काँच नाज़ुक हैं ख़्वाब नाज़ुक हैं तुम क़दम सोच कर इधर रखना खेलने का तुझे है शौक़ मगर इन चटानों पे भी नज़र रखना तेरे दिल में है आरज़ू की किरन तेरी आँखों में ख़्वाब हैं कल के तेरे हाथों में रंग-ए-तितली हैं तेरे चेहरे पे अज़्म हैं दहके मेरे आँगन की काँच की गुड़िया अपनी क़िस्मत का इम्तिहान न ले मैं तुझे शाद देखना चाहूँ तो अँधेरों का आसमान न ले दिल पे बीती जो मैं ने सह ली है ख़ार राहों से तेरी चुन लूँगी तेरी हर इक ख़ुशी अज़ीज़ मुझे तुझ को संसार इक नया दूँगी मेरी गुड़िया मगर ये कहती है मुझ को दुनिया तो देख लेने दो क्या हुआ गर मुझे भी ज़ख़्म मिलें ग़म-ए-हस्ती का वार सहने दो