शरारत और हिमाक़त में से कौन बाज़ी ले गया। इसका फ़ैसला आपको करना है। मालूम नहीं कि बचपन का दौर ऐसा ही सुहाना, हसीन, दिल-फ़रेब और सुनहरा होता है या वक़्त की दबीज़ चादर के झरोके से ऐसा लगता है। अब मेरे सामने मेरे ख़ानदान की तीसरी नस्ल के शिगूफ़े परवान चढ़ रहे हैं। मुझे महसूस होता है कि आजकल के बच्चों का बचपन इतना पुर-रौनक, रंगीन और पुरजोश नहीं जैसा हमारा बचपन था। दो-तीन घंटे टीवी के सामने बैठ कर कार्टून देखना, वीडियो गेम, मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट में ग़र्क़ बच्चों की दुनिया एक कमरे तक महदूद होती है। जबकि हमारे खेलों और शरारतों का दायरा बहुत वसीअ था। अक्सर हमारे खेलों के शोर और हंगामों से घर वाले और कभी-कभी अहल-ए-महल्ला भी आजिज़ रहते थे। हमारे बचपन के महबूब खेल आँख-मिचौली, चोर-सिपाही, अंधा-भैंसा, ऊँच-नीच और कोड़ा-जमाल शाही होते थे। जब कुछ और बड़े हुए तो गुल्ली-डंडा, कब्बडी, गेंद तड़ी, गेंद-बल्ला, फ़ुटबाल और पतंग-बाज़ी की तरफ़ राग़िब हुए। लू के गर्म थपेड़ों और दाँत किटकिटाने वाली सर्दी में भी हम इसी तरह इन खेलों में महव रहते। ये भी दुरुस्त है कि दौर-ए-हाज़िर के तक़ाज़ों के मुताबिक़ आज के बच्चे हमारे दौर के बच्चों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा ज़हीन, ज़हनी तौर से पुख़्ता, पुर-एतिमाद हैं। ज़िंदगी के जो रुमूज़ हम पर दस बारह साल की उम्र में खुले आज पाँच-छः साल के बच्चे उन हक़ायक़ से आगाह हैं। अपने बचपन का एक वाक़िया आपको सुनाता हूँ जिससे आपको अंदाज़ा होगा कि उमूमन दस-बारह साल की उम्र में भी आम बच्चे कित्ते मासूम और सादा होते थे। आप चाहें तो बेवक़ूफ़ कह लें। उस वक़्त शायद हम आठवीं क्लास में थे। स्कूल से घर तक तीन मील का फ़ासला पैदल ही तय करना होता था। गर्मियों में हम दुकानों के साएबानों और दरख़्तों के साए तलाश करते घर की सिम्त रवाना होते। एक दिन नॉवलटी टॉकीज़ के सामने मैदान में इमली के देव-क़ामत दरख़्त के नीचे एक मदारी तमाशा दिखा रहा था। बे-शुमार लोग दायरे की शक्ल में खड़े तमाशे से लुत्फ़-अंदोज़ हो रहे थे। हम भी कुछ सुस्ताने और कुछ तमाशे से लुत्फ़-अंदोज़ होने के लिए मजमे में शामिल हो गए और आहिस्ता-आहिस्ता जगह बनाते हुए सबसे आगे पहुँच गए। मदारी का जमूरा ज़मीन पर चादर ओढ़े लेटा था और मदारी एक रुपय के सिक्के के दो और दो के चार बना रहा था और हम मुँह खोले हैरत-ज़दा खड़े सोच रहे थे कि कैसा अहमक़ इन्सान है कि ऐसा हुनर रखते हुए घर बैठे दौलत के अंबार क्यों नहीं लगाता और क्यों यहाँ गर्मी में हलकान हो रहा है। इसी दौरान मदारी ने चीख़ कर कहा, “आगे, आगे का बच्चा लोग बैठ जाओ। जो नहीं बैठेगा उसका पेशाब बंद हो जाएगा।” हम तमाशा में इतने महव थे कि हमने उसकी बात सुनी अन-सुनी कर दी। कुछ देर बाद तमाशा ख़त्म हो गया और हम ख़िरामाँ-ख़िरामाँ घर की तरफ़ रवाना हो गए। घर के दरवाज़ा पर पहुँच कर हमें अचानक मदारी की तंबीह का ख़्याल आया। क्यों कि हम तो बैठे नहीं थे