मौत बर-हक़ है जब आ जाए हमें क्या लेकिन
कितने रिश्तों का मैं ने भरम रख लिया
हम अपने आप में रहते नहीं हैं दम भर को
हम ऐसे बख़्त के मारे कि शहर में आ कर
गुमान होने लगा है ये किस के होने पर
दिल लगाने को सारा जहाँ था मगर
चुपके चुपके अपने अंदर जाते हैं
अहवाल मेरे शोर-ए-सलासिल के सुन रफ़ीक़
ये एक काम बचा था सो वो भी करने लगे ...
'अज़्मत-ए-अहल-ए-जुनूँ पास-ए-वफ़ा रक्खा है ...
दिए चारों तरफ़ हर जा फ़रोज़ाँ देखता हूँ मैं ...
तिरे एहसास को छू कर लगा है ...
मोहब्बत नए रंग दिखला रही है ...
मैं नहीं बैठ के अश्कों को बहाने वाला ...
जो भी किरदार से लिखी जाए ...
चाँद सूरज न सही कोई सितारा होता ...
चेहरे के ख़द-ओ-ख़ाल में आईने जड़े हैं ...
दिल-ओ-दिमाग़ जलाए हैं इस 'अमल के लिए ...
छू लिया शो'ला-ए-रुख़्सार-ए-सनम देखो तो ...
दिल के अरमान दिल को छोड़ गए ...