दश्त-ए-विग़ा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है दश्त-ए-विग़ा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है ज़र्रों में रौशनी-ए-तजल्ली-ए-तूर है इक आफ़्ताब-ए-रुख़ की ज़िया दूर दूर है कोसों ज़मीन अक्स से दरिया-ए-नूर है अल्लाह-रे हुस्न तबक़ा-ए-अम्बर-सरिश्त का मैदान-ए-कर्बला है नमूना बहिश्त का हैराँ ज़मीं के नूर से है चर्ख़-ए-लाजवर्द मानिंद-ए-कहरुबा है रुख़-ए-आफ़्ताब-ए-ज़र्द है रू-कश-ए-फ़ज़ा-ए-इरम वादी-ए-नबर्द उठता है ख़ाक से ततक़-ए-नूर जा-ए-गर्द हैरत से हामिलान-ए-फ़लक उन को तकते हैं ज़र्रे नहीं ज़मीं पे सितारे चमकते हैं है आब-ए-नहर सूरत-ए-आईना जल्वा-गर ताबाँ है मिस्ल-ए-चश्मा-ए-ख़ुर्शीद हर भँवर लहरें बिसान-ए-बर्क़ चमकती हैं सर-ब-सर पानी पे मछलियों की ठहरती नहीं नज़र ये आब-ओ-ताब है कि गुहर आब आब हैं दरिया तो आसमाँ हैं सितारे हुबाब हैं परतव-फ़गन हुआ जो रुख़-ए-क़िबला-ए-अनाम मशहूर हो गई वो ज़मीं अर्श-एहतिशाम और संग-रेज़े दुर्र-ए-नजफ़ बन गए तमाम सहरा को मिल गया शरफ़-ए-वादी-अस्सलाम काबे से और नजफ़ से भी इज़्ज़त सिवा हुई ख़ाक उस ज़मीन-ए-पाक की ख़ाक-ए-शिफ़ा हुई फैला जो नूर-एमहर-ए-इमामत दम-ए-ज़वाल ज़र्रों से वाँ के आँख मिलाना हुआ मुहाल सारे निहाल फ़ैज़-ए-क़दम से हुए निहाल अख़्तर बने जो फूल तो शाख़ें बनीं हिलाल पत्ते तमाम आईना-ए-नूर हो गए सहरा के नख़्ल सब शजर-ए-तूर हो गए ग़ुल था ज़हे हुसैन की शौकत ज़हे वक़ार गोया खड़े हैं जंग को महबूब-ए-किर्दगार रुख़ से अयाँ है दबदबा-ए-शाह-ए-ज़ुल-फ़िक़ार है नूर-ए-हक़ जबीन-ए-मुनव्वर से आश्कार क्यूँकर छुपे न माह-ए-दो-हफ़्ता हिजाब से चौदा तबक़ में नूर है उस आफ़्ताब से ये रू-ए-रौशन और ये गेसू-ए-मुश्क-ए-फ़ाम याँ शाम में तो सुब्ह है और सुब्ह में है शाम हाले में यूँ नज़र नहीं आता है मह तमाम क़ुदरत ख़ुदा की नूर का ज़ुल्मत में है मक़ाम ज़ुल्फ़ों में जल्वा-गर नहीं चेहरा जनाब का है निस्फ़ शब में आज ज़ुहूर आफ़्ताब का क़ुर्बां कमान-ए-अबरू-ए-मौला पे जान ओ दिल गर माह-ए-नौ कहें तो है तश्बीह मुब्तज़िल चश्म-ए-ग़ज़ाल-ए-दश्त-ए-ख़ुतन चश्म से ख़जिल देखा जिसे करम से ख़ताएँ हुईं बहिल पुतली बिसान-ए-क़िबला-नुमा बे-क़रार है गिर्यां हैं वो ये गर्दिश-ए-लैल ओ नहार है रुख़्सार हैं ज़िया में क़मर से ज़ियादा-तर जिन पर ठहर सकी न कभी शम्स की नज़र रीश-ए-मोख़ज़्ज़ब और ये रुख़-ए-शाह-ए-बहर ओ बर पैदा हैं साफ़ मअ'नी-ए-वल्लैल-ओ-वल्क़मर क़ुरआन से अयाँ है बुज़ुर्गी इमाम की खाई क़सम ख़ुदा ने इसी सुब्ह ओ शाम की किस मुँह से कीजिए लब-ए-जान-बख़्श का बयाँ चूसी जिन्हों ने अहमद मुख़्तार की ज़बाँ क्या दुर्र-ए-आब-दार हैं इस दुर्ज में निहाँ गोया कि मोतियों का ख़ज़ाना है ये दहाँ ज़र्रे ज़मीं पे अक्स से सारे चमक गए जिस वक़्त ये खिले तो सितार चमक गए शम्अ-ए-हरीम-ए-लम-यज़ली था गुलू-ए-शाह तारीक शब में जैसे