और इसी तरह खड़े रहे थे। ये सोच कर हम ख़ौफ़ज़दा हो गए और हमें यक़ीन हो गया कि मदारी के जादू का हम पर असर हो गया होगा। सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते हमने मज़ीद यक़ीन करने की कोशिश की कि जादू का असर हुआ है या नहीं। नतीजा ज़ाहिर है। नेकर के गीले-पन को देखकर हमारे होश उड़ गए। कुछ देर तो हम दम-ब-ख़ुद आख़िरी सीढ़ी पर खड़े रहे फिर इधर-उधर देख कर जल्दी से ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस कर नहाने लगे ताकि हमारी हिमाक़त की पोल न खुले। अब ज़रा एक और वाक़िए से आज के दौर के बच्चे की ज़हानत और ज़हनी पुख़्तगी का अंदाज़ा करें। कुछ अरसा पेशतर में लॉन में बैठा अख़बार पढ़ रहा था और मेरे चार साला पोते अयान मेरी कुर्सी के चारों तरफ़ स्कूटी पर सवार चक्कर लगा रहे थे तो मैंने उनको अपने पास बुला कर कहा... “बेटा अगर आप मुझे पचास तक गिनती सुना दें तो मैं आपको पचास रुपया इनाम दूँगा।” अयान ने फ़र-फ़र गिनती सुना दी और पचास रुपया का नोट जेब में ठूँस कर आइसक्रीम वाले को बुलाने के लिए गेट की तरफ़ घूम गए। कुछ सोच कर वो फिर वापिस आए और कहने लगे: “वैसे दादा पापा बाई दा वे... मुझे गिनती हंड्रेड तक आती है... सुनाऊँ?” बचपन की यादों की कहकशाँ से एक शरारत का अहवाल भी सुन लें... हमारे जिगरी दोस्तों में एक यूनुस कपाड़िया थे जिनको हम प्यार से कबाड़िया कहते थे क्यों कि हुल्ये से वो लगते भी ऐसे ही थे। कबाड़िया का शुमार मुहल्ले के शरीर तरीन लड़कों में होता था। वो हर रोज़ किसी नई शरारत का प्रोग्राम लेकर आते और कभी-कभी हम भी उनके साथ शामिल हो जाते। अक्सर वो तो अपनी चालाकी की वजह से बच कर निकल जाते और हम फंस जाते। एक बार हमारा दिल पुलाव खाने के लिए बहुत मचल रहा था। दबी-दबी ज़बान से अम्माँ से अपनी ख़्वाहिश का इज़हार किया तो उन्होंने ख़ूबसूरती से टाल दिया। एक दिन दोपहर को गुल्ली-डंडा खेलने के बाद हम और कबाड़िया नीम के नीचे बैठे सुस्ता रहे थे। जब हमने उनसे पुलाव खाने की ख़्वाहिश का ज़िक्र किया... वो अपने मख़सूस अंदाज़ में कुछ देर होंट सिकोड़ कर सोचते रहे फिर बोले... “यार एक तरकीब है। तुम कह रहे थे कि जब तुम्हारे मामूँ मोती मियाँ हसन पुर से आते हैं तो तुम्हारी अम्माँ पुलाव ज़रूर बनाती हैं।” “हाँ वो तो है लेकिन फ़िलहाल तो मामूँ के आने का कोई प्रोग्राम नहीं है।” हमने लुक़मा दिया... “यार सुनो तो। तुम तो गाँव के गाऊदी हो। ऐसा करो कि मामूँ की तरफ़ से अपने घर के पते पर एक ख़त लिक्खो जिसमें ये इत्तिला हो कि तुम्हारे मामूँ फ़ुलाँ-फ़ुलाँ तारीख़ को तुम्हारे घर पहुँच रहे हैं। ज़ाहिर है कि उनकी आमद की ख़बर सुनकर तुम्हारी अम्मी उनकी पसंद के खाने पकाएँगी। मामूँ ने तो आना नहीं है। कुछ देर इंतिज़ार कर के घर के लोग ही वो खाना खाएँगे।” “यार कबाड़िया बात तो पते की है लेकिन अगर पोल खुल गया तो शामत आ जाएगी।” हमने ख़दशा ज़ाहिर किया... “अमाँ कुछ नहीं होगा। कुछ दिन बाद ये बात पुरानी हो जाएगी। तुम्हारे मामूँ कौन से रोज़-रोज़ आते हैं लेकिन दोस्त हमें भी इस मौक़े पर याद रखना।” कबाड़िया मुस्कुराए... क़िस्सा मुख़्तसर कि दो पैसे का पोस्टकार्ड ख़रीदा गया। कबाड़िया की बैठक में किवाड़ बंद कर के हमने काँपती उंगलियों से क़लम पकड़ा। कबाड़िया ने डाँटते हुए क़लम ले लिया... “यार तुम बिल्कुल अक़्ल से पैदल हो। एक तो तुम्हारा ख़त इतना ख़राब है कि तुम ख़ुद नहीं पढ़ सकते। इसके इलावा घर में हर कोई तुम्हारी तहरीर पहचानता है। फ़ौरन धर लिए जाओगे।” यूँ ख़त लिखने के फ़राइज़ कबाड़िया ने अंजाम दिए। ख़त मामूँ की तरफ़ से हमारी अम्माँ के नाम था जिसमें ये इत्तिला थी कि मामूँ हफ़्ता की शाम तशरीफ़ ला रहे हैं। जब हम वो ख़त चौकी चौराहे के लैटर-बॉक्स में पोस्ट करने जा रहे थे तो डर के मारे पैर काँप रहे थे और ऐसा लगता है कि पूरा शह्र हमें घूर-घूर कर देख रहा है। बहुत इंतिज़ार के बाद जुमेरात के दिन वो तारीख़ी ख़त पहुँच गया। हमने देखा कि दूसरी डाक के साथ वो पोस्टकार्ड हमारे वालिद साहिब के सिरहाने रखा था। ख़त पढ़ने के बाद हमारे वालिद साहब ने हमारी अम्माँ से कहा: “अरे भई सुनती नहीं हो (क़िबला वालिद साहिब हमारी वालिदा को “सुनती नहीं हो” या “कहाँ गईं” कह कर मुख़ातब करते थे) हफ़्ता की शाम को मोती मियाँ आ रहे हैं।” अम्माँ बहुत ख़ुश हुईं। अभी तक हमारी स्कीम कामयाब जा रही थी। हफ़्ते के दिन तीसरे पहर पुलाव की यख़नी चूल्हे पर चढ़ गई। शामी कबाब के लिए चने की दाल और क़ीमा सिल पर पिसना शुरू हुआ। खाने की ख़ुश्बू से शाम ही से पेट में चूहे दौड़ना शुरू हो गए। शाम चार बजे एक ऐसा बम गिरा कि हमारे चौदह तबक़ रौशन हो गए। हम साईकल पर दही लेकर आ रहे थे। देखा कि हमारे घर के सामने एक साईकल रिक्शे से हमारे मोती मामूँ अपना मख़्सूस ख़ाकी रंग का थैला लिए उतर रहे हैं। हमें देखते ही उन्होंने गले से लगाया। हमारी ऐसी सिट्टी गुम थी कि हमें उनको सलाम करने का ख़्याल भी नहीं आया। रह-रह कर ख़्याल आ रहा था कि मामूँ के ख़त का ज़िक्र ज़रूर आएगा और हमारी शराफ़त का सारा पोल खुल जाएगा। मामूँ के घर में आते ही हम उनसे चिपक गए कि जैसे ही ख़त का ज़िक्र आए हम बचाओ की कुछ तरकीब करें। दो-तीन घंटे ख़ैरियत से गुज़र गए। मग़रिब की नमाज़ के बाद हम सब लोग आँगन में बैठे थे। मामूँ महफ़िल सजाये शिकार के फ़र्ज़ी क़िस्से सुना रहे थे। हमारी अम्माँ उधर से गुज़रीं और कहने लगीं... “अरे भय्या तू ने तो लिखा...” इतना सुनते ही हम पेट दबा कर ऐसे कराहे कि सब घबरा कर हमारी तरफ़ मुतवज्जा हो गए। हम पेट पकड़ कर पलंग पर लेट गए। अम्माँ काम छोड़ कर हमारी तरफ़ लपकीं। हमें फ़ौरन डाक्टर के पास ले जाया गया और डाक्टर साहब ने वही मख़सूस कड़वा लाल शर्बत देकर चिकनी ग़िज़ा से परहेज़ की ताकीद कर दी। रात को सब लोग दस्तर-ख़्वान के गिर्द बैठे पुलाव और शामी कबाब के मज़े ले रहे थे और हम चमचे से दलिया खाते हुए हसरत से सबको देख रहे थे। गली में से कबाड़िया की मख़सूस सीटी की आवाज़ आ रही थी। शायद वो भी भूक से तिलमिला थे।