सौदा बेचने वाली

सुहैल और जमील दोनों बचपन के दोस्त थे। उनकी दोस्ती को लोग मिसाल के तौर पर पेश करते थे। दोनों स्कूल में इकट्ठे पढ़े। फिर उसके बाद सुहैल के बाप का तबादला हो गया और वो रावलपिंडी चला गया। लेकिन उनकी दोस्ती फिर भी क़ायम रही। कभी जमील रावलपिंडी चला जाता और कभी सुहैल लाहौर आ जाता।
दोनों की दोस्ती का अस्ल सबब ये था कि वो हुस्न पसंद थे। वो ख़ूबसूरत थे। बहुत ख़ूबसूरत लेकिन वो आम ख़ूबसूरत लड़कों की मानिंद बदकिर्दार नहीं थे। उनमें कोई ऐ’ब नहीं था।

दोनों ने बी.ए. पास किया। सुहैल ने रावलपिंडी के गार्डेन कॉलेज और जमील ने लाहौर के गर्वनमेंट कॉलेज से बड़े अच्छे नंबरों पर। इस ख़ुशी में उन्होंने बहुत बड़ी दा’वत की। इसमें कई लड़कियां भी शरीक थीं।
जमील क़रीब क़रीब सब लड़कियों को जानता था, मगर एक लड़की को जब उसने देखा, जिससे वो क़तअ’न नाआश्ना था, तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसके सारे ख़्वाब पूरे हो गए हैं।

उसने उस लड़की के मुतअ’ल्लिक़, जिसका नाम जमीला था, दरयाफ़्त किया तो मालूम हुआ कि वो सलमा की छोटी बहन है। सलमा के मुक़ाबले में जमीला बहुत हसीन थी। सलमा की शक्ल-ओ-सूरत सीधी सादी थी लेकिन जमीला का हर नक़्श तीखा और दिलकश था। जमील उसको देखते ही उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हो गया।
उसने फ़ौरन अपने दिल के जज़्बात से अपने दोस्त को आगाह कर दिया। सुहैल ने उससे कहा, “हटाओ यार, तुमने उस लड़की में क्या देखा है जो इस बुरी तरह लट्टू हो गए हो?”

जमील को बुरा लगा, “तुम्हें हुस्न की परख ही नहीं। अपना अपना दिल है, तुम्हें अगर जमीला में कोई बात नज़र नहीं आई तो इसका ये मतलब नहीं कि मुझे दिखाई न दी हो।”
सुहैल हंसा, “तुम नाराज़ हो रहे हो... लेकिन मैं फिर भी यही कहूंगा कि तुम्हारी ये जमीला बर्फ़ की डली है, इसमें हरारत नाम को भी नहीं। औरत का दूसरा नाम हरारत है।”

“हरारत पैदा कर ली जाती है।”
“बर्फ़ में?”

“बर्फ़ भी तो हरारत ही से पैदा होती है।”
“तुम्हारी ये मंतिक़ अ’जीब-ओ-ग़रीब है। अच्छा भई जो चाहते हो, सो करो। मैं तो यही मशवरा दूंगा कि उसका ख़याल अपने दिल से निकाल दो, इसलिए कि वो तुम्हारे लायक़ नहीं है। तुम उससे कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत हो।”

दोनों में हल्की सी चख़ हुई लेकिन फ़ौरन सुलह हो गई। जमील, सुहैल के मशवरे के बग़ैर अपनी ज़िंदगी में कोई क़दम नहीं उठाता था। उसने जब अपने दोस्त पर ये वाज़ेह कर दिया कि वो जमीला के बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकता तो सुहैल ने उसे इजाज़त दे दी कि जिस क़िस्म की चाहे, झक मार सकता है।
सुहैल रावलपिंडी चला गया। जमील ने जो कि जमीला के इश्क़ में बुरी तरह मुब्तला था, उस तक रसाई हासिल करने की कोशिश शुरू कर दी, मगर मुसीबत ये थी कि उसकी बड़ी बहन सलमा उसको मोहब्बत की नज़रों से देखती थी।

उसने उनके घर आना-जाना शुरू किया तो सलमा बहुत ख़ुश हुई। वो ये समझती थी कि जमील उस के जज़्बात से वाक़िफ़ हो चुका है इसलिए उससे मिलने आता है। चुनांचे उसने ग़ैर मुब्हम अलफ़ाज़ में अपनी मोहब्बत का इज़हार शुरू कर दिया। जमील सख़्त परेशान था कि क्या करे।
जब वो उनके घर जाता तो सलमा अपनी छोटी बहन को किसी न किसी बहाने से अपने कमरे से बाहर निकाल देती और जमील दाँत पीस के रह जाता।

