याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है कीजे क्या जान मिरी आलम-ए-दरवेशी है अपने मज़हब में क़राबत नहीं अज्दाद की शर्त तुझ से निस्बत है जिसे उस से हमें ख़्वेशी है मुझ से इक ख़स्ता से नाहक़ ये शब ओ रोज़ ख़लिश ऐ जफ़ा-पेशा ये क्या नहव-ए-सितम-केशी है बात है शोहरा-नसीबी की निराली वर्ना मुझ पे किस चीज़ में मजनूँ के तईं बेशी है गौहर-ए-अश्क को निश्मुर्दा तू 'क़ाएम' न बिखेर आदमी है व मियाँ आक़िबत-अंदेशी है