मोना लिसा

परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है, “सिर्फ़ मोटरों के लिए”

“ये आम रास्ता नहीं”, और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं, “प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स, सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं।

एक रोज़ क्या हुआ कि एक इंतिहाई डैशिंग शह-सवार रास्ता भूल कर सनोबरों की इस वादी में आ निकला जो दूर-दराज़ की सर-ज़मीनों से बड़े-बड़े अज़ीमुश्शान मार्के सर करके चला आ रहा था। उसने अपने शानदार घोड़े पर से झुक कर कहा, “माई डियर यंग लेडी कैसी ख़ुश-गवार सुब्ह है!” कर्ली लौक्स ने बे-तअ’ल्लुक़ी से जवाब दिया, “अच्छा, वाक़ई’? तो फिर क्या हुआ?”
शह-सवार की ख़्वाब-नाक आँखों ने ख़ामोशी से कहा, “पसंद करो हमें।”, कर्ली लौक्स की बड़ी-बड़ी रौशन और नीली आँखों में बे-नियाज़ी झिलमिला उठी।

“जनाब-ए-आली हम बिल्कुल नोटिस नहीं लेते।” शह-सवार ने अपनी ख़ुसूसियात बताएँ। एक शानदार सी इम्पीरियल सर्विस के मुक़ाबले में टॉप किया है। अब तक एक सौ पैंतीस ड्यूल लड़ चुका हूँ। बेहतरीन क़िस्म का heart breaker हूँ। कर्ली लौक्स ने ग़ुस्से से अपनी सुनहरी लटें झटक दीं और अपने बादामी नाख़ुनों के बरगंडी क्योटेक्स को ग़ौर से देखने में मसरूफ़ हो गई। सिंड्रेला और स्नो-वाईट पगडंडी के किनारे स्ट्राबरी चुनती रहीं। और डैशिंग शह-सवार ने बड़े ड्रामाई अंदाज़ से झुक कर नर्सरी का एक पुराना गीत याद दिलाया
कर्ली लौक्स कर्ली लौक्स

या’नी ऐ मेरी प्यारी चीनी की गुड़िया
तुम्हें बर्तन साफ़ करने नहीं पड़ेंगे

और बतखों को लेकर चरागाह में जाना नहीं होगा
बल्कि तुम कुशनों पर बैठी-बैठी स्ट्राबरी खाया करोगी

ऐ मेरी सुनहरे घुँघरीले बालों वाली मग़रूर शहज़ादी एमीलिया हैनरी एटामराया... दो नैना मितवा रे तुम्हारे हम पर ज़ुल्म करें।
और फिर वो डैशिंग शह-सवार अपने शानदार घोड़े को एड़ लगा कर दूसरी सर-ज़मीनों की तरफ़ निकल गया जहाँ और भी ज़ियादा अज़ीमुश्शान और ज़बरदस्त मार्के उसके मुंतज़िर थे और इसके घोड़े की टापों की आवाज़-ए-बाज़गश्त पहाड़ी रास्तों और वादियों में गूँजती रही।

फिर एक और बात हुई जिसकी वज्ह से चाँद की वादी के बासी ग़मगीं रहने लगे क्योंकि एक ख़ुश-गवार सुब्ह मा’सूम कूक रोबिन सितारा-ए-सहरी के सब्ज़े पर मक़्तूल पाया गया। मरहूम पर किसी ज़ालिम ने तीर चलाया था। सिंड्रेला रोने लगी।
बेचारा मेरा सुर्ख़ और नीले परों वाला गुड्डू सा परिंदा। परिस्तान की सारी चिड़ियों, ख़रगोशों और गिलहरियों ने मुकम्मल तहक़ीक़-ओ-तफ़तीश के बा’द पता चला लिया और बिल-इत्तिफ़ाक़ राय उसकी बे-वक़्त और जवाँ-मर्गी पर ताज़ियत की क़रार दाद मंज़ूर की गई। यूनीवर्सिटी में कूक रोबिन डे मनाया गया लेकिन अ’क़्ल-मंद पूसीकैट ने, जो फ़ुल बूट पहन कर मल्लिका से मिलने लंदन जाया करती थी, सिंड्रेला से कहा, “रोओ मत मेरी गुड़िया, ये कूक रोबिन तो यूँही मरा करता है और फिर फर्स्ट ऐड मिलते ही फ़ौरन ज़िंदा हो जाता है।”, और कूक रोबिन सचमुच ज़िंदा हो गया और फिर सब हँसी ख़ुशी रहने लगे।

और हमेशा की तरह वादी के सब्ज़े पर बिखरे हुए भेड़ों के गले की नन्ही-मुन्नी घंटियाँ और दूर समंदर के किनारे शफ़क़ में खोए हुए पुराने इ’बादत-ख़ानों के घंटे आहिस्ता-आहिस्ता बजते रहे... डिंग-डोंग, डिंग-डोंग बेल, पूसी इन द वेल।
डिंग डोंग। डिंग डोंग... जैसे कर्ली लौक्स कह रही हो, नहीं, नहीं, नहीं, नहीं।

और उसने कहा। नहीं नहीं। ये तो परियों के मुल्क की बातें थीं। मैं कूक रोबिन नहीं हूँ, न आप कर्ली लौक्स या सिंड्रेला हैं। नामों की टोकरी में से जो पर्ची मेरे हाथ पड़ी है उस पर रैट बटलर लिखा है लिहाज़ा आपको स्कार्ट ओहारा होना चाहिए। वर्ना अगर आप जूलियट या क्लिओपेट्रा हैं तो रोमियो या एंतोनी साहब को तलाश फ़तमाइए और मैं क़ाएदे से मिस ओहारा की फ़िक्र करूँगा। लेकिन वाक़िआ’ ये है कि आप जूलियट या बीटर्स या मारी एंतोनी नहीं हैं और मैं क़तई’ रैट बटलर नहीं हो सकता, काश आप महज़ आप होतीं और मैं सिर्फ़ मैं। लेकिन ऐसा नहीं है। लिहाज़ा आइए अपनी अपनी तलाश शुरू’ करें।
हम सब के रास्ते यूँही एक दूसरे को काटते हुए फिर अलग-अलग चले जाते हैं, लेकिन परिस्तान की तरफ़ तो इनमें से कोई रास्ता भी नहीं जाता।

