज़र आया कि नशेब में ख़ान बहादुर ए'जाज़ अहमद के काटज के सामने रिक्शाएँ खड़ी हैं। बहुत से लोग आ जा रहे हैं और ख़ूब चहल-पहल है। यहाँ तक कि उनके बावर्ची-ख़ाने में से धुआँ तक उठ रहा है। ये बेहद अ'जीब और नई बात थी। क्यों कि ख़ान बहादुर साहिब का ख़ानदान उ'मूमन या दूसरों के हाँ मदऊ’ रहता था या होटलों में खाना खाता था। वो बड़ी हैरत से ये मंज़र देखती रही।
उसी वक़्त बारिश शुरू’ हो गई। और थोड़ी देर बा'द वजाहत और बौबी बरसातियों से लदे-फँदे भीगते भागते निचली मंज़िल की गैलरी में दाख़िल हुए। वो अभी ज़ीने ही पर थे कि क्वीनी चलाई, “अरे वुजू बौबी भैया जल्दी से ऊपर आओ...”

और जिस वक़्त वजाहत और बौबी बरामदे के दरीचे में आ खड़े हुए उन्हें अनीस अपना बेहतरीन सूट पहने सिगार का धुआँ उड़ाता ख़ान बहादुर साहिब के काटज में से निकलता नज़र आया।
“अच्छा... ये बात है…”, वजाहत ने बहुत आहिस्ता से कहा। उसे और बौबी को इतना रंजीदा देखकर क्वीनी का सारा एक्साइटमेन्ट रफ़ू-चक्कर हो गया। और वो भी बड़ी फ़िक्र-मंदी के साथ दोनों की कुर्सियों के नज़दीक फ़र्श पर बिल्ली की तरह आ बैठी और चेहरा ऊपर उठाकर दोनों लड़कों को ग़ौर से देखने लगी। वो दोनों ख़ामोश बैठे सिगरेट का धुआँ उड़ा रहे थे।

चच चच चच... बेचारा स्वीट बौबी मुमताज़। क्वीनी ने बेहद हम-दर्दी से दिल में सोचा। लेकिन ज़ियादा देर तक उससे इस संजीदगी से न बैठा गया। वो चुपके से उठकर भागी भागी गैलरी में पहुँची और यासमीन को फ़ोन करने के लिए रिसीवर उठाया।
“मैंने तुमसे कहा था क्वीनी डियर कि इस साल तो कोई और भी बुरा जनावर गिरा है। उस पिछले साल वाले किसी जनावर से भी बड़ा।”

दूसरे सिरे पर यासमीन बड़ी शगुफ़्तगी से कह रही थी, “और सुनो तो... कल मैंने सिग्रिड को नया लेपरडासकन कोट पहने देखा। ऐसा बढ़िया कि तुमने कभी ख़्वाब में भी न देखा होगा। और चची अरना का नया इवनिंग गाऊन। अस्ली टीफ़ेटा है। इस जंग के ज़माने में अस्ली टीफ़ेटा क्वीनी डार्लिंग... और टोटो कह रही थी कि उसने मिसिज़ राज पाल से सुना जिन्हें बेगम फ़ारूक़ी ने बताया कि मिसिज़ नारंग ने उनसे कहा कि आजकल ख़ान बहादुर साहिब के हाँ की ख़रीदारी के सारे बिल लीलाराम और फैंसी हाऊस वाले सीधे एश्ले हाल भेज देते हैं... ओ गौश।”
“ओगौश...”, क्वीनी ने अपनी आँखें बिल्कुल फैला कर फूले हुए साँस से दोहराया।

बारिश होती रही। रिसीवर रखकर वो आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई ऊपर आ गई और दरीचे में कुहनियाँ टेक कर बे-दिली से बाहर का मंज़र देखती रही जहाँ पानी के फ़व्वारों के साथ बादलों के टुकड़े इधर-उधर तैरते फिर रहे थे। वादी के नशेब में ख़ान बहादुर साहिब के काटज में पियानो बज रहा था और चची अरना अपने बरामदे में खड़ी किसी से बातें कर थीं।
चची अरना स्वीडिश थीं। जब वो पहली बार अपने शौहर के हमराह हिन्दोस्तान आई थीं। उस वक़्त उनका ख़याल था कि सर आग़ा ख़ाँ के इस सुनहरे देस में वो भी एक मर्मरीं महल-सरा में किसी अलिफ़-लैला सुल्ताना की तरह रहा करेंगी। लेकिन जब वो यहाँ पहुँचीं तो उन्हें पता चला कि मर्मरीं सुतूनों और ईरानी क़ालीनों वाली महल-सरा के बजाए उनके शौहर असग़र रब्बानी लखनऊ के एक निहायत गंदे मुहल्ले विक्टोरियागंज में रहते हैं। जहाँ एक बूढ़ी माँ है जो हर वक़्त

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