कैसी कैसी नहीं करता रहा मन-मानी मैं सोच कर अपने लिए लिखता था ला-फ़ानी मैं भीड़ में सब की तरह ज़ुल्म पे चुप-चाप रहा आज फिर इक दफ़अ' मर गया इंसानी मैं पैदा होने के तो मतलब न रहे होंगे कुछ बस कि अब मरना नहीं चाहता बे-मा'नी मैं एक तारीख़ की ता'मीर करे वो लम्हा एक समुंदर जो रचे बूँद वही या'नी मैं