हुवैदा हो नूर-ए-माह ऐ चर्ख़-ए-बे-मदार ये कैसा सितम है आह शमशीर-ए-शिम्र और मोहम्मद की बोसा-गाह जिस पर रसूल होंटों को मलते हों प्यार से कट जाए कर्बला मैं वो ख़ंजर की धार से मंज़ूर याँ थी मदह-ए-गुलू-ए-शाह-ए-उमम याद आ गई मगर ये हदीस-ए-ग़म-ओ-अलम मस्जिद में जल्वा-गर थे रसूल-ए-फ़लक-हशम मलते थे ज़िक्र-ए-हक़ में लब-ए-पाक दम-ब-दम रौशन थे बाम-ओ-दर रुख़-ए-रौशन के नूर से आईना बन गई थी ज़मीं तन के नूर से था जो सुतूँ कि रुक्न-ए-रिसालत का तकिया-गाह कुर्सी भी उस की पुश्त की थी ढूँढती पनाह था जिस हसीर पर वो दो आलम का बादशाह हसरत से अर्श करता था उस फ़र्श पर निगाह औज-ए-ज़मीं बहिश्त-ए-बरीँ से दो-चंद था मिम्बर का नुह फ़लक से भी पाया बुलंद था असहाब-ए-ख़ास गिर्द थे अंजुम की तरह सब ताबाँ था बीच में वो मह-ए-हाशमी-लक़ब सर पर मलक-सिफ़ात मगस-राँ थे दो अरब जिब्रील तह किए हुए थे ज़ानू-ए-अदब ख़ादिम बिलाल-ओ-कुम्बर-ए-गर्दूं-असास था नालैन इस के पास असा उस के पास था गेसू थे वो मुफ़स्सिर-ए-वल्लैल-इज़ा-सजा रुख़ से अयाँ थे मअ'नी-ए-वश्शमसो-व-ज़्ज़ुहा वो रीश-ए-पाक और रुख़-ए-सरदार-ए-अंबिया गोया धरा था रेहल पे क़ुरआँ खुला हुआ ओढ़े सियह अबा जो वो आलम-पनाह था काबा का साफ़ हाजियों को इश्तिबाह था पहलू में बादशाह के था जल्वा-गर वज़ीर सरदार-ए-दीं अली-ए-वली ख़ल्क़ का अमीर दोनों जहाँ में कोई न दोनों का था नज़ीर अहमद थे आफ़्ताब तो हैदर मह-ए-मुनीर ज़ाहिर में एक नूर का दो जा ज़ुहूर था गर ग़ौर कीजिए तो वही एक नूर था मसरूफ़-ए-वाज़-ओ-पंद थे सुल्तान-ए-मश्रिकैन जो घर से निकले खेलते ज़ोहरा के नूर ऐन नाना बग़ैर दोनों नवासों को था न चैन बढ़ जाते थे हसन कभी आगे कभी हुसैन कहते थे देखें कौन क़दम जल्द उठाता है नाना के पास कौन भला पहले जाता है वो गोरे गोरे चेहरों पे ज़ुल्फ़ें इधर उधर अख़्तर से वो चमकते हुए कान के गुहर रश्क-ए-हिलाल तौक़ गले ग़ैरत-ए-क़मर हैकल पे नक़्श नाम ख़ुदा-ए-जलील के तावीज़ गर्दनों पे पर-ए-जिबरईल के मस्जिद में आए हँसते हुए जब वो गुल-बदन ख़ुश्बू से सेहन-ए-मस्जिद-ए-जामे बना चमन तस्लीम को हुसैन से पहले झुके हसन ख़ुश हो के मुस्कुराने लगे सरवर-ए-ज़मन बढ़ बढ़ के ख़म सलाम को छोटे बड़े हुए बैठे रहे रसूल मलक उठ खड़े हुए बेटों को था अली का इशारा कि बैठ जाओ लाज़िम नहीं कि वाज़ में नाना को तुम सताओ फैला के हाथ बोले मोहम्मद कि आओ आओ शब्बीर ने कहा हमें पहले गले लगाओ भाई हसन जो आप की गोदी में आएँ गे हम तुम से नाना जान अभी रूठ जाएँ गे बोले हसन कि वाह हमें और करें न प्यार इक़रार के चुके हैं शहंशाह-ए-नाम-दार बोले ब-चश्म-ए-नम ये हुसैन-ए-फ़लक-वक़ार देखें तो कौन काँधे पे होता है अब सवार सब से सिवा जो हैं सो हमीं उन के प्यारे हैं आगे न बढ़िए आप कि नाना हमारे हैं भाई से तब कहा ये हसन ने ब-इल्तिफ़ात बे-वज्ह हम से रूठे हो तुम ऐ निको-सिफ़ात नाना हमारे क्या नहीं सुल्तान-काएनात