गुज़रे मौसम का चलन दिल से मिरे गोया है ...
बे-सदा से शहर में कुछ लोग तन्हा रह गए ...
वहशियों को ये सबक़ देती हुई आई बहार
तुम क्यों उदास हो गए मैदान-ए-हश्र में
शायद इस बात पे लब मेरे सिए जाते हैं
पलट आता हूँ मैं मायूस हो कर उन मक़ामों से
कौन अब कश्मकश-ए-ज़ीस्त से दे मुझ को नजात
इश्क़ में और भी दीवाना बना देती है
आँखों में अश्क दाग़ जिगर में लबों पे आह
दिल-ए-शिकस्ता को रंगों से फिर सजाता नूर ...
ये क्या कि एक ताल पे दुनिया है महव-ए-रक़्स
ये कैसी फ़साहत कि समझ में नहीं आती
तुम ने चुनी है राह जो हमवार है बहुत
तेरी ख़्वाहिश भी न हो तुझ से शिकायत भी न हो
शायद मैं अपने आप से ग़ाफ़िल न रह सका
क़ाफ़िले में हर इक फ़र्द मुख़्तार है
मौत बर-हक़ है जब आ जाए हमें क्या लेकिन
कितने रिश्तों का मैं ने भरम रख लिया
हम अपने आप में रहते नहीं हैं दम भर को
हम ऐसे बख़्त के मारे कि शहर में आ कर