भरे मकान में रोते हुए अकेला था ...
बेजा तकल्लुफ़ात में कुछ भी नहीं बचा ...
बस यही सोच के ख़ुश-बाश रहा जाने लगा ...
बहुत सुंदर ग़ज़ब अच्छा लगेगा ...
'अजीब चाल कोई तीर चल गए अपने ...
अगर तुम्हारे नाम की नहीं रही ...
वो ज़िंदगी कि जिस में अज़िय्यत नहीं कोई ...
अपने जुनूँ की ताज़ा हिकायत है आज भी ...
ज़रा वो ख़ाक में मिलने न दे ख़ून-ए-शहीदाँ को
ज़ख़्म-ए-दिल पर गुलाब रख्खा है ...
तुझे भुलाने की अब जुस्तुजू नहीं करते ...
मुझ पे वो कुछ इस क़दर छाता रहा ...
लिखा था नाम जो इक शाम कोरे काग़ज़ पर ...
कब दिया ये जला हवा के लिए ...
जिन के हाथों में सर हमारे हैं ...
हिजरतों के गुलाब देखे हैं ...
भुला चुका है ज़माना मिरे फ़साने को ...
बहुत क़रीब था पर मेहरबाँ न था मेरा ...
नहीं होता कभी अच्छा हमारा ...
मोहब्बत को पराई कर रही हो ...