ज़मीं के बा'द हम अब आसमाँ न रक्खेंगे ख़ला रहेगा क़दम हम जहाँ न रक्खेंगे जवाब देना पड़ेगा हमें ख़मोशी का सो तय किया है कि मुँह में ज़बाँ न रक्खेंगे कहीं इज़ाफ़ा कहीं हज़्फ़ तो कहीं तरमीम कहीं की अब वो मिरी दास्ताँ न रखेंगे तुले हैं हाथ जो विर्से पे साफ़ करने पर किसी भी दौर का बाक़ी निशाँ न रक्खेंगे बता रहे हैं हम एहसाँ जताने वालों को जो सर पे बोझ हो वो साएबाँ न रक्खेंगे नुमू के वास्ते कोशाँ हैं इस यक़ीन के साथ बड़े हुए तो हम इस का गुमाँ न रक्खेंगे अगर हो वज्ह-ए-तअल्लुक़ तो हम से दूर रहो कोई भी फ़ासला हम दरमियाँ न रक्खेंगे जब अपने घर में ही अपनी अना को ख़तरा है हम अपने पास ये जिंस-ए-गिराँ न रक्खेंगे किसी ने मारा है शब-ख़ून ऐसा राही पर कि अब वो सुब्ह तलक तन में जाँ न रक्खेंगे