होती है नागवार तुम्हें तो ज़रा सी बात ग़ुस्सा न इतना चाहिए ख़ुश-ख़ू के वास्ते मचले थे यूँ ही बच्चा-ए-आहू के वास्ते ये सुन के मुँह अली का लगे देखने रसूल हँस कर कहा ये दोनों हैं मेरे चमन के फूल मैं चाहता हूँ एक की ख़ातिर न हो मलूल रोएँगे ये तो घर से निकल आएगी बुतूल होवे न रंज मेरे किसी नूर-ए-ऐन को तुम लो हसन को गोद में मैं लूँ हुसैन को शब्बर से फिर इशारा किया हो के बे-क़रार ग़ुस्सा न खाओ पहले तुम्हीं को करेंगे प्यार फिर बोले देख कर सू-ए-शब्बीर-ए-नाम-दार आ ऐ हुसैन आ तिरी बातों के मैं निसार छाती से हम लगाएँगे जान अपनी जान कर देखें तो पहले कौन लिपटता है आन कर दौड़े ये बात सुन के बराबर वो ख़ुश-सयर पास आए आफ़्ताब-ए-रिसालत के दो क़मर लिपटे हुसैन हँस के इधर और हसन उधर थे पाँव ज़ानुओं पे तो बाला-ए-दोश सर नाना के साथ प्यार में दोनों का साथ था गर्दन में एक उन का और उन का हाथ था फिर फिर के देखते थे शहंशाह-ए-मश्रिक़ैन गह जानिब-ए-हसन तो कभी जानिब-ए-हुसैन बैठे जो ज़ानुओं पे वो ज़ेहरा के नूर-ए-ऐन था तन को लुत्फ़ क़ल्ब को राहत जिगर को चैन झुक झुक के मुँह रसूल-ए-ज़मन चूमने लगे इन का गला तो उन का दहन चूमने लगे शब्बीर चाहते थे कि चूमें मिरे भी लब पर कुछ गले के बोसों का खुलता न था सबब नाना के मुँह के पास ये लाते थे मुँह को जब झुक झुक के चूमते थे गला सय्यद-ए-अरब भाई को देख कर जो हसन मुस्कुराते थे ग़ैरत से उन की आँखों में आँसू भर आते थे उट्ठे हुसैन ज़ानू-ए-अहमद से ख़शम-गीं ग़ुस्से से रंग ज़र्द और आँखों पे आस्तीं रुख़ पर पसीना जिस्म में रअशा जबीं प चीं पूछा किधर चले तो ये बोले कहीं नहीं घर में अकेले तेवरी चढ़ाए चले गए देखा न फिर के सर को झुकाए चले गए बैतुश्शरफ़ में आए जो शब्बीर-ए-नाम-दार कुर्ते को मुँह पे रख के लगे रोने ज़ार-ज़ार दौड़ीं ये कह के फ़ातिमा-ज़ेहरा जिगर-फ़िगार है है हुसैन क्या हुआ तू क्यूँ है अश्क-बार तुझ को रुला के ग़म में मुझे मुब्तला किया क़ुर्बान हो गई तुझे किस ने ख़फ़ा किया मेरा कलेजा फटता है ऐ दिलरुबा न रो ज़ेहरा हज़ार जान से तुझ पे फ़िदा न रो सर में न दर्द हो कहीं ऐ मह-लक़ा न रो बस बस न रो हुसैन बरा-ए-ख़ुदा न रो मेरी तरफ़ तो देखो कि बेताब होती हूँ चादर से मुँह को ढाँप के लो मैं भी रोती हूँ तू मुँह तो खोल ऐ मिरे शबीर-ए-ख़ुश-ख़िसाल तर हो गए हैं आँसुओं से गोरे गोरे गाल मल मल के पुश्त-ए-दस्त से आँख करो न लाल सुलझाऊँ आओ उलझे हुए गेसुओं के बाल घर से गए थे साथ जुदा हो के आए हो समझी मैं कुछ हसन से ख़फ़ा हो के आए हो तुम चुप रहो वो घर में तो मस्जिद से फिर के आएँ गुज़री मैं खेल से मिरे बच्चे को क्यूँ रुलाएँ उन से न बोलियो वो तुम्हें लाख गर मनाएँ लो आओ जाने दो तुम्हें छाती से हम लगाएँ वारी अगर हसन ने रुलाया बुरा किया पूछूँगी क्या न मैं मिरे प्यारे ने क्या किया बोले हुसैन हम तो हैं इस बात पर ख़फ़ा नाना ने चूमे