पेरिस में इबराहीम नाम का एक आदमी अपनी बीवी-बच्चों के साथ एक झोंपड़ी में रहता था। वो एक मामूली औक़ात का अयाल-दार था। मगर था बहुत ईमानदार और सख़ी। उसका घर शहर से दस मील दूर था। उसकी झोंपड़ी के पास से एक पतली सी सड़क जाती थी। एक गाँव से दूसरे गाँव को मुसाफ़िर इसी सड़क से आते-जाते थे। रस्ते में आराम करने के लिए और कोई जगह न होने की वजह से मुसाफ़िरों को इबराहीम का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता था। इब्राहीम उनकी मुनासिब ख़ातिरदारी करता। मुसाफ़िर हाथ मुँह धोकर जब इब्राहीम के घरवालों के साथ खाने बैठते तो खाने से पहले इब्राहीम एक छोटी सी दुआ पढ़ता और ख़ुदा का उसकी मेहरबानी के लिए शुक्रिया अदा करता। बाद में बाक़ी सब आदमी भी इस दुआ को दोहराते। मुसाफ़िरों की ख़िदमत का ये सिलसिला कई साल तक जारी रहा। लेकिन सब के दिन सदा एक से नहीं रहते। ज़माने के फेर में पड़ कर इब्राहीम ग़रीब हो गया। उस पर भी उसने मुसाफ़िरों को खाना देना बंद नहीं किया। वो और उसके बीवी-बच्चे दिन में एक बार ख़ाना खाते और एक वक़्त का खाना बचा कर मुसाफ़िरों के लिए रख देते थे। इस सख़ावत से इब्राहीम को बहुत इतमीनान होता, लेकिन साथ-साथ ही उसे कुछ ग़ुरूर हो गया। और वो ये समझने लगा कि मैं बहुत बड़ा ईमानदार हूँ और मेरा ईमान ही सबसे ऊँचा है। एक दिन दोपहर को उसके दरवाज़े पर एक थका-माँदा बूढ़ा आया। वो बहुत ही कमज़ोर था। उसकी कमर कमान की तरह झुक गई थी और कमज़ोरी के बाइस उसके क़दम भी सीधे नहीं पड़ रहे थे। उसने इब्राहीम का दरवाज़ा खटखटाया इबराहीम उसे अंदर ले गया और आग के पास जा कर बैठा दिया। कुछ देर आराम करके बूढ़ा बोला: “बेटा मैं बहुत दूर से आ रहा हूँ। मुझे बहुत भूक लगी है।” इब्राहीम ने जल्दी से खाना तैयार करवाया और जब खाने का वक़्त हुआ तो अपने क़ाएदे के मुताबिक़ इब्राहीम ने दुआ की। इस दुआ को उसके बीवी-बच्चों ने उसके पीछे खड़े हो कर दोहराया। इब्राहीम ने देखा वो बूढ़ा चुप-चाप बैठा है। इस पर उसने बूढ़े से पूछा, “क्या तुम हमारे मज़हब में यक़ीन नहीं रखते? तुमने हमारे साथ दुआ क्यों नहीं की।” बूढ़ा बोला, “हम लोग आग की पूजा करते हैं।” इतना सुन कर इब्राहीम ग़ुस्से से लाल-पीला हो गया। और उसने कहा... “अगर तुम हमारे ख़ुदा में यक़ीन नहीं रखते और हमारे साथ दुआ भी नहीं करते तो इसी वक़्त हमारे घर से बाहर निकल जाओ।” इब्राहीम ने उसे खाना दिए बग़ैर ही घर से बाहर निकाल दिया और दरवाज़ा बंद कर लिया। मगर दरवाज़ा बंद करते ही कमरे में अचानक रौशनी फैल गई और एक फ़रिश्ते ने ज़ाहिर हो कर कहा, “इब्राहीम ये तुमने क्या किया? ये ग़रीब बूढ़ा सौ साल का है ख़ुदा ने इतनी उम्र तक उसकी देख-भाल की और एक तुम हो जो अपने आप को ख़ुदा का बंदा समझते हो इस पर भी उसे एक दिन खाना नहीं दे सके सिर्फ़ इसलिए कि उसका मज़हब तुम्हारे मज़हब से अलग है। दुनिया में मज़हब चाहे बेशुमार हों। लेकिन ख़ुदा सब का सच्चा ख़ालिक़ है। और सब का वही एक मालिक है।” ये कह कर फ़रिश्ता आँखों से ओझल हो गया। इब्राहीम को अपनी ग़लती मा’लूम हुई और वो भागा-भागा उस बूढ़े के पास पहुँचा और उस बूढ़े बुज़ुर्ग से माफ़ी माँगी। बूढ़े ने उसे माफ़ करते हुए कहा, “बेटा अब तो तुम समझ गए होगे कि ख़ुदा सब का एक है।” ये सुन कर इब्राहीम को बहुत ताज्जुब हुआ। क्योंकि यही बात उससे फ़रिश्ते ने भी कही थी।