चौकोबार्ज़ की स्टालों और लक्की डिप के खे़मे के रंगीन धारीदार पर्दों के पीछे चाँदी की नन्ही-मुन्नी घंटियाँ बजती रहीं। डिंग डोंग डिंग डोंग... पूसी बेचारी कुँवें में गिर गई और टॉम स्ट्राट बे-फ़िक्री से चौकोबार्ज़ खाता रहा। फिर वो सब ज़िंदगी की ट्रेजडी में ग़ौर करने में मसरूफ़ हो गए क्योंकि वो चाँद की वादी के बासी नहीं थे लेकिन इतने अहमक़ थे कि परिस्तान की पगडंडी पर मौसम-ए-गुल के पहले सफ़ेद शगूफ़े तलाश करने की कोशिश कर लिया करते थे और इस कोशिश में उन्हें हमेशा किसी न किसी अजनबी साहिल, किसी न किसी अनदेखी, अनजानी चट्टान पर फ़ोर्स्ड लैंडिंग करनी पड़ती थी।
वो कई थे। डक डिंगटन जिसे उम्मीद थी कि कभी न कभी तो उसे फ़ुल बूट पहनने वाली वो पूसीकैट मिल ही जाएगी जो उसे ख़्वाबों के शहर की तरफ़ अपने साथ ले जाए और उसे यक़ीन था कि ख़्वाबों के शहर में एक नीली आँखों वाली एलिस अपने ड्राइंगरूम के आतिश-दान के सामने बैठी उसकी राह देख रही है और वो अफ़्साना-निगार जो सोचता था कि किसी रूपहले राज-हंस के परों पर बैठ कर अगर वो ज़िंदगी के इस पार कहानियों की सर-ज़मीन में पहुँच जाए जहाँ चाँद के क़िले में ख़यालों की शहज़ादी रहती है तो वो उससे कहे, “मेरी मग़रूर शहज़ादी मैंने तुम्हारे लिए इतनी कहानियाँ, इतने ओपेरा और इतनी नज़्में लिखी हैं। मेरे साथ दुनिया को चलो तो दुनिया कितनी ख़ूबसूरत, ज़िंदा रहने और मुहब्बत करने के काबिल जगह बन जाए।”

लेकिन रूपहला राजहँस उसे कहीं न मिलता था और वो अपने बाग़ में बैठा-बैठा कहानियाँ और नज़्में लिखा करता था और जो ख़ूबसूरत और अ’क़्ल-मंद लड़की उससे मिलती,, उसे एक लम्हे के लिए यक़ीन हो जाता कि ख़यालों की शहज़ादी चाँद के ऐवानों में से निकल आई है लेकिन दूसरे लम्हे ये अ’क़्ल-मंद लड़की हँसकर कहती कि उफ़्फ़ुह भई फ़नकार साहब किया cynicism भी इस क़दर अल्ट्रा फ़ैशनेबल चीज़ बन गई है और आपको ये मुग़ालता कब से हो गया है कि आप जीनियस भी हैं और उसके नुक़रई क़हक़हे के साथ चाँद की किरनों की वो सारी सीढ़ियाँ टूट कर गिर पड़तीं जिनके ज़रिए वो अपनी नज़्मों में ख़यालिस्तान के महलों तक पहुँचने की कोशिश किया करता था और दुनिया वैसी की वैसी ही रहती। अँधेरी, ठंडी और बदसूरत... और सिंड्रेला जो हमेशा अपना एक बिलौरीं सैंडिल रात के इख़्तिताम पर ख़्वाबों की झिलमिलाती रक़्स-गाह में भूल आती थी, और वो डैशिंग शह-सवार जो परिस्तान की ख़ामोश, शफ़क़ के रंगों में खोई हुई पगडंडियों पर अकेले-अकेले ही टहला करता था और बर्फ़ जैसे रंग और सुर्ख़ अंगारा जैसे होंटों वाली स्नो-वाईट जो रक़्स करती थी तो बूढ़े बा’दशाह कोल के दरबार के तीनों परीज़ाद मुग़न्नी अपने वाइलन बजाना भूल जाते थे।
“और”, रैट बटलर ने उससे कहा, “मिस ओहारा आपको कौन सा रक़्स ज़ियादा पसंद है। टैंगो... फ़ौक्स ट्रोट... रूंबा... आइए लैमबथ वाक करें।'