भाई के होंट और मिरा गला तुम अम्माँ-जान मुँह को तो सूँघो मिरे ज़रा कुछ बू-ए-नागवार है मेरे दहन में क्या भाई के लब से अपने लबों को मिलाते हैं अब हम न जाएँ गे हमें नाना रुलाते हैं मुँह रख के मुँह पे बोली ये ज़ेहरा जिगर-फ़िगार बू-ए-गुलाब आती है ऐ मेरे गुल-अज़ार चूमा अगर गला तो ख़फ़ा हो न मैं निसार तुम को ज़बाँ चूसाते थे महबूब-ए-किर्दगार ये मुश्क में महक न गुल-ए-यासमन में है ख़ुश-बू उसी दहन की तुम्हारे दहन में है कहने लगे हुसैन ये माँ से ब-चश्म-ए-नम क्या जानो तुम हसन से हमें चाहते हैं कम ये क्या उन्हीं पे लुत्फ़-ओ-इनायत है दम-ब-दम मालूम हो गया उन्हें प्यारे नहीं हैं हम रो रो के आज जान हम अपनी गंवाएँगे पानी न अब पिएँगे न खाने को खाएँगे ये बात सुन के हो गया ज़ेहरा का रंग फ़क़ बोली पिसर से रो के वो बिन्त-ए-रसूल-ए-हक़ सदक़े गई करो न कलेजे को मेरे शक़ है है ये क्या कहा मुझे होता है अब क़लक़ मेरा लहू बहेगा जो आँसू बहाओगे काहे को माँ जिएगी जो खाना न खाओगे ये कह के ओढ़ ली सर-ए-पुर-नूर पर रिदा मोज़े पहन के गोद में शब्बीर को लिया दर तक गई जो घर से वो दिल-बंद-ए-मुस्तफ़ा फ़िज़्ज़ा ने बढ़ के बूज़र ओ सलमाँ को दी सदा पेश-ए-नबी हुसैन को गोदी में लाती हैं हट जाओ सब कि फ़ातिमा मस्जिद में आती हैं अल्लाह-रे आमद आमद-ए-ज़ेहरा का बंदोबस्त सातों फ़लक थे औज-ए-शराफ़त से जिस के पस्त अहमद के गिर्द-ओ-पेश से उट्ठे ख़ुदा-परस्त इंसाँ तो क्या मलक को न थी क़ुदरत-ए-निशस्त आईं तो शाद-शाद रसूल-ए-ज़मन हुए घर में ख़ुदा के एक जगह पंज-तन हुए ताज़ीम-ए-फ़ातिमा को उठे सय्यद-उल-बशर देखा कि चश्म-ए-फ़ातिमा है आँसुओं से तर ग़म थे हुसैन दोश पे माँ के झुकाए सर था इक हिलाल महर के पहलू में जल्वा-गर माँ कहती थी न रोओ मगर चुप न होते थे आँखें थीं बंद हिचकियाँ ले ले के रोते थे घबरा के पूछने लगे महबूब-ए-ज़ुल-जलाल रोता है क्यूँ हुसैन ये क्या है तुम्हारा हाल बोलीं बुतूल आज क़लक़ है मुझे कमाल रोया है ये हुसैन कि आँखें हैं दोनों लाल आते हैं हँसते रोते हुए घर में जाते हैं शफ़क़त भी आप ही करते हैं आप ही रुलाते हैं हाथों को जोड़ती हूँ मैं या शाह-ए-बहर-ओ-बर शफ़क़त की उस के हाल पे हर-दम रहे नज़र रोने से उस के होता है टुकड़े मिरा जिगर मुझ फ़ाक़ा-कश ग़रीब का प्यारा है ये पिसर हैदर से पूछिए मिरे उसरत के हाल को किस किस दुखों से पाला है इस नौनिहाल को अश्क उस के जितने टपके हैं या शाह-ए-नेक-ख़ू उतना ही घट गया है मिरे जिस्म का लहू रोए हैं फूट फूट के ये मेरे रू-ब-रू तर हो गया है आँसुओं से चाँद सा गुलू देखा न था ये मैं ने जो हाल इस का आज है हज़रत तो जानते हैं कि नाज़ुक मिज़ाज है शफ़क़त से आज आप ने चूमे हसन के लब बोसा लिया न उन के लबों का ये क्या सबब रुत्बे में दोनों एक हैं या सर्वर-ए-अरब मैं सच कहूँ ये सुन के मुझे भी हुआ ओजब इस को जो हो ख़ुशी तो दिल इस का भी शाद हो छोटे से