कई बार उसके जी में आई कि वो सलमा से साफ़ साफ़ कह दे कि वो किस ग़रज़ से आता है। उस को उससे कोई दिलचस्पी नहीं, वो उसकी छोटी बहन से मोहब्बत करता है।
बेहद मुख़्तसर लम्हात जो जमील को जमीला की चंद झलकियां देने के लिए नसीब होते थे, उसने आँखों ही आँखों में उससे कई बातें करने की कोशिश की और ये बार-आवर साबित हुई।

एक दिन उसे जमीला का रुक़्क़ा मिला, जिसकी इबारत ये थी:
“मेरी बहन जिस ग़लतफ़हमी में गिरफ़्तार हैं, उसको आप दूर क्यों नहीं करते? मुझे मालूम है कि आप मुझसे मिलने आते हैं लेकिन बाजी की मौजूदगी में आपसे कोई बात नहीं हो सकती। अलबत्ता आप बाहर जहां भी चाहें, मैं आ सकती हूँ।”

जमील बहुत ख़ुश हुआ लेकिन उसकी समझ में नहीं आता था कौन सी जगह मुक़र्रर करे और फिर जमीला को इसकी इत्तिला कैसे दे। उसने कई मोहब्बतनामे लिखे और फाड़ दिए। इसलिए कि उनकी तरसील बड़ी मुश्किल थी। आख़िर उसने ये सोचा कि सलमा से मिलने जाए और मौक़ा मिले तो जमीला को इशारतन वो जगह बता दे, जहां वो उससे मिलना चाहता है।
क़रीब क़रीब एक महीने तक वो सलमा से मिलने जाता रहा मगर कोई मौक़ा न मिला लेकिन एक दिन जब जमीला कमरे में मौजूद थी और सलमा उसे किसी बहाने से बाहर निकालने वाली थी, जमील ने बड़ी बे-रब्ती से बड़बड़ाते हुए कहा, “लोरेंस गार्डन... पाँच बजे।”

जमीला ने ये सुना और चली गई। सलमा ने बड़ी हैरत से पूछा, “ये आपने क्या कहा था?”
“तुम ही से तो कहा था।”

“क्या कहा था?”
“लोरेंस गार्डन... पाँच बजे।”

“हाँ, मैं चाहता था कि तुम कल लोरेंस गार्डन मेरे साथ चलो। मेरा जी चाहता है कि एक पिक्निक हो जाए।”
सलमा ख़ुश हो गई और फ़ौरन रज़ामंद हो गई कि वो जमील के साथ दूसरे रोज़ शाम को पाँच बजे लोरेंस गार्डन में ज़रूर जाएगी। वो सैंडविचेज़ बनाने में महारत रखती थी, चुनांचे उसने बड़े प्यार से कहा, “चिकन सैंडविचेज़ का इंतज़ाम मेरे ज़िम्मे रहा।”

उसी शाम को पाँच बजे लौरंस बाग़ में जमील और जमीला सैंडविच बने हुए थे। जमील ने उस पर अपनी वालिहाना मोहब्बत का इज़हार किया तो जमीला ने कहा, “मैं इससे ग़ाफ़िल नहीं थी। पर क्या करूं, बीच में बाजी हाइल थीं।”
“तो अब क्या किया जाए?”

“ऐसी मुलाक़ातें ज़्यादा देर तक जारी नहीं रह सकेंगी।”
“ये तो दुरुस्त है, कल मुझे सिर्फ़ इस मुलाक़ात की पादाश में तुम्हारी बाजी के साथ यहां आना पड़ेगा।”

“इसीलिए तो मैं सोचती हूँ कि इसका क्या हल होसकता है।”
“तुम हौसला रखती हो।”

“क्यों नहीं... आप क्या चाहते हैं मुझसे? मैं अभी आपके साथ जाने के लिए तैयार हूँ... बताईए, कहाँ चलना है?”
“इतनी जल्दी न करो... मुझे सोचने दो।”

