अज़ादी का गुमनाम सिपाही बतख़ मियाँ

जाड़े की रात। खाना ख़त्म हुआ। लिहाफ़ के अंदर दादी ने जब अपने पैर गर्म किये तो उन्हें घेर कर सारे बच्चे बैठ गए और कहानी सुनाने का इसरार करने लगे। दादी ने सब से छोटे पोते को गोद में बिठाया और हमेशा की तरह कहा बीच कहानी में कोई नहीं बोलेगा।
जी दादी कई आवाज़ें एक साथ गूजीं और दादी ने अपने ख़ास अंदाज़ से क़िस्सा कहना शुरू किया…। एक था एक नहीं था ख़ुदा के अलावा कोई न था।

आज से बहुत साल पहले एक बतख़ मियाँ हुआ करते थे। अभी दादी ने इतना ही कहा था कि कुछ बच्चों की हँसी छूट गई। दादी ने उन्हें घूरा और कहानी आगे बढ़ाई।
बतख़ मियाँ अंसारी कहने को अंग्रेज़ों के ख़ानसामाँ थे। मगर वतन की मोहब्बत से उनका दिल लबरेज़ था। वो मशरिक़ी चंपारण के सिसवाँ गाँव के रहने वाले थे। उन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगा कर महात्मा गांधी की जान बचाई थी। यही उनका सबसे बड़ा कारनामा था।

वो कैसे दादी-जान? छोटी चम्पा बोल उठी। सब ने डर कर दादी को देखा मगर दादी-जान को ग़ुस्सा नहीं आया और उन्होंने बड़े प्यार से चम्पा को देख कर कहा।
ये क़िस्सा होगा 15 अप्रैल 1917 का जब महात्मा गांधी अंग्रेज़ों और मिल मालिकों के ज़रीया किसानों पर ढाए जा रहे ज़ुल्म का जाएज़ा लेने के लिए चंपारण आए थे। महात्मा गांधी की मक़बूलियत देख कर अंग्रेज़ घबरा गए और उन्होंने गांधी जी को क़त्ल करने की साज़िश रच डाली। अंग्रेज़ कलेक्टर ने बतख़ मियाँ को हुक्म दिया कि वो गांधी जी के दूध में ज़हर मिला कर उन्हें पीने को दें। ये हुक्म सुनकर बतख मियां की तो जैसे जान ही निकल गई। एक तरफ़ मालिक का हुक्म दूसरी तरफ़ वतन का प्यार। बस बतख़ मियां ने दिल ही दिल में फ़ैसला ले लिया।

“वो कैसे दादी?” अमजद का गला डर से सूख गया और वो मना करने के बावजूद पूछ बैठा।
“तुम लोगों को कहानी सुनने का जब सलीक़ा नहीं है तो फिर क्यों सुनते हो?”

दादी ख़फ़ा हो गईं। इस तरह मज़ा किरकिरा होता देख कर सब ने अमजद को घूरा। अमजद शर्मिंदा हुआ मुँह लटका कर बैठ गया।
“कहानी का लुत्फ़ लो, सब्र करो... हर चीज़ में जल्दी…” दादी का मूड ख़राब हो चुका था।

दादी... मुझे माफ़ कर दें...” अमजद ने दादी को मनाया। कुछ देर दादी चुप रहें फिर कहने लगीं।
“बतख़ मियाँ ने मालिक का हुक्म माना और दूध में ज़हर मिला दिया और जब गांधी जी दूध पीने के लिए गिलास उठाने लगे तो बतख़ मियाँ ने असलियत गांधी जी से कह दी। ये सुनकर महात्मा गांधी ने गिलास उलट दिया। दूध फैल गया। अंग्रेज़ों को समझते देर न लगी कि ये हरकत बतख़ मियाँ की है। इस वक़्त वहाँ डाक्टर राजेंद्र प्रसाद भी मौजूद थे। जो बाद में सदर-ए-जमहूरिय-ए-हिंद बने। बतख़ मियाँ से नाराज़ अंग्रेज़ कलैक्टर ने उन्हें जेल में डाल दिया। और मुक़द्दमा चला कर उनकी सारी ज़मीन-ओ-जाएदाद नीलाम कर दी और उन्हें और उनके ख़ानदान को भूका तड़पने के लिए छोड़ दिया।” दादी इतना कह कर कुछ पल ठहरीं। सबने पहलू बदला। फिर ठंडी सांस लेकर बोलीं।

“ज़माना बदला हमारे ग़ुलाम मुल्क को आज़ादी मिली। जब डाक्टर राजेंद्र प्रसाद आज़ाद हिन्दोस्तान के पहले सदर मुंतख़ब हुए तो उन्होंने बदहाल बतख़ मियाँ को 1950 में 150 एकड़ ज़मीन देने के लिए बिहार हुकूमत से कहा ताकि वो आराम-ओ-सुकून से रह सकें मगर ऐसा न हुआ और1957 मैं बतख़ मियां का इंतिक़ाल हो गया। सिसवाँ अजगरी गाँव में ही उनका मज़ार है।”
इतना कहते कहते दादी ने आँखों में भरे आसूओं को पोंछा। सबने एक दूसरे को देखा।

नन्हे दिलों में सवाल उठ रहे थे। मगर दादी की उदासी देख कर किसी की हिम्मत ज़बान खोलने की नहीं पड़ रही थी। दादी ने ठंडी सांस भरी और जैसे अपने से कहा हो।
“ये गुमनाम मुजाहिद-ए-आज़ादी ही रहा। उसने किसी लालच में अपना फ़र्ज़ नहीं पूरा किया था। वो तो वतन की मोहब्बत का जज़्बा था। बाद में चंपारण के यूरोपी नील काश्तकारों के ख़िलाफ़ किसान तहरीक में वो तीन बार जेल गए और जो भी पास बचा था इस को भी गँवाना पड़ा।”

कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। दादी के चेहरे पर मासूम नज़रें टिकी थीं। दादी ने महसूस किया और हल्के से मुस्कुराईं और बोलीं।
“फ़िदा-कारी रंग लाई है। आज बरसों बाद हम उन्हें याद कर रहे हैं यही क्या कम है।” दादी के इस जुमले को सुन कर अमजद को महसूस हुआ कि वो इस फ़िदा-कारी की कहानी को अपने साथियों को सुनाएगा और दिल ही दिल में ये फ़ैसला लिया कि वो अपने वतन के लिए बतख़ मियां अंसारी की तरह ही कोई बड़ा काम अंजाम देगा जिस से लोग उसे मौत के बाद भी उसे याद करें।


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