और अफ़रोज़ अपने पार्टनर के साथ रक़्स में मसरूफ़ हो गई, हालाँकि वो जानती थी कि वो स्कारलेट ओहारा नहीं है क्योंकि वो चाँद की दुनिया की बासी नहीं थी। सब्ज़े पर रक़्स हो रहा था। रविश की दूसरी तरफ़ एक दरख़्त के नीचे, लकड़ी के आरिज़ी प्लेटफार्म पर चार्ल्स जोडा का ऑर्केस्ट्रा अपनी पूरी स्विंग में तेज़ी से बज रहा था... और फिर एकदम से कुत्ते के दूसरे किनारे पर ईस्तादा लाऊड स्पीकर मैं कारमन मिरांडा का रिकार्ड चीख़ने लगा, “तुम आज की रात किसी के बाज़ुओं में होना चाहती हो?” लक्की डिप और “आरिज़ी काफ़ी हाऊस” के रंगीन ख़ेमों पर बंधी हुई छोटी-छोटी घंटियाँ हवा के झोंकों के साथ बजती रहें और किसी ने उसके दिल में आहिस्ता-आहिस्ता कहा, मौसीक़ी... दीवानगी... ज़िंदगी... दीवानगी... शोपाँ के नग़्मे... “जिप्सी मून।” और ख़ुदा।
उसने अपने हम-रक़्स के मज़बूत, पर ए’तिमाद, मग़रूर बाज़ुओं पर अपना बोझ डाल कर नाच के एक कुइक-स्टेप का टर्न लेते हुए उसके शानों पर देखा। सब्ज़े पर उस जैसे कितने इंसान उसकी तरह दो-दो के रक़्स की टुकड़ियों में मुंतशिर थे। “जूलियट” और “रोमियो”, “विक्टोरिया” और “एल्बर्ट”, “बीटर्स” और “दांते” एक दूसरे को ख़ूबसूरत धोके देने की कोशिश करते हुए, एक दूसरे को ग़लत समझते हुए अपनी इस मस्नूई’, आरिज़ी, चाँद की वादी में कितने ख़ुश थे वो सब के सब... बहार के पहले शगूफ़ों की मुतलाशी और काग़ज़ी कलियों पर क़ाने और मुतमइन... ज़िंदगी के तआ’क़ुब में परेशान-ओ-सरगर्दां ज़िंदगी... हुँह... शोपाँ की मौसीक़ी, सफ़ेद गुलाब के फूल, और अच्छी किताबें। काश ज़िंदगी में सिर्फ़ यही होता।

चाँद की वादी के उस अफ़्साना-निगार अवीनाश ने एक मर्तबा उससे कहा था। हुँह... कितना बनते हो अवीनाश अभी सामने से एक ख़ूबसूरत लड़की गुज़र जाए और तुम अपनी सारी तख़य्युल परस्तियाँ भूल कर सोचने लगोगे कि उसके बग़ैर तुम्हारी ज़िंदगी में कितनी बड़ी कमी है... और अवीनाश ने कहा था, काश जो हम सोचते वही हुआ करता, जो हम चाहते वही मिलता... हाय ये ज़िंदगी का लक्की डिप... ज़िंदगी, जिसका जवाब मोनालीज़ा का तबस्सुम है जिसमें नर्सरी के ख़ूबसूरत गीत और चाँद सितारे तुर्शती हुई कहानियाँ तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाती, तुम्हारा मुँह चिढ़ाती बहुत पीछे रह जाती हैं, जहाँ कूक रोबिन फिर से ज़िंदा होने के लिए रोज़ नए-नए तीरों से मरता रहता है... और कर्ली लौक्स रेशमीं कुशनों के अंबार पर कभी नहीं चढ़ पाती। काश अफ़रोज़ तुम और फिर वो ख़ामोश हो गया था क्योंकि उसे याद आ गया था कि अफ़रोज़ को “काश...”, इस सस्ते और जज़्बाती लफ़्ज़ से सख़्त चिड़ है। इस लफ़्ज़ से ज़ाहिर होता है जैसे तुम्हें ख़ुद पर ए’तिमाद, भरोसा, यक़ीन नहीं।
और अफ़रोज़ लैमबेथ वाक की उछल कूद से थक गई। कैसा बे-हूदा सा नाच है। किस क़दर बे-मा’नी और फ़ुज़ूल से steps हैं। बस उछलते और घूमते फिर रहे हैं, बेवक़ूफ़ों की तरह।

“मिस ओहारा...”, उसके हम-रक़्स ने कुछ कहना शुरू’ किया।
“अफ़रोज़ सुल्ताना कहिए।”

“ओह... मिस अफ़रोज़ हमीद अली... आइए कहीं बैठ जाएँ।”
“बैठ कर क्या करें?”

“अर... बातें!”
“बातें आप कर ही क्या सकते हैं सिवाए इसके कि मिस हमीद अली आप ये हैं, आप वो हैं, आप बेहद उ’म्दा रक़्स करती हैं, आपने कल के सिंगल्ज़ में प्रकाश को ख़ूब हराया...।”

“उर... ग़ालिबन आपको सियास्यात से...।”
“शुक्रिया, अवीनाश इसके लिए ज़रूरत से ज़ियादा है।”

“अच्छा तो फिर मौसीक़ी या पालमणि की नई फ़िल्म...।”
“मुख़्तसर ये कि आप ख़ामोश किसी तरह नहीं बैठ सकते...”, वो चुप हो गया।

फिर शाम का अँधेरा छाने लगा। दरख़्तों में रंग बिरंगे बर्क़ी क़ुमक़ुमे झिलमला उठे और वो सब-सब्ज़े को ख़ामोश और सुनसान छोड़ के बाल-रुम के अंदर चले गए। ऑर्केस्ट्रा की गति तब्दील हो गई। जाज़ अपनी पूरी तेज़ी से बजने लगा। वो हॉल के सिरे पर शीशे के लंबे-लंबे दरीचों के पास बैठ गई।
उसके क़रीब उसकी मुमानी का छोटा भाई, जो कुछ अ’र्से क़ब्ल अमरीका से वापिस आया था, मेरी वुड से बातें करने में मशग़ूल था और बहुत सी लड़कियाँ अपनी सब्ज़ बेद की कुर्सियाँ उसके आस-पास खींच कर इंतिहाई इन्हिमाक और दिलचस्पी से बातें सुन रही थीं और मेरीवुड हँसे जा रही थी। मेरीवुड, जो साँवली रंगत की बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक आला ख़ानदान ईसाई लड़की और अंग्रेज़ कर्नल की बीवी थी, एक हिन्दुस्तानी फ़िल्म में क्लासिकल रक़्स कर चुकी थी और अब जाज़ की मौसीक़ी और शेरी के गिलासों के सहारे अपनी शामें गुज़ार रही थी।

