मर्द ख़ुश-ख़ू नहीं तो फिर क्या है फूल में बू नहीं तो फिर क्या है हो परी-रू हज़ार कोई हसीन आदमी-ख़ू नहीं तो फिर क्या है कौन बस्ता है का'बे के अंदर आलम-ए-हू नहीं तो फिर क्या है वही आँखें हैं ऐसी ही वहशत यार आहू नहीं तो फिर क्या है मुतहय्यर हैं क्यों ये अहल-ए-नज़र हर जगह तू नहीं तो फिर क्या है मैं मुसख़्ख़र हुआ इन आँखों का इन में जादू नहीं तो फिर क्या है रंग-ओ-बू दोनों गुल को लाज़िम हैं रंग है बू नहीं तो फिर क्या है दोस्तों का भी क़त्ल-ए-आम किया तू हलाकू नहीं तो फिर क्या है तू है क़त्ताल-ए-दह्र दिल में तिरे फ़ैज़-ए-राजू नहीं तो फिर क्या है हैं यहाँ सर्द-मेहर सब माशूक़ दकन आबू नहीं तो फिर क्या है दिल में फ़ौजें हैं यास-ओ-हसरत की अब ये कम्पू नहीं तो फिर क्या है जब तलक तू है सौ बखेड़े हैं जिस घड़ी तू नहीं तो फिर क्या है हो जो दुश्मन वो दोस्त बन जाए ख़ुल्क़ जादू नहीं तो फिर क्या है ख़्वाब में देखता हूँ मैं काले याद-ए-गेसू नहीं तो फिर क्या है चर्ख़ पर चढ़ के बन गया मह-ए-नौ तेरा अबरू नहीं तो फिर क्या है जिस के कहने में दिल हो वो ही दिलेर उस पे क़ाबू नहीं तो फिर क्या है मुर्दा-दिल सुन के जी उठे 'अकबर' शेर जादू नहीं तो फिर क्या है