“आप सोच लीजिए।”
“कल शाम को चार बजे तुम किसी न किसी बहाने से यहां चली आना, मैं तुम्हारा इंतिज़ार कर रहा हूँगा। इसके बाद हम रावलपिंडी रवाना हो जाऐंगे।”

“तूफ़ान भी हो तो मैं कल इस मुक़र्ररा वक़्त पर यहां पहुंच जाऊंगी।”
“अपने साथ ज़ेवर वग़ैरा मत लाना।”

“क्यों?”
“मैं तुम्हें ख़ुद ख़रीद के दे सकता हूँ।”

“मैं अपने ज़ेवर नहीं छोड़ सकती... बाजी ने मुझे अपनी एक बाली भी आज तक पहन्ने के लिए नहीं दी। मैं अपने ज़ेवर उसके लिए छोड़ जाऊं?
दूसरे दिन शाम को सलमा सैंडविचेज़ तैयार करने में मसरूफ़ थी कि जमीला ने अलमारी में से अपने ज़ेवर और अच्छे अच्छे कपड़े निकाले, उन्हें सूटकेस में बंद किया और बाहर निकल गई। किसी को कानों कान भी ख़बर न हुई। सलमा सैंडविचेज़ तैयार करती रही और जमील और जमीला दोनों रेल में सवार थे जो रावलपिंडी की तरफ़ तेज़ी से जा रही थी।

रावलपिंडी पहुंच कर जमील अपने दोस्त सुहैल के पास गया जो इत्तफ़ाक़ से घर में अकेला था। उस के वालिदैन ऐब्टआबाद में मुंतक़िल हो गए थे। सुहैल ने जब एक बुर्क़ापोश औरत जमील के साथ देखी तो बड़ा मुतहय्यर हुआ, मगर उसने अपने दोस्त से कुछ न पूछा।
जमील ने उससे कहा, “मेरे साथ जमीला है... मैं इसे अग़वा करके तुम्हारे पास लाया हूँ।”

सुहैल ने पूछा, “अग़वा करने की क्या ज़रूरत थी?”
“बड़ा लंबा क़िस्सा है... में फिर कभी सुना दूंगा।” फिर जमील जमीला से मुख़ातिब हुआ, “बुर्क़ा उतार दो और इस घर को अपना घर समझो। सुहैल मेरा अ’ज़ीज़ तरीन दोस्त है।”

जमीला ने बुर्क़ा उतार दिया और शर्मीली निगाहों से जिनमें किसी और जज़्बे की भी झलक थी, सुहैल की तरफ़ देखा। सुहैल के होंटों पर अ’जीब क़िस्म की मुस्कुराहट फैल गई।
वो अपने दोस्त से मुख़ातिब हुआ, “अब तुम्हारा इरादा क्या है?”

जमील ने जवाब दिया, “शादी करने का... लेकिन फ़ौरन नहीं। मैं आज ही वापस लाहौर जाना चाहता हूँ ताकि वहां के हालात मालूम हो सकें। होसकता है बहुत गड़बड़ हो चुकी हो। मैं अगर वहां पहुंच गया तो मुझ पर किसी को शक नहीं होगा। दो-तीन रोज़ वहां रहूँगा। इस दौरान में तुम हमारी शादी का इंतिज़ाम कर देना।”
सुहैल ने अज़-राह-ए-मज़ाक़ कहा, “बड़े अक़लमंद होते जा रहे हो तुम।”

जमील, जमीला की तरफ़ देख कर मुस्कुराया, “ये तुम्हारी सोहबत ही का नतीजा है।”
“तुम आज ही चले जाओगे?”

जमील ने जवाब दिया, “अभी, इसी वक़्त। मुझे सिर्फ़ अपने इस सरमाया-ए-हयात को तुम्हारे सुपुर्द करना था। ये मेरी अमानत है।”
जमील अपनी जमीला को सुहैल के हवाले करके वापस लाहौर आगया। वहां काफ़ी गड़बड़ मची हुई थी। वो सलमा से मिलने गया। उसने शिकायत की कि वो कहाँ ग़ायब हो गया था। जमील ने उससे झूट बोला, “मुझे सख़्त ज़ुकाम हो गया था। अफ़सोस है कि मैं तुम्हें इसकी इत्तिला न दे सका, इस लिए कि हमारा टेलीफ़ोन ख़राब था और नौकर को अम्मी जान ने किसी वजह से बरतरफ़ कर दिया था।”

