एक मुशायरे में नरेश कुमार शाद ने अपनी बारी पर जब हस्ब-ए-ज़ैल क़ता पढ़ा, जो भी औरत है साज़-ए-हस्ती का बेशक़ीमत सा इक तराना है एक हीरा है, ख़ूबरू हो अगर नेक-ख़ू हो तो इक ख़ज़ाना है बेदी साहब ने फ़रमाया कि “ये वो ख़ज़ाना है जो घर वालों को अक्सर दीवालिया बना दिया करता है।”