बचनी

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भंगिनों की बातें हो रही थीं। ख़ासतौर पर उनकी जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरियां और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ तितर-बितर हो गई थीं।
रशीद उनके मुक़ाबले में गुजरियों की तारीफ़ करता था। उसने मजीद से कहा, “तुम ठीक कहते हो कि अमृतसरी भंगिनें अपनी जवानी के ज़माने में बड़ी पुरकशिश होती हैं, लेकिन उनकी ये जवानी ख़त्रानियों की तरह ज़्यादा देर तक क़ाएम नहीं रहती... बस एक दिन जवान होती हैं और देखते ही देखते अधेड़ हो जाती हैं... उनकी जवानी मालूम नहीं कौन सा चोर चुरा के ले जाता है।”

“ख़ुदा की क़सम... हमारे हाँ एक भंगिन कोठा कमाने आती थी, इतनी कड़ियल जवानी थी कि मैं अपनी कमज़ोर जवानी को महसूस कर के उससे कभी बात न कर सका...” ईसाई मिशनरियों ने उसे अपने मज़हब में दाख़िल कर लिया था।
“नाम उसका फ़ातिमा था। पहले घर वाले उसे फातो कहते थे... मगर जब वो ईसाई हुई तो उसे मिस फातो के नाम से पुकारा जाने लगा। सुबह को वो ब्रेकफास्ट करती थी, दोपहर को लंच और शाम को डिनर... लेकिन चंद महीनों के बाद मैंने उसे देखा कि उसकी सारी कड़ियल जवानी जैसे पिघल गई है... उसकी छातियां जो बड़ी तंद-ख़ू थीं और इस तरह ऊपर उठती रहती थीं जैसे अभी अपना सारा जवान बदन आप पर दाग़ देंगी, इस क़दर नीचे ढलक गई थीं कि उनका नाम-ओ-निशान भी नहीं मिलता था।” [...]

पढ़िए कलिमा

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ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... आप मुसलमान हैं यक़ीन करें, मैं जो कुछ कहूंगा, सच कहूंगा।
पाकिस्तान का इस मुआ’मले से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्ना के लिए मैं जान देने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मैं सच कहता हूँ इस मुआ’मले से पाकिस्तान का कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। आप इतनी जल्दी न कीजिए... मानता हूँ। इन दिनों हुल्लड़ के ज़माने में आपको फ़ुर्सत नहीं, लेकिन आप ख़ुदा के लिए मेरी पूरी बात तो सुन लीजिए... मैंने तुकाराम को ज़रूर मारा है, और जैसा कि आप कहते हैं तेज़ छुरी से उसका पेट चाक किया है, मगर इसलिए नहीं कि वो हिंदू था। अब आप पूछेंगे कि तुमने इसलिए नहीं मारा तो फिर किस लिए मारा... लीजिए, मैं सारी दास्तान ही आपको सुना देता हूँ।

पढ़िए कलमा, ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... किस काफ़िर को मालूम था कि मैं इस लफ़ड़े में फंस जाऊंगा। पिछले हिंदू-मुस्लिम फ़साद में मैंने तीन हिंदू मारे थे। लेकिन आप यक़ीन मानिए वो मारना कुछ और है, और ये मारना कुछ और है। ख़ैर, आप सुनिए कि हुआ क्या, मैंने इस तुकाराम को क्यों मारा।
क्यों साहब औरत ज़ात के मुतअ’ल्लिक़ आप का क्या ख़याल है... मैं समझता हूँ, बुज़ुर्गों ने ठीक कहा है... इसके चलित्तरों से ख़ुदा ही बचाए... फांसी से बच गया तो देखिए कानों को हाथ लगाता हूँ, फिर कभी किसी औरत के नज़दीक नहीं जाऊंगा, लेकिन साहब औरत भी अकेली सज़ावार नहीं। मर्द साले भी कम नहीं होते। बस, किसी औरत को देखा और रेशा ख़तमी होगए। ख़ुदा को जान देनी है इंस्पेक्टर साहब! रुकमा को देख कर मेरा भी यही हाल हुआ था। [...]

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