हफ़ीज़ जालंधरी शेख़ सर अब्दुल क़ादिर की सदारत में अंजुमन हिमायत-ए-इस्लाम के लिए चंदा जमा करने की ग़रज़ से अपनी नज़्म सुना रहे थे मिरे शेख़ हैं शेख़ अब्दुल क़ादिर हुआ उनकी जानिब से फ़रमां सादिर नहीं चाहते हमसुख़न के नवादिर है मतलूब हमको न गिर्या न ख़ंदा सुना नज़्म ऐसी मिले जिससे चंदा जलसे के इख्तिताम पर मुंतज़िम ने बताया कि आज के जलसे में पौने तीन सौ रुपये चंदा जमा हुआ है। हफ़ीज़ जालंधरी ने मुस्कुराते हुए कहा, “सब हमारी नज़्म का ए’जाज़ है जनाब!” “लेकिन हुज़ूर...” मुंतज़िम ने बहुत मतानत से बताया, “दो सौ रुपया एक ऐसे शख़्स ने दिया है ,जो बहरा है।”