चाहिए कि मोहब्बत ज़ियाद हो आप उन के नाज़ उठाते हैं या शाह-ए-बहर-ओ-बर फिर किस से रूठें आप से रूठें न ये अगर अक्सर इन्हें चढ़ाया है हज़रत ने दोश पर गेसू दिए हैं नन्हे से हाथों में बेश-तर रूठे थे ये सो क़दमों पे सर धरने आए हैं मुँह के न चूमने का गिला करने आए हैं ये कह के फिर हुसैन से बोलीं ब-चश्म-तर लो जा के अब नबी के क़दम पर झुकाओ सर आए हुसैन हाथ जो नन्हे से जोड़ कर बे-इख़्तियार रोने लगे सय्यद-उल-बशर रह रह के देखते थे अली ओ बुतूल को नज़दीक था क़लक़ से ग़श आए रसूल को थी आँसुओं से रीश-ए-मुबारक तमाम नम फ़र्त-ए-बुका से ख़ाक प झुकते थे दम-ब-दम गाहे सुतूँ से लग के हुए रास्त गाह ख़म हर लहज़ा इज़्तिराब ज़ियादा था सब्र कम हो सकता था न ज़ब्त शह-ए-मश्रिक़ैन से रोते थे बार बार लिपट कर हुसैन से शब्बीर रो के कहते थे नाना न रोइए रोएँगे अब न हम शह-ए-वाला न रोइए हिलने लगेगा अर्श-ए-मुअल्ला न रोइए फटता है अब हमारा कलेजा न रोइए सौ बार दिन में हम तो मुँह अश्कों से धोते हैं हज़रत हमारे रोने पे काहे को रोते हैं घबरा गए अली-ए-वली शाह-ए-बहर-ओ-बर की अर्ज़ फातीमा ने झुका के क़दम पे सर बेटी निसार हो गई या सय्यद-उल-बशर क्या वजह है जो आप हैं इस तरह नौहा गर जल्दी बताइए कि मुझे ताब अब नहीं रोना ख़ुदा के दोस्त का ये बे-सबब नहीं हज़रत को इल्म-ए-ग़ैब है या शाहइल्म-ए-इंस-ओ-जाँ आइंदा ओ गुज़िश्ता का सब हाल है अयाँ क्या आई आज वही-ए-ख़ुदावंदइल्म-ए-दो-जहाँ होना है जो हुसैन पे मुझ से करो बयाँ फ़ाक़ों से काटती हूँ मुसीबत जहान की क्यूँ बाबा-जान ख़ैर तो है इस की जान की बोले जिगर को थाम के महबूब-ए-ज़ुल-जलाल तुझ से सुना न जाएगा ऐ फ़ातिमा ये हाल किस मुँह से मैं कहूँ कि क़लक़ है मुझे कमाल ज़ेहरा शहीद हुए होवेंगे तेरे ये दोनों लाल मातम की ये ख़बर अभी जिबरील लाए थे सारे मलक हुसैन के पुरसे को आए थे अल्मास पी के हुएगा बे-जाँ तिरा हसन ये वज्ह है कि चूमता हूँ उस का मैं दहन भर जाएगा कलेजों के टुकड़ों से सब लगन होगा ज़मुर्रदी तिरे इस लाल का बदन सू-ए-बहिश्त जब ये जहाँ से सिधारेंगे बद-केश तीर इस के जनाज़े प मारेंगे ज़ेहरा मुझे कलाम की ताक़त नहीं है अब हल्क़-ए-हुसैन चूमने का क्या कहूँ सबब इक बन में तीन रोज़ रहेंगे ये तिश्ना-लब कट जाएगा गला यही ख़ंजर से है ग़ज़ब नेज़े पे सर चढ़ेगा तिरे नूर-आ-ऐन का घोड़ों से रौंद डालेंगे लाशा हुसैन का रोए ख़बर ये कह के जो महबूब-ए-ज़ुल-मिनन घबरा के मुँह हुसैन का तकने लगे हसन ज़ेहरा पुकारी हाए लुटेगा मिरा चमन मैं मर गई दुहाई है या सरवर-ए-ज़मन ये कैसी आग है कि मिरी कोख जल गई है है छुरी कलेजे पे ज़ेहरा के चल गई फ़रियाद या-नबी शह-ए-अबरार अल-ग़ियास ऐ मुर्सिलान-ए-हक़ के मदद-गार अल-ग़ियास ऐ बे-कसों के वारिस ओ सरदार अल-ग़ियास क़ुदरत है सब तरह की शह-ए-मश्रिक़ैन को हज़रत से लूँगी अपने हसन और हुसैन को किस जुर्म पर ये लाल मिरे क़त्ल होंगे आह रो कर कहा रसूल-ए-ख़ूदा ने कि बे-गुनाह की अर्ज़ फ़तिमा ने कि ऐ अर्श-ए-बार-गाह बच्चों को मेरे क्या न मिलेगी कहीं पनाह तलवारें खेंच खेंच के ज़ालिम जो आएँगे हज़रत न क्या नवासों को अपने बचाएँगे आसाँ है क्या जो क़त्ल करेंगे सितम-शिआर क्या शेर-ए-हक़ कमर से न खींचेंगे ज़ुल-फ़िक़ार आदा पे क्या चलेगा न दस्त-ए-ख़ुदा का वार बालों को क्या न खोलेगी ज़ेहरा जिगर फ़िगार टुकड़े जिगर जो हुएगा मुझ दिल दो-नीम का पाया न क्या हिलाऊँगी अर्श-ए-अज़ीम का ज़ेहरा से रो के कहने लगे शाह-ए-नेक-ख़ू बेटी मुझे सताएँगे तुर्बत में कीना-जू इस वक़्त क़त्ल होवेंगे ये दोनों माह-रू दुनिया में जब न होगा अली और न मैं न तू लाशे पे मुजतबा के तू शब्बीर रोएगा शब्बीर जब मरेगा तो कोई न हुएगा चिल्लाई सर पटक के ये ज़ेहरा कि है सितम पीटेगा कौन तन से जो निकलेगा उस का दम मातम की सफ़ बिछाएगा कौन ऐ शह-ए-उमम पुर्से को कौन आएगा उस के ब-चश्म-ए-नम हम में से ऐसे वक़्त जो कोई न हुएगा है है मिरे हुसैन को फिर कौन रोएगा बच्चे की मेरे ताज़िया-दारी करेगा कौन मुँह ढाँप ढाँप गिर्या-ओ-ज़ारी करेगा कौन दरिया-ए-अश्क चश्म से जारी करेगा कौन इमदाद बाद-ए-मर्ग हमारी करेगा कौन होगा कहाँ नबी के नवासे का फ़ातिहा शर्बत पे कौन देवेगा प्यासे का फ़ातिहा बोले नबी कि आप को ज़ेहरा न कर हलाक फ़रमा चुका है मुझ से ये वादा ख़ुदा-ए-पाक पैदा करेंगे क़ौम इक ऐसी ब-रू-ए-ख़ाक जो रात दिन रहेंगे इसी ग़म में दर्द-नाक बज़्म-ए-अज़ा में आएँगे वो दूर दूर से तन ख़ाक से बनाएँगे दिल उन के नूर से होगी उन्हीं से मजलिस-ए-मातम की ज़ेब-ओ-ज़ैन देंगे उन्हें वो लब कि रहे जिस पे वा हुसैन आँखें वो देंगे रोने को समझें जो फ़र्ज़-ए-ऐन हाथ ऐसे ग़ैर सीना-ज़नी हो जिन्हें न चैन सामान ताज़ियत के कभी कम न होवेंगे वो हश्र तक हुसैन के मातम में रोएँगे होगा अयाँ फ़लक पे मोहर्रम का जब हिलाल रख़्त-ए-सियाह पहनेंगे बर में वो ख़ुश-ख़िसाल खोलेंगी बीबियाँ भी सब अपने सरों के बाल हर घर में होगा शोर कि है है अली का लाल लेंगे सिले में ख़ुल्द तिरे नूर-ए-ऐन से आँसू अज़ीज़ वो न करेंगे हुसैन से प्यासा शहीद होगा जो तेरा ये दिल-रुबा मोमिन सबीलें रक्खेंगे पानी की जा-ब-जा होवेगी शाद रूह शहीदान-ऐ-कर्बला भर भर के आब-ए-सर्द पुकारेंगे बरमला महबूब-ए-किब्रिया के नवासे की नज़्र है प्यासे न जाइयो कि ये प्यासे की नज़्र है कहने लगी नबी से बुतूल-ए-फ़लक-जनाब है है मैं क्या करूँ मिरे दिल को नहीं है ताब ऐ बादशाह-ए-कौन-ओ-मकाँ मालिकुर्रिक़ाब दरगाह-ए-हक़ में आप की है अर्ज़ मुस्तजाब कीजे दुआ कि ख़ालिक़-ए-अकबर मदद करे अल्लाह ये बला मिरे बच्चे की रद करे बेटी से रो के कहने लगे शाह-ए-काएनात रूहुल-अमीं ने मुझ से तो ये भी कही है बात चाहो तो रद करे ये बला रब्ब-ए-पाक-ज़ात लेकिन न होएगी मिरे उम्मत की फिर नजात महबूब-ए-हक़ निसार तिरे नूर-ए-ऐन पर मौक़ूफ़ है ये अमर तो