और पाइपों और सिगरटों के धुएँ का मिला-जुला लरज़ता हुआ अ’क्स बाल-रुम की सब्ज़ रोग़नी दीवारों पर बने हुए ताइरों, पाम के दरख़्तों और रक़्साँ अप्सराओं के धुँदले-धुँदले नुक़ूश को अपनी लहरों में लपेटता, नाचता, रंगीन और रौशन छत की बुलंदी की तरफ़ उठता रहा। ख़्वाबों का शबनम-आलूद सेहर आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतर रहा था।
और यक-लख़्त, मेरी वुड ने ज़ोर से हँसना और चिल्लाना शुरू’ कर दिया। अफ़रोज़ की मुमानी के हॉलीवुड पलट भाई ने ज़रा घबरा कर अपनी कुर्सी पीछे को सरका ली। सब उसकी तरफ़ देखने लगे। ऑर्केस्ट्रा के सुर आहिस्ता-आहिस्ता डूबते गए और दबी-दबी और मद्धम क़हक़हों की आवाज़ें उभरने लगीं। वो सब्ज़ आँखों वाली ज़र्द-रू लड़की, जो बहुत देर से एक हिन्दुस्तानी प्रिंस के साथ नाच रही थी, थक कर अफ़रोज़ के क़रीब आकर बैठ गई और उसका बाप, जो एक हिन्दुस्तानी रियासत की फ़ौज का अफ़सर आला था, फ़िरन के पत्तों के पीछे गैलरी में बैठा इत्मीनान से सिगार का धुआँ उड़ाता रहा।

फिर खेल शुरू’ हुए और एक बेहद ऊटपटांग से खेल में हिस्सा लेने के लिए सब दुबारा हॉल की फ़्लोर पर आ गए और अफ़रोज़ का हम-रक़्स रैट बटलर अपने ख़्वाब-नाक आँखों वाले दोस्त के साथ उसके क़रीब आया, “ मिस हमीद अली आप मेरी पार्टनर हैं न?”
“जी हाँ... आइए।”

और इस ख़्वाब-नाक आँखों वाले दोस्त ने कहा, “बारह बजने वाले हैं। नया साल मुबारक हो। लेकिन आज इतनी ख़ामोश क्यों हैं आप? ”
“आपको भी मुबारक हो लेकिन ज़रूरत है कि इस ज़बरदस्त ख़ुशी में ख़्वाह-मख़ाह की बेकार बातों का सिलसिला रात-भर ख़त्म ही न किया जाए।”

“लेकिन मैं तो चाहता हूँ कि आप इस तरह ख़ामोश न रहें। इससे ख़्वाह-मख़ाह ये ज़ाहिर होगा कि आपको इस मजमे में एक मख़सूस शख़्स की मौजूदगी नागवार गुज़र रही है।”
“पर जो आप चाहें, लाज़िम तो नहीं कि दूसरों की भी वही मर्ज़ी हो। क्योंकि जब आप कुछ कहते होते हैं उस वक़्त आपको यक़ीन होता है कि सारी दुनिया बेहद दिलचस्पी से आपकी तरफ़ मुतवजजेह है”, और बा’द में लड़कियाँ कहती हैं, उफ़्फ़ुह! किस क़दर मज़े की बातें करते हैं अनवर साहब

इतने में प्रकाश काग़ज़ और पैंसिलें तक़सीम करती हुई उनकी तरफ़ आई और उनको उनके फ़र्ज़ी नाम बताती हुई आगे बढ़ गई। थोड़ी देर के लिए सब चुप हो गए। फिर क़हक़हों के शोर के साथ खेल शुरू’ हुआ। खेल के दौरान में उसने अपनी ख़्वाब-नाक आँखें उठा कर यूँही कुछ न कुछ बोलने की ग़रज़ से पूछा, “जी, तो हम क्या बातें कर रहे थे? ”
“मेरा ख़याल है कि हम बातें क़तई’ कर ही नहीं रहे थे। क्यों न आप क़ाएदे से अपनी पार्टनर के साथ जा कर खेलिए। आपको मा’लूम है कि मैं स्कार्लेट ओहारा हूँ। जो लेट अभी आपको तलाश कर रही थी।”, फिर डाक्टर मोहरा और अवीनाश उसकी तरफ़ आ गए और वो उनके साथ खेल में मसरूफ़ हो गई।

और जब रात के इख़्तिताम पर वो रिफ़अ’त के साथ अपना ओवर कोट लेने के लिए क्लोक रुम की तरफ़ जा रही थी तो गैलरी के सामने की तरफ़ से गुज़रते हुए उसने इस सब्ज़ आँखों वाली ज़र्द-रू जूलियट के बाप को अपने दोस्तों से कहते सुना, “आप मेरे दामाद मेजर भंडारी से मिले? मुझे तो फ़ख़्र है कि मेरी बड़ी लड़की ने अपने फ़िरक़े से बाहर शादी करने में ज़ात और मज़हब की दक़यानूसी क़ुयूद की परवाह नहीं की। मेरी लड़की का इंतिख़्वाब पसंद आया आपको? ही ही ही। दर-अस्ल मैंने अपनी चारों लड़कियों का टैस्ट कुछ इस तरह cu।tivate किया है कि पिछली मर्तबा जब मैं उनको अपने साथ यूरोप ले गया तो...”, और अफ़रोज़ जल्दी से बाल रुम के बाहर निकल आई। ये ज़िंदगी... ये ज़िंदगी का घटियापन
वाक़ई’... ये ज़िंदगी...

