कोई बादल तपिश-ए-ग़म से पिघलता ही नहीं By Ghazal << मिरे चारों तरफ़ एक आहनी द... मैं तिरा ही आइना हूँ और ब... >> कोई बादल तपिश-ए-ग़म से पिघलता ही नहीं और दिल है कि किसी तरह बहलता ही नहीं सब यहाँ बैठे हैं ठिठुरे हुए जम्मू को लिए धूप की खोज में अब कोई निकलता ही नहीं सिर्फ़ इक मैं हूँ जो हर रोज़ नया लगता हूँ वर्ना इस शहर में तो कोई बदलता ही नहीं Share on: