लिख क़लम पहले हम्द-ए-रब्ब-ए-वदूद कि हर इक जा पे है वही मौजूद ज़ात-ए-माबूद जावेदानी है बाक़ी जो कुछ कि है वो फ़ानी है हमसर उस का नहीं नदीम नहीं सब हैं हादिस कोई क़दीम नहीं नाअत मद्ह-ए-अहमद ज़बाँ पे क्योंकर आए बह्र कूज़े में किस तरह से समाय ज़ात-ए-अहमद को कोई क्या जाने या अली जाने या ख़ुदा जाने मंक़बत मद्ह-ए-हैदर में खोलिए जो दहन इस से आगे नहीं है जा-ए-सुख़न कोई हैदर का मर्तबा समझा कोई बंदा कोई ख़ुदा समझा बयान-ए-इश्क़ है बना जब से गुलशन-ए-ईजाद हुई हर शैय हर एक को इमदाद रंग-ओ-ख़ूबी अता क्या गुल को नाला-ओ-दर्द बख़्शा बुलबुल को माह को नूर लुत्फ़ हाले को चश्म नर्गिस को दाग़ लाले को रास्ती की अता सनोबर को पेच सुंबुल को आब गौहर को सख़्ती सारी बुतों के दिल में दी उल्फ़त इंसां के आब-ओ-गिल में दी इश्क़ से कौन है बशर ख़ाली कर दिए जिस ने घर के घर ख़ाली पड़ते हैं इस में जान के लाले डालता है जिगर में तबख़ाले जो कि वाक़िफ़ थे सब क़रीनों से ख़ाक छनवाई उन हसीनों से इस से उम्मीद रखना है बेजा भाई मजनूं से क्या सुलूक किया मुँह से करने ना दी फ़ुग़ाँ इस ने मारे चुन चुन के नौजवाँ इस ने इस ने जिस से ज़रा तपाक किया सब से पहले उसे हलाक किया आतिश-ए-हिज्र से रुलाता है आग पानी में ये लगाता है मार डाला तमाश-बीनों को ज़हर खिलवा दिया हसीनों को बस में डाले ना किबरिया इस के रहम दिल में नहीं ज़रा इस के आग़ाज़-ए-दास्तान एक क़िस्सा ग़रीब लिखता हूँ दास्तान-ए-अजीब लिखता हूँ ताज़ा इस तरह की हिकायत है सुनने वालों को जिस से हैरत है जिस मुहल्ले में था हमारा घर वहीं रहता था एक सौदागर मर्द-ए-अशराफ़ साहिब-ए-दौलत ताजिरों में कमाल ज़ी-इज़्ज़त ग़म ना था कुछ फ़राग़-बाली से था बहुत ख़ानदान-ए-आली से एक दुख़्तर थी उस की माह-जबीं शादी उस की नहीं हुई थी कहीं सानी रखती ना थी वो सूरत में ग़ैरत-ए-हूर थी हक़ीक़त में सब्ज़ नख़्ल-ए-गुल-ए-जवानी था हुस्न-ए-यूसुफ़ फ़क़त कहानी था इस सिन-ओ-साल पर कमाल ख़लीक़ चाल-ढाल इंतिहा की नस्तालीक़ चश्म-ए-बद दूर वो हसीं आँखें रश्क-ए-चश्म-ए-ग़ज़ाल-चीं आँखें था जो माँ बाप को नज़र का डर आँख भर कर ना देखते थे उधर थी ज़माने में बे-अदील-ओ-नज़ीर ख़