क़त्ल-ए-हुसैन पर अल्लाह-रे सब्र-ए-महबूब-ए-किर्दगार उम्मत का नाम सुन के झुकाया सर एक बार ख़ुश-नूद हो के कहने लगे शाह-ए-ज़ुल-फ़िक़ार सदक़े हसन हुसैन तसद्दुक़ अली निसार इस राह में न माल न दौलत अज़ीज़ है प्यारे पिसर नहीं हमें उम्मत अज़ीज़ है कहने लगे हुसैन से फिर शाह-ए-बहर-ओ-बर बतला मुझे कि क्या तिरी मर्ज़ी है ऐ पिसर नाना से बोले छोटे से हाथों को जोड़ कर उम्मत के काम आए तो हाज़िर अभी है सर वादा को हम न भूलेंगे गो ख़ुर्द-साल हैं छोटे नहीं हैं मुख़्बिर-ए-सादिक़ के लाल हैं रोते हैं आप किस लिए या सय्यद-ए-उमम राज़ी हैं हम पे राह-ए-ख़ुदा में हों जो सितम तलवारें भी चलें तो नहीं मारने के दम उम्मत पे अपने सर को तसद्दुक़ करेंगे हम हम रास्त-गो हैं बात पे जिस वक़्त आते हैं कहते हैं जो ज़बाँ से वही कर दिखाते हैं बचपन में जो ज़बाँ से कहा था किया वो काम जिस वक़्त रन में टूट पड़े शह पे फ़ौज-ए-शाम गर्दन झुका के बर्छियाँ खाया किए इमाम ख़ूँ में क़बा रसूल की तर हो गई तमाम तेग़ें अली के लाल के शाने पे चल गईं छाती के पार नेज़ों की नोकें निकल गईं फेरी न थी जो पुश्त-ए-मुबारक दम-ए-मसाफ़ थे दो हज़ार ज़ख़्म फ़क़त सर से ता-ब-नाफ़ सय्यद से बे-वतन से ज़माना था बर-ख़िलाफ़ ग़ुल था कि आज होता है घर फ़ातिमा का साफ़ सँभला न जाएगा ख़लफ़-ए-बू-तुराब से लो वो क़दम हुसैन के निकले रिकाब से मेंह की तरह बरसने लगे शाह-ए-दीं पे तीर थर्रा रहे थे लग के तन-ए-नाज़नीं पे तीर दामन पे तीर जैब पे तीर आस्तीं पे तीर पहलू पे तेग़ सीना पे नेज़ा जबीं पे तीर दाग़ों से ख़ूँ के रख़्त-ए-बदन लाला-ज़ार था शक्ल-ए-ज़रीह सीना-ए-अक़्दस फ़िगार था तर थी लहू में ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन जुदा मजरूह लाल-ए-लब थे जुदा और दहन जुदा दरपय थे नेज़ा-दार जुदा तेग़ज़न जुदा कट कट के हो गया था हर इक उज़्व-ए-तन जुदा सी-पारा था न सद्र फ़क़त उस जनाब का पुर्ज़े वरक़-वरक़ था ख़ुदा की किताब का करता था वार बर्छियों वालों का जब परा तेग़ों से दम भी लेने की मोहलत न थी ज़रा नेज़ों में ख़ूँ नबी के नवासे का था भरा शमशीर-ओ-तीर नेज़ा-ओ-ख़ंजर के मावरा थीं सख़्तियाँ सितम की शह-ए-ख़ुश-ख़िसाल पर चलते थे संग फ़ातिमा-ज़ेहरा के लाल पर थे दो हज़ार जिस्म-ए-शह-ए-बहर-ओ-बर पे ज़ख़्म माथे पे ज़ख़्म तीर के तेग़ों के सर पे ज़ख़्म गर्दन पे ज़ख़्म सीने पे ज़ख़्म और कमर पे ज़ख़्म और इस के मावरा थे बहत्तर जिगर पे ज़ख़्म घोड़े पे गह सँभलते थे गह डगमगाते थे ग़श आता था तो हिरने पे सर को झुकाते थे घोड़े पे जब सँभलने की मुतलक़ रही न ताब हाथों से बाग छूट गई और पाँव से रिकाब गिरने लगा जो ख़ाक पे वो आसमाँ-जनाब मरक़द में बे-क़रार हुई रूह-ए-बू-तुराब ग़ुल था कि ख़ाक पर शह-ए-कौन-ओ-मकाँ गिरा बस अब ज़मीं उलट गई और आसमाँ गिरा जलती हुई ज़मीं पे तड़पने लगे इमाम बे-कस पे ज़ालिमों ने किया और इज़्दिहाम उस वक़्त