और जश्न नौ-रोज़ के दूसरे दिन इस बेचारे रैट बटलर ने अपने दोस्त, इस ख़्वाब-नाक आँखों वाले डैशिंग शह-सवार से कहा, जो परिस्तान के रास्तों पर सबसे अलग-अलग टहला करता था, “अजब लड़की है भई।”
“हुआ करे।” और वो ख़्वाब-नाक आँखों वाला दोस्त बे-नियाज़ी से सिगरेट के धुएँ के हल्क़े बना-बना कर छत की तरफ़ भेजता रहा। और उस अ’जीब लड़की की दोस्त कह रही थी, “हुँह, इस क़दर मग़रूर, मुग़ालता-फ़ाईड क़िस्म का इंसान।”

“हुआ करे भई। हमसे क्या।”, और अफ़रोज़ बे-तअ’ल्लुक़ी के साथ निटिंग में मसरूफ़ हो गई।
“इतनी ऊँची बनने की कोशिश क्यों कर रही हो?”, रिफ़अ’त ने चिड़ कर पूछा।

“क्या हर्ज है।”
“कोई हर्ज ही नहीं? क़सम ख़ुदा की अफ़रोज़ इस अवीनाश के फ़लसफ़े ने तुम्हारा दिमाग़ ख़राब कर दिया है।”

“तो गोया तुम्हारे लिए ज़ंजीर हिलाई जाए।”
“उफ़्फ़ोह। जैसे आप यूँही नो लिफ़्ट जारी रखेंगी”

“क़तई’... ज़िंदगी तुम्हारे लिए एक मुसलसल जज़्बात इज़तिराब है लेकिन मुझे उसूलों में रहना ज़ियादा अच्छा लगता है... जानती हो ज़िंदगी के ये ईयर कंडीशंड उसूल बड़े कार आमद और महफ़ूज़ साबित होते हैं।”
“उफ़्फ़ोह... क्या बुलंद-परवाज़ी है।”

“मैं?”
“तुम और वो... ख़ुदा की क़सम ऐसी बेपरवाही से बैठा रहता है जैसे कोई बात ही नहीं। जी चाहता है पकड़ कर खा जाऊँ उसे। झुकना जानता ही नहीं जैसे।”

“अरे चुप रहो भाई।”
“सचमुच उसकी आँखों की गहराइयाँ इतनी ख़ामोश, उसका अंदाज़ इतना पुर-वक़ार, उतना बे-तअ’ल्लुक़ है कि बा’ज़ मर्तबा जी में आता है कि बस ख़ुदकुशी कर लो। या’नी ज़रा सोचो तो, तुम जानती हो कि तुम्हारे कुशन के नीचे या मसहरी के सिरहाने मेज़ पर बेहतरीन क़िस्म की कैडबरी चॉकलेट का बड़ा सा ख़ूबसूरत पैकेट रक्खा हुआ है लेकिन तुम उसे खा नहीं सकतीं... उल्लू!”

“कौन भई...?”, प्रकाश ने कमरे में दाख़िल होते हुए पूछा।
“कोई नहीं... है... एक... एक...”, रिफ़अ’त ने अपने ग़ुस्से के मुताबिक़त में कोई मौज़ूँ नाम सोचना चाहा।

“बिल्ला...”, अफ़रोज़ ने इत्मीनान से कहा।
“बिल्ला!”, प्रकाश काफ़ी परेशान हो गई।

“हाँ भई... एक बिल्ला है बहुत ही typical क़िस्म का ईरानी बिल्ला।”, अफ़रोज़ बोली।
“तो क्या हुआ उसका?”, प्रकाश ने पूछा।

“कुछ नहीं... होता क्या? सब ठीक है बिल्कुल। बस ज़रा उसे अपनी आँखों पर बहुत नाज़ है और उन मसऊद असग़र साहब का क्या होगा? जो मसूरी से मार ख़त पे ख़त निहायत इस्टाईलिश अंग्रेज़ी में तुम्हारे टेनिस की तारीफ़ में भेजा करते हैं।”
“उनको तार दे दिया जाए...: nose upturned-nose upturned-riffat”

“हाँ। या’नी लिफ़्ट नहीं देते। जिसकी नाक ज़रा ऊपर को उठी होती है वो आदमी हमेशा बेहद मग़रूर और ख़ुद-पसंद तबीअ’त का मालिक होता है।”
“तो तुम्हारी नाक इतनी उठी हुई कहाँ है।”

“क़तई’ उठी हुई है। बेहतरीन प्रोफ़ाइल आता है।”
“वाक़ई’ हम लोग भी क्या-क्या बातें करते हैं।”

“जनाब, बेहद मुफ़ीद और अ’क़्ल-मंदी की बातें हैं।”
“और सलाहुद्दीन बेचारा”

“वो तो पैदा ही नहीं हुआ अब तक।”, रिफ़अ’त ने बड़ी रंजीदा अंदाज़ से कहा।
क्योंकि ये उनका तख़य्युल किरदार था और ख़यालिस्तान के किरदार चाँद की वादी में से कभी नहीं निकलते। जब कभी वो सब किसी पार्टी में मिलें तो सबसे पहले इंतिहाई संजीदगी के साथ एक दूसरे से इस फ़र्ज़ी हस्ती की ख़ैरियत पूछी जाती, उसके मुतअ’ल्लिक़ ऊट-पटांग बातें की जातीं और अक्सर उन्हें महसूस होता जैसे उन्हें यक़ीन सा हो गया है कि उनका ख़याली किरदार अगले लम्हे उनकी दुनिया और उनकी ज़िंदगी में दाख़िल हो जाएगा।

