परेशानी का सबब

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नईम मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उसकी तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अख़बार की आख़िरी कापी के लिए जो मज़मून लिख रहा था उसको जारी रखने ही वाला था कि मअ’न मुझे नईम के चेहरे पर एक ग़ैरमामूली तबदीली का एहसास हुआ। मैंने चश्मा उतार कर उसकी तरफ़ फिर देखा और कहा, “क्या बात है नईम, मालूम होता है तुम्हारी तबीयत नासाज़ है।”
नईम ने अपने ख़ुश्क लबों पर ज़बान फेरी और जवाब दिया, “क्या बताऊं, अ’जीब मुश्किल में जान फंस गई है। बैठे बिठाए एक ऐसी बात हुई है कि मैं किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा।”

मैंने काग़ज़ की जितनी पर्चियां लिखी थीं जमा करके एक तरफ़ रख दीं और ज़्यादा दिलचस्पी लेकर उससे पूछा, “कोई हादिसा पेश आ गया... फ़िल्म कंपनी में किसी एक्ट्रेस से।”
नईम ने फ़ौरन ही कहा, “नहीं भाई, एक्ट्रेस-वेक्ट्रेस से कुछ भी नहीं हुआ। एक और ही मुसीबत में जान फंस गई है। तुम्हें फ़ुर्सत हो तो मैं सारी दास्तान सुनाऊं।” [...]

कतबा

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शहर से कोई डेढ़ दो मील के फ़ासले पर पर फ़िज़ा बाग़ों और फुलवारियों में घिरी हुई क़रीब क़रीब एक ही वज़ा की बनी हुई इमारतों का एक सिलसिला है जो दूर तक फैलता चला गया है। इमारतों में कई छोटे बड़े दफ़्तर हैं जिनमें कम-ओ-बेश चार हज़ार आदमी काम करते हैं। दिन के वक़्त इस इलाक़े की चहल पहल और गहमा गहमी उमूमन कमरों की चार दीवारियों ही में महदूद रहती है। मगर सुबह को साढे़ दस बजे से पहले और सह-पहर को साढे़ चार बजे के बाद वो सीधी और चौड़ी चकली सड़क जो शहर के बड़े दरवाज़े से उस इलाक़े तक जाती है, एक ऐसे दरिया का रूप धार लेती है जो पहाड़ों पर से आया हुआ और अपने साथ बहुत सा ख़स-ओ-ख़ाशाक बहा लाया हो।
गर्मी का ज़माना, सह-पहर का वक़्त, सड़कों पर दरख़्तों के साए लंबे होने शुरू हो गए थे मगर अभी तक ज़मीन की तपिश का ये हाल था कि जूतों के अंदर तलवे झुलसे जाते थे। अभी अभी एक छिड़काव गाड़ी गुज़री थी। सड़क पर जहाँ जहाँ पानी पड़ा था बुख़ारात उठ रहे थे।

शरीफ़ हुसैन क्लर्क दर्जा दोम, मामूल से कुछ सवेरे दफ़्तर से निकला और उस बड़े फाटक के बाहर आ कर खड़ा हो गया जहाँ से ताँगे वाले शहर की सवारियाँ ले जाया करते थे।
घर लौटते हुए आधे रास्ते तक ताँगे में सवार हो कर जाना एक ऐसा लुत्फ़ था जो उसे महीने के शुरू के सिर्फ़ चार पाँच रोज़ ही मिला करता था और आज का दिन भी उन्ही मुबारक दिनों में से एक था। आज खिलाफ़-ए-मामूल तनख़्वाह के आठ रोज़ बाद उसकी जेब में पाँच रुपये का नोट और कुछ आने पैसे पड़े थे। वजह ये थी कि उसकी बीवी महीने के शुरू ही में बच्चों को ले कर मैके चली गई थी और घर में वो अकेला रह गया था। दिन में दफ़्तर के हलवाई से दो-चार पूरियाँ ले कर खा ली थीं और ऊपर से पानी पी कर पेट भर लिया था। रात को शहर के किसी सस्ते से होटल में जाने की ठहराई थी। बस बे-फ़िकरी ही बेफ़िकरी थी। घर में कुछ ऐसा असासा था नहीं जिसकी रखवाली करनी पड़ती। इसलिए वो आज़ाद था कि जब चाहे घर जाए और चाहे तो सारी रात सड़कों पर घूमता रहे। [...]

गोली

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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आयशा उनकी मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उसकी बीवी बाहर निकली और कहने लगी, “अज़ीज़ साहब की बीवी और उनकी लड़कियाँ आई हैं।”
शफ़क़त ने हैट उतार कर माथे का पसीना पोंछा, “कौन अज़ीज़ साहब?”

आयशा ने आवाज़ दबा कर जवाब दिया, “हाय, आपके अब्बा जी के दोस्त”।
“ओह…अज़ीज़ चचा।” [...]

मुरासिला

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मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीए’ मैं मुतअ’ल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इ’लाक़े की तरफ़ मुतवज्जेह कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ’ हो रही है और हर इ’लाक़े के शहरियों को जदीद-तरीन सहूलतें बहम पहुँचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इ’लाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मा’लूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बा’द मेरा उस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इ’लाक़ा बिल्कुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।
(1)

मुझे उस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वज्ह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रौशनी भी क़रीब-क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। मा’ज़ूरी का ज़माना शुरू’ होने के बा’द भी एक अ’र्से तक वो मुझको दिन रात में तीन-चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं।
दर-अस्ल मेरे पैदा होने के बा’द ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मा’लूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मा’लूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखने की वज्ह से उनको बहुत सी बीमारियों के नाम और इ’लाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बा’द वो मुझे किसी नए मरज़ में मुब्तला क़रार देकर उसके इ’लाज पर इसरार करती थीं। [...]

आम

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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपये उसको अपनी तीस साला ख़िदमात के ए’वज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे।
हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा,” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।

आठ बरस से उसका यही दस्तूर था। खज़ाने के क़रीब क़रीब हर क्लर्क को मालूम था कि मुंशी करीम बख़्श जो मुतालिबात-ए-ख़ुफ़िया की कचहरी में कभी मुहाफ़िज़-ए-दफ़्तर हुआ करता था बेहद वज़ा’दार, शरीफ़ुत्तबा और हलीम आदमी है। मुंशी करीम बख़्श वाक़ई इन सिफ़ात का मालिक था। कचहरी में अपनी तवील मुलाज़मत के दौरान में आफ़सरान-ए-बाला ने हमेशा उसकी तारीफ़ की है। बा’ज़ मुंसिफ़ों को तो मुंशी करीम बख़्श से मोहब्बत हो गई थी। उसके ख़ुलूस का हर शख़्स क़ाइल था।
इस वक़्त मुंशी करीम बख़्श की उम्र पैंसठ से कुछ ऊपर थी। बुढ़ापे में आदमी उमूमन कमगो और हलीम हो जाता है मगर वो जवानी में भी ऐसी ही तबीयत का मालिक था। दूसरों की ख़िदमत करने का शौक़ इस उम्र में भी वैसे का वैसा ही क़ायम था। [...]

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