शिम्र से ये उमर ने किया कलाम हाँ तन से जल्द काट सर-ए-सरवर-ए-अनाम डरियो न सुन के फ़ातिमा-ज़ेहरा की आह को गुल कर दे शम-ए-क़ब्र-ए-रिसालत-पनाह को ये सुनते ही चढ़ाई सितम-गर ने आस्तीं ख़ंजर कमर से खींच के आगे बढ़ा लीं थे क़िबला-रू झुके हुए सज्दे में शाह-ए-दीं लब हिलते देखे शाह के आया वो जब क़रीं समझा कि तिश्नगी से जो सदमे गुज़रते हैं उस वक़्त बद-दुआ मुझे शब्बीर करते हैं झुक कर क़रीब कान जो लाया तो ये सुना हक़ में गुनाहगारों के करते हैं शह दुआ जारी ज़बान-ए-ख़ुश्क पे ये है कि ऐ ख़ुदा कर हाजतों को मेरे मुहिब्बों की तो रवा शीओं का हश्र रोज़-ए-जज़ा मेरे साथ हो मेरा ये ख़ूँ-बहा है कि उन की नजात हो ये सुन के मुस्तइद हुआ वो शह के क़त्ल पर ज़ानू रखा हुसैन के सीने प बे-ख़तर गर्दन पे फेरने लगा ख़ंजर जो बद-गुहर आई सदा अली की कि है है मिरे पिसर ज़ेहरा पुकारी कुछ भी नबी से हिजाब है ज़ालिम ये बोसा-गाह-ए-रिसालत-मआब है क्यूँ ज़ब्ह मेरे लाल को करता है बे-गुनाह क्यूँ काटता है मेरे कलेजे को रू-सियाह कश्ती को अहल-ए-बैत-ए-नबी की न कर तबाह मैं फ़ातिमा हूँ अर्श हिलाएगी मेरी आह हुएगा हश्र क़त्ल जो ये बे-वतन हुआ ये मर गया तो ख़ात्मा-ए-पंज-तन हुआ आवाज़ अपनी माँ की ये ज़ैनब ने जब सुनी दौड़ी निकल के ख़ेमे से सर पीटती हुई देखा कि ज़ब्ह करता है हज़रत को वो शक़ी सर पीट कर ये कहने लगी वो जिगर-जली है है न तीन रोज़ के प्यासे को ज़ब्ह कर ज़ालिम न मुस्तफ़ा के नवासे को ज़ब्ह कर बानो पुकारती थी ये क्या करता है लईं प्यासा है तीन रोज़ से हैदर का जा-नशीं चिल्लाती थी सकीना कि जीने की मैं नहीं बाबा को ज़ब्ह करता है क्यूँ ऐ उदू-ए-दीँ ख़ंजर न फेर चाँद सी गर्दन पे रहम कर अब्बा को छोड़ दे मिरे बचपन पे रहम कर ज़ख़्मों से चूर चूर है ज़ेहरा का यादगार जिस छाती पर में सोती थी उस पर है तो सवार बाबा के हल्क़ पर न फिरा अब छुरी की धार बदले पिदर के सर को मरे तन से तू उतार सय्यद पे तिश्ना-लब पे सितम इस क़दर न कर पोती हूँ फ़ातिमा की मुझे बे-पिदर न कर रो कर बयाँ ये करती थी वो सोख़्ता-जिगर दे कर दुहाई अहल-ए-हरम पीटते थे सर करता था ज़ब्ह शह को वहाँ शिम्र-ए-बद गुहर फ़रमाते थे ये शाह कि प्यासा हूँ रहम कर पानी दिया न हाए नबी के नवासे को जल्लाद ज़ब्ह करने लगा भूके प्यासे को आख़िर सर-ए-इमाम-ए-उमम तन से कट गया चिल्ला के फ़ातिमा ने ये ज़ैनब को दी सदा मैदाँ से जल्द ले के सकीना को घर में जा बे-जुर्म कट गया तिरे माँ जाए का गला मारा ब-ज़ुल्म शिम्र ने प्यासे को जान से मैं लट गई हुसैन सिधारे जहान से बस ऐ 'अनीस' बज़्म में है नाला-ओ-फ़ुग़ाँ पूछ उन के दिल से जो हैं सुख़न-फ़हम नुक्ता-दाँ हक़ है सुना नहीं कभी उस हुस्न का बयाँ गोया कि ये ख़लीक़ की है सर-ब-सर ज़बाँ सच है कि इस ज़बाँ को कोई जानता नहीं जो जानता है और को वो मानता नहीं
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