और फ़ुर्सत और बे-फ़िक्री की एक ख़ुश-गवार शाम इन्होंने यूँही बातें करते-करते सलाहुद्दीन की इस ख़याली तस्वीर को मुकम्मल किया था। वो सब शॉपिंग से वापिस आकर मंज़र अहमद पुर-ज़ोर शोर से तबसरा कर रही थीं जो उनसे देर तक आर्टस ऐंड क्राफ्ट्स एम्पोरियम के एक काउंटर पर बातें करता रहा था और प्रकाश ने क़तई’ फ़ैसला कर दिया था कि वो बेहद बनता है और अफ़रोज़ बेहद परेशान थी कि किस तरह उसका ये मुग़ालता दूर करे कि वो उसे पसंद करती है।
“लेकिन उसे लिफ़्ट देने की कोई माक़ूल वज्ह पेश करो।”

“क्योंकि भई हमारा मयार इस क़दर बुलंद है कि कोई मार्क तक पहुँच नहीं सकता।”
”लिहाज़ा अब की बार उसको बता दिया जाएगा कि भई अफ़रोज़ की तो मंगनी होने वाली है।”

“लेकिन किससे?”
“यही तो तय करना बाक़ी है। मसलन... मसलन एक आदमी से। कोई नाम बताओ।”

“परवेज़।”
“बड़ा आम अफ़सानवी सा नाम है। कुछ और सोचो!”

“सलामतुल्लाह!”
“हश! भई वाह, क्या शानदार नाम दिमाग़ में आया... सलाहुद्दीन!”

“ये ठीक है। अच्छा, और भाई सलाहुद्दीन का तआ’रुफ़ किस तरह कराया जाए?”
“भई सलाहुद्दीन साहब जो थे वो एक रोज़ परिस्तान के रास्ते पर शफ़क़ के गुल-रंग साये तले मिल गए।”

“परिस्तान के रास्ते पर?”
“चुपकी सुनती जाओ। जानती हो में इस क़दर बेहतरीन अफ़साने लिखती हूँ जिनमें सब परिस्तान की बातें होती हैं। बस फिर ये हुआ कि...”

“जनाब हम तो इस दुनिया के बासी हैं। परिस्तान और कहानियों की पगडंडियों पर तो सिर्फ़ अवीनाश ही भटकता अच्छा लगता है।”
“चच चच चच। बेचारा अवीनाश... गुड्डू।”

“भई ज़िक्र तो सलाहुद्दीन का था।”
“ख़ैर तो जनाब सलाहुद्दीन साहब परिस्तान के रास्ते पर हरगिज़ नहीं मिले। वो भी हमारी दुनिया के बासी हैं और उनका दिमाग़ क़तई’ ख़राब नहीं हुआ है। चुनाँचे सब ही मैटर आफ़ फ़ैक्ट तरीक़े से।”

“ये हुआ कि अफ़रोज़ दिल-कुशा जा रही थी तो रेलवे क्रासिंग के पास बेहद रोमैंटिक अंदाज़ से उसकी कार ख़राब हो गई।”
“नहीं भई ‘वाक़िआ’ ये था कि अफ़रोज़ ऑफिसर्स शाप जो गई एक रोज़ तो पता चला कि वो ग़लत तारीख़ पर पहुँच गई है, और वो अपना कार्ड भी घर भूल गई थी। बस भाई सलाहुद्दीन जो थे इन्होंने जब देखा कि एक ख़ूबसूरत लड़की बरगंडी रंग का क्योटेक्स न मिलने के ग़म में रो पड़ने वाली है तो उन्होंने बेहद gallantly आगे बढ़कर कहा कि, “ख़ातून मेरा आज की तारीख़ का कार्ड बेकार जा रहा है, अगर आप चाहें...”

“बहुत ठीक। आगे चलो। फिर क्या होना चाहिए?”
”बस वो पेश हो गए।”

“न पेश न ज़ेर न ज़बर... अफ़रोज़ ने फ़ौरन नो लिफ़्ट कर दिया और बेचारे दिल-शिकस्ता हो गए।”
“अच्छा उनका कैरेक्टर...”

“बहुत ही बैश-फ़ुल।”
“हरगिज़ नहीं। काफ़ी तेज़... लेकिन भई डैंडी क़तई’ नहीं बर्दाश्त किए जाएँगे”

“क़तई’ नहीं साहब... और और फ्लर्ट हों थोड़े से...”
“तो कोई मज़ाइक़ा नहीं... अच्छा वो करते क्या हैं?”

“भई ज़ाहिर है कुछ न कुछ तो ज़रूर ही करते होंगे”
”आर्मी में रख लो...”

“ओक़... हद हो गई तुम्हारे अस्सिटैंट की। कुछ सिविल सर्विस वग़ैरह का लाओ।”
“सब बोर होते हैं।”

“अरे हम बताएँ, कुछ करते कराते नहीं। मंज़र अहमद की तरह तअल्लुक़ादार हैं। पच्चीस गाँव और एक यही रोमैंटिक सी झील जहाँ पर वो क्रिसमिस के ज़माने में अपने दोस्तों को मदद किया करते हैं। हाँ और एक शानदार सी स्पोर्टस कार...”
“लेकिन भई उसके बावजूद बे-इंतिहा क़ौमी ख़िदमत करता है। कम्यूनिस्ट क़िस्म की कोई मख़लूक़।”

“कम्यूनिस्ट है तो उसे अपने पचीसों गाँव अलाहदा कर देने चाहिऐं क्यों कि प्राईवेट प्रॉपर्टी...”
“वाह, अच्छे भाई भी तो इतने बड़े कम्यूनिस्ट हैं। इन्होंने कहाँ अपना तअ’ल्लुक़ा छोड़ा है?”

