निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ ये इक आह है इस का पैकाँ नहीं ये हाथ उस के दामन तलक पहुँचे कब रसाई जिसे ता-गरेबाँ नहीं फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे से तौर कि अपने किए से पशेमाँ नहीं मिरा नामा-ए-शौक़ तलवों तले न मलिए ये ख़ून-ए-शहीदाँ नहीं उसी की सी कहने लगे अहल-ए-हश्र कहीं पुर्सिश-ए-दाद-ख़्वाहाँ नहीं