“सलमा जब मुतमइन हो गई तो उसने जमील को बताया कि उसकी बहन कहीं ग़ायब हो गई है। बहुत तलाश की है मगर नहीं मिली। अपने ज़ेवर कपड़े साथ ले गई है... मालूम नहीं किस के साथ भाग गई है।”
जमील ने बड़ी हमदर्दी का इज़हार किया। सलमा उससे बड़ी मुतअस्सिर हुई और उसे मज़ीद यक़ीन हो गया कि जमील उसे मोहब्बत करता है। उसकी आँखों में आँसू आगए। जमील ने महज़ रवादारी की ख़ातिर अपनी जेब से रूमाल निकाल कर उसकी नमनाक आँखें पूँछीं और मस्नूई मोहब्बत का इज़हार किया। सलमा अपनी बहन की गुमशुदगी का सदमा कुछ देर के लिए भूल गई।

जब जमील को इत्मिनान हो गया कि उस पर किसी को भी शुबहा नहीं तो वो टैक्सी में रावलपिंडी पहुंचा। बड़ा बेताब था। लाहौर में उसने तीन दिन कांटों पर गुज़ारे थे। हर वक़्त उसकी आँखों के सामने जमीला का हसीन चेहरा रक़्स करता रहता।
धड़कते हुए दिल के साथ वो जब अपने दोस्त के घर पहुंचा तो उसने जमीला को आवाज़ दी। उसको यक़ीन था कि उसकी आवाज़ सुनते ही वो उड़ती हुई आएगी और उसके सीने के साथ चिमट जाएगी, मगर उसे ना-उम्मीदी हुई।

उसका दोस्त उसकी आवाज़ सुन कर आया। दोनों एक दूसरे के गले मिले। जमील ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद पूछा, “जमीला कहाँ है?”
सुहैल ने कोई जवाब न दिया। जमील बड़ा मुज़्तरिब था। उसने फिर पूछा, “यार... जमीला को बुलाओ।”

सुहैल ने बड़े रिक़क़्त-आमेज़ लहजे में कहा, “वो तो उसी रोज़ चली गई थी।”
“क्या मतलब?”

“जब तुम यहां उसे छोड़कर गए तो वो दो-तीन घंटों के लिए ग़ायब हो गई... उसे ग़ालिबन तुमसे मोहब्बत नहीं थी।”
जमील फिर लाहौर आया। मगर सलमा से उसे मालूम हुआ कि उसकी बहन अभी तक ग़ायब है, बहुत ढ़ूंडा मगर नहीं मिली। चुनांचे जमील को फिर रावलपिंडी जाना पड़ा ताकि वो उसकी तलाश वहां करे।

वो अपने दोस्त के घर न गया। उसने सोचा कि होटल में ठहरना चाहिए। जहां से मतलूबा मालूमात हासिल होने की तवक़्क़ो हो सकती है। जब उसने रावलपिंडी के एक होटल में कमरा किराए पर लिया तो उसने देखा कि जमीला साथ वाले कमरे में सुहैल की आग़ोश में है।
वो उसी वक़्त अपने कमरे से निकल आया। लाहौर पहुंचा। जमीला के जे़वरात उसके पास थे, ये उस ने बीमा कराकर अपने दोस्त को भेज दिए और सिर्फ़ चंद अलफ़ाज़ एक काग़ज़ पर लिख कर साथ रख दिए, “मैं तुम्हारी कामयाबी पर मुबारकबाद पेश करता हूँ... जमीला को मेरा सलाम पहुंचा देन।”

दूसरे दिन वो सलमा से मिला। वो उसको जमीला से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत दिखाई दी। वो अपनी बहन की गुमशुदगी के ग़म में रो रही थी। जमील ने उसकी आँखें चूमीं और कहा, “ये आँसू बेकार ज़ाए न करो... इन्हें उन अश्ख़ास के लिए महफ़ूज़ रख्खो, जो इनके मुस्तहिक़ हैं।”
“लेकिन वो मेरी बहन है।”

“बहनें एक जैसी नहीं होतीं... उसे भूल जाओ।”
जमील ने सलमा से शादी करली। दोनों बहुत ख़ुश थे। गर्मियों में मरी गए तो वहां उन्होंने जमीला को देखा जिसका हुस्न मांद पड़ गया था और निहायत वाहियात क़िस्म का मेक-अप किए थे, पिंडी प्वाइंट पर यूं चल फिर रही थी जैसे उसे कोई सौदा बेचना है।


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