“आप तो चुग़द हैं निशात ज़रीं... अच्छे भैया तो सचमुच के आदमी हैं। हीरो को बेहद आईडीयल क़िस्म का होना चाहिए। या’नी ग़ौर करो सलाहुद्दीन महमूद किस क़दर बुलंद-पाया इंसान है कि जनता की ख़ातिर...”
“उफ़्फ़ुह... क्या बोरियत है भई। तुम सब मिलकर अभी यही तय नहीं कर पाई कि वो करता क्या है।”

“क्या बात हुई है वल्लाह!”
“जल्दी बताओ।”

“असफ़हानी चाय में...”
और सब पर ठंडा पानी पड़ गया।

“क्यों जनाब असफ़हानी चाय में बड़े-बड़े स्मार्ट लोग देखने में आते हैं।”
“अच्छा भई क़िस्सा मुख़्तसर ये कि पढ़ता है। फिज़िक्स में रिसर्च कर रहा है गोया।”

“पढ़ता है तो ऑफिसर्स शाप में कहाँ से पहुँच गया!”
“भई हमने फ़ैसला कर दिया है आख़िर। हवाई जहाज़ में सिवल एविएशन ऑफ़िसर है।”

“ये आईडिया कुछ...”
“तुम्हें कोई आईडिया ही पसंद नहीं आया। अब तुम्हारे लिए कोई आसमान से तो ख़ास-तौर पर बन कर आएगा नहीं आदमी।”

“अच्छा तो फिर यही मिस्टर ब्वॉय नेक्स्ट डोर जो ग़ुरूर के मारे अब तक डैडी पर काल करने नहीं आए।”
और इस तरह इन्होंने एक तख़य्युल किरदार की तख़लीक़ की थी। सब ही अपने दिलों में चुपके चुपके ऐसे किरदारों की तख़लीक़ कर लेते हैं जो उनकी दुनिया में आकर बनते और बिगड़ते रहते हैं। ये बेचारे बेवक़ूफ़ लोग।

लेकिन प्रकाश का ख़याल था कि उनकी mad-hatter’s पार्टी में सब के सब हद से ज़ियादा अ’क़्ल-मंद हैं। मग़रूर और ख़ुद-पसंद निशात ज़रीं जो ऐसे fantastic अफ़साने लिखती है जिनका सर पैर किसी की समझ में नहीं आता लेकिन जिनकी तारीफ़ एडिकेट के उसूलों के मुताबिक़ सब कर देते हैं जो अक्सर छोटी-छोटी बातों पर उलझ कर बच्चों की तरह रो पड़ती है या ख़ुश हो जाती है और फिर अपने आपको सिपर इंटलेक्टुअल समझती है। रिफ़अ’त, जिसके लिए ज़िंदगी हमेशा हँसती नाचती रहती है और अफ़रोज़ जो निहायत संजीदगी से नो लिफ़्ट के फ़लसफ़े पर थीसिस लिखने वाली है क्योंकि उनकी पार्टी के दस अहकाम में से एक ये भी था कि इंसान को ख़ुद-पसंद, ख़ुद-ग़रज़ और मग़रूर होना चाहिए क्योंकि ख़ुद-पसंदी दिमाग़ी सेहत-मंदी की सबसे पहली अलामत है।
एक सह-पहर वो सब अपने अमरीकन कॉलेज के तवील दरीचों वाले फ़्रांसीसी वज़ा के म्यूज़िक रुम में दूसरी लड़कियों के साथ पियानो के गर्द जमा’ हो कर सालाना कोंसर्ट के ओपेरा के लिए रीहरसल कर रही थीं। मौसीक़ी की एक किताब के वर्क़ उलटते हुए किसी जर्मन नग़्मा-नवाज़ की तस्वीर देखकर प्रकाश ने बेहद हमदर्दी से कहा, “हमारे अवीनाश भाई भी तो स्कार्फ़, लंबे-लंबे बालों, ख़्वाब-नाक आँखों और पाइप के धुएँ से ऐसा बोहेमियन अंदाज़ बनाते हैं कि सब उनको ख़्वाह-मख़ाह जीनियस समझने पर मजबूर हो जाएँ।”

“आदमी कभी जीनियस हो ही नहीं सकता।”,निशात अपने फ़ैसला-कुन अंदाज़ में बोली। “अब तक जितने जीनियस पैदा हुए हैं सारे के सारे बिल्कुल girlish थे और उनमें औ’रत का अंसर क़तई’ तौर पर ज़ियादा मौजूद था। बाइरन, शीले, कीट्स, शोपाँ... ख़ुद आपका नपोलियन आज़म लड़कियों की तरह फूट-फूटकर रोने लगता था।”, रिफ़अ’त आइरिश दरीचे के क़रीब ज़ोर-ज़ोर से अलापने लगी। मैंने ख़्वाब में देखा कि मर्मरीं ऐवानों में रहती हूँ, गाने की मश्क़ कर रही थी। बाहर बरामदे के यूनानी सुतूनों और बाग़ पर धूप ढलना शुरू’ हो गई।
“सुपर्ब, मेरी बच्चियो हमारी रीहरसलें बहुत अच्छी तरह प्रोग्रस् कर रही हैं।”, और मौसीक़ी की फ़्रांसीसी प्रोफ़ैसर अपनी मुतमइन और शीरीं मुस्कुराहट के साथ म्यूज़िक रुम से बाहर जा कर बरामदे के सतूनों के तवील सायों में खो गईं। निशात ने इसी सुकून और इत्मीनान के साथ पियानो बंद कर दिया।

