बाँझ

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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।

साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।” [...]

जानकी

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पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा, अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है, जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है, उसको मायूस नहीं करना चाहिए।

ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए, अगर वो जवान हो, हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है, मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी, पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था, इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी। [...]

बेगू

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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। [...]

जानकी

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पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा, अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है, जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है, उसको मायूस नहीं करना चाहिए।

ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए, अगर वो जवान हो, हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है, मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी, पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था, इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी। [...]

रुमूज़-ए-ख़ामोशी

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मैं चार बजे की गाड़ी से घर वापिस आ रहा था। दस बजे की गाड़ी से एक जगह गया था और चूँकि उसी रोज़ वापिस आना था लिहाज़ा मेरे पास अस्बाब वग़ैरा कुछ ना था। सिर्फ एक स्टेशन रह गया था। गाड़ी रुकी तो मैंने देखा कि एक साहिब सैकिण्ड क्लास के डिब्बे से उतरे। उनका क़द्द-ए-बला मुबालग़ा छः फुट था। बड़ी बड़ी मूँछें रोबदार चेहरे पर हुआ से हल रही थीं। नैकर और क़मीज़ पहने हुए पूरे पहलवान मालूम होते थे। ये किसी का इंतिज़ार कर रहे थे।दूर से उन्होंने एक आदमी को... जो कि ग़ालिबन उनका नौकर था देखा। चशम ज़ोन में उनका चेहरा ग़ज़बनाक हो गया। मैं बराबर वाले डीवढ़े दर्जे में बैठा था। एक साहिब ने इन ख़ौफ़नाक जवान को देखा और आप ही कहा। ये ख़ूनी मालूम होता है। मैंने उनकी तरफ़ देखा और फिर इन ख़ौफ़नाक हज़रत के ग़ज़बनाक चेहरे को देखा और दिल ही दिल में उनकी राय से इत्तिफ़ाक़ किया। आप यक़ीन करें कि उनकी आँखें शोला की मानिंद थीं और नौकर के आते ही इस ज़ोर से उन्होंने इस को एक क़दम आगे बढ़ा कर डिपटा कि वो डर कर एक दम से पीछे हटा और गार्ड साहिब से जो उस के बिलकुल ही क़रीब थे लड़ते लड़ते बच्चा। गार्ड साहिब सीटी बजाना मुल्तवी कर के एक तरफ़ को हो गए। उन्होंने एक निगाह इलतिफ़ात मुलाज़िम पर डाली और फिर इन हज़रत की तरफ़ देखा। दोनों मुस्कुराए गाड़ी चल दी।
(1)

गाड़ी स्टेशन पर रुकी और मैं उतरा। ये हज़रत भी उतरे। आप यक़ीन मानें कि मैं समझा कि मुझे कोई बिला लिपट गई जब उन्होंने एक दम से मुझे बाओ कर के चपटा लिया। आसल उन्होंने कहा था। तुम कहाँ। अगर उनकी तोंद कुछ नरम ना होती तो शाहिद मेरी एक आधी पिसली ज़रूर शिकस्त हो जाती। छूटते ही हाथ पकड़ लिया और हंसकर कहा, अब तुम्हें नहीं छोड़ेंगे।
यहां अर्ज़ करना चाहता हूँ कि मुझको फज़ूलगो से जितनी नफ़रत थी... (अब नहीं है )... उतनी किसी चीज़ से ना थी। देखता था कि लोग बातें कर रहे हैं। ख़्वाह-मख़ाह एक दूसरे की बात काट रहा है और हर शख़्स की ये कोशिश है कि दम-ब-ख़ुद हो कर मेरी ही बात पर सब कान धरें। बसा-औक़ात मेरी ग़ैरमामूली ख़ामोशी पर एतराज़ होता। मुझसे शिकायत की जाती कि मैं बातों में दिलचस्पी नहीं ले रहा। मैं कोई जवाब ना देता और दिल में चचा सादी के अशआर पढ़ने लगता, [...]

कपास का फूल

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माई ताजो हर रात को एक घंटे तो ज़रूर सो लेती थी लेकिन लेकिन उस रात ग़ुस्से ने उसे इतना ‎सा भी सोने की मोहलत न दी। पौ फटे जब वो खाट पर से उतर कर पानी पीने के लिए घड़े की ‎तरफ़ जाने लगी तो दूसरे ही क़दम पर उसे चक्कर आ गया था और वो गिर पड़ी थी। गिरते हुए ‎उसका सर खाट के पाए से टकरा गया था और वो बेहोश हो गई थी। ‎
ये बड़ा अ'जीब मंज़र था। रात के अँधेरे में सुब्ह-हौले हौले घुल रही थी। चिड़ियाँ एक दूसरे को रात ‎के ख़्वाब सुनाने लगी थीं। बा’ज़ परिंदे पर हिलाए बग़ैर फ़िज़ा में यूँ तैर रहे थे जैसे मसनूई हैं और ‎कूक ख़त्म हो गई तो गिर पड़ेंगे। हवा बहुत नर्म थी और उसमें हल्की-हल्की लतीफ़ सी ख़ुनकी थी। ‎मस्जिद में वारिस अ'ली अज़ान दे रहा था।

ये वही सुरीली अज़ान थी जिसके बारे में एक सिख स्मगलर ने ये कह कर पूरे गाँव को हँसा दिया ‎था कि अगर मैंने वारिस अ'ली की तीन चार अज़ानें और सुन लीं तो वाहेगुरु की क़सम ख़ाके कहता ‎हूँ कि मेरे मुसलमान हो जाने का ख़तरा है।
अज़ान की आवाज़ पर घरों में घुमर-घुमर चलती हुई मधानियाँ रोक ली गई थीं। चारों तरफ़ सिर्फ़ ‎अज़ान हुक्मरान थी और इस माहौल में माई ताजो अपनी खाट के पास ढेर पड़ी थी। उसकी कनपटी ‎के पास उसके सफ़ेद बाल अपने ही ख़ून से लाल हो रहे थे। [...]

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