ज़िंदगी कितनी दिल-चस्प है, कितनी शीरीं। दरीचे के बाहर साये बढ़ रहे थे। फ़िज़ा में “लाबोहेम” के नग़्मों की गूँज अब तक रक़्साँ थी। चारों तरफ़ कॉलेज की शानदार और वसीअ’ इमारतों की क़तारें शाम के धुँदलके में छुपती जा रही थीं। मेरा प्यारा कॉलेज, एशिया का बेहतरीन कॉलेज, एशिया में अमरीका लेकिन इसका उसे उस वक़्त ख़याल नहीं आया। इस वक़्त उसे हर बात अ’जीब मा’लूम नहीं हुई। वो सोच रही थी हम कितने अच्छे हैं। हमारी दुनिया किस क़दर मुकम्मल और ख़ुश-गवार है। अपनी मा’सूम मसर्रतें और तफ़रीहें, अपने रफ़ीक़ और साथी, अपने आईडीयल और नज़रिए और इसी ख़ूबसूरत दुनिया का अ’क्स वो अपने अफ़्सानों में दिखाना चाहती है तो उसकी तहरीरों को fantastic और मस्नूई’ कहा जाता है... बेचारी मैं।
मौसीक़ी के औराक़ समेटते हुए उसे अपने आपसे हमदर्दी करने की ज़रूरत महसूस होने लगी। उसने एक-बार अवीनाश को समझाया था कि हमारी शरीयत के दस अहकाम में से एक ये भी है कि हमेशा अपनी तारीफ़ आप करो। तारीफ़ के मुआमले में कभी दूसरों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। महफ़ूज़ तरीन बात ये है कि वक़तन-फ़वक़तन ख़ुद को याद दिलाते रहा जाए कि हम किस क़दर बेहतरीन हैं। हमको अपने इलावा दुनिया की कोई और चीज़ भी पसंद नहीं आ सकी क्योंकि ख़ुद बादलों के महलों में महफ़ूज़ हो कर दूसरों पर हँसते रहना बेहद दिल-चस्प मश्ग़ला है। ज़िंदगी हम पर हँसती है, हम ज़िंदगी पर हँसते हैं। “और फिर ज़िंदगी अपने आप पर हँसती है।”, बेचारे अवीनाश ने इंतिहाई संजीदगी से कहा था और अगर अफ़रोज़ का ख़याल था कि वो इस दुनिया से बिल्कुल मुतमइन नहीं तो प्रकाश और निशात ज़रीं को, जो दोनों बेहद अ’क़्ल-मंद थीं, क़तई’ तौर पर यक़ीन था कि ये भी उनकी mad-hatter’s पार्टी की cynicism का एक ख़ूबसूरत और फ़ाएदा-मंद पोज़ है।

और सचमुच अफ़रोज़ को इस सुब्ह महसूस हुआ कि वो भी अपनी इस दुनिया, अपनी इस ज़िंदगी से इंतिहाई मुतमइन और ख़ुश है। उसने अपनी चारों तरफ़ देखा। इसके कमरे के मशरिक़ी दरीचे में से सुब्ह के रौशन और झिलमिलाते हुए आफ़ताब की किरनें छन-छन कर अंदर आ रही थीं और कमरे की हल्की गुलाबी दीवारें इस नारंजी रौशनी में जगमगा उठी थीं। बाहर दरीचे पर छाई हुई बेल के सुर्ख़-फूलों की बोझ से झुकी हुई लंबी-लंबी डालियाँ हवा के झोंकों से हिल-हिल कर दरीचे के शीशों पर अपने साये की आड़ी तिरछी लकीरें बना रही थीं। उसने किताब बंद कर के क़रीब के सोफ़े पर फेंक दी और एक तवील अंगड़ाई लेकर मसहरी से कूद कर नीचे उतर आई। उसने वक़्त देखा। सुब्ह जागने के बा’द वो बहुत देर तक पढ़ती रही थी। उसने ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस कर कॉलेज में स्टेज होने वाले ओपेरा का एक गीत गाते हुए मुँह धोया और तैयार हो कर मेज़ पर से किताबें उठाती हुई बाहर निकल आई।
क्लास का वक़्त बहुत क़रीब था। उसने बरसाती से निकल कर ज़रा तेज़ी से लाईन को पार किया और फाटक की तरफ़ बढ़ते हुए उसने देखा कि बाग़ के रास्ते पर, सब्ज़े के किनारे, उसका फ़ेडो रोज़ की तरह दुनिया जहाँ से क़तई’ बे-नियाज़ और सुल्ह-कुल अंदाज़ में आँखें नीम-वा किए धूप सेंक रहा था। उसने झुक कर उसे उठा लिया। उसके लंबे-लंबे सफ़ेद रेशमीं बालों पर हाथ फेरते हुए उसने महसूस किया, उसने देखा कि दुनिया कितनी रौशन, कितनी ख़ूबसूरत है। बाग़ के फूल, दरख़्त, पत्तियाँ, शाख़ें इसी सुनहरी धूप में नहा रही थीं। हर चीज़ ताज़ा-दम और बश्शाश थी। खुली नीलगूँ फ़िज़ाओं में सुकून और मसर्रत के ख़ामोश राग छिड़े हुए थे। कायनात किस क़दर पुर-सुकून और अपने वजूद से कितनी मुतमइन थी।

दूर कोठी के अहाते के पिछले हिस्से में धोबी ने बाग़ के हौज़ पर कपड़े पटख़ने शुरू’ कर दिए थे और नौकरों के बच्चे और बीवीयाँ अपने क्वार्टरों के सामने घास पर धूप में अपने कामों में मसरूफ़ एक दूसरे से लड़ते हुए शोर मचा रही थीं। रोज़मर्रा की ये मानूस आवाज़ें, ये महबूब और अ’ज़ीज़ फ़ज़ाएँ... ये उसकी दुनिया थी, उसकी ख़ूबसूरत और मुख़्तसर सी दुनिया और उसने सोचा कि वाक़ई’ ये उसकी हिमाक़त है अगर वो अपनी इस आराम-देह और पुर-सुकून कायनात से आगे निकलना और सायों की अँधेरी वादी में झाँकना चाहती है। ऐसे adventure हमेशा बेकार साबित होते हैं। उसने फ़ेडो को प्यार कर के उसकी जगह पर बिठा दिया और आगे बढ़ गई।
बाग़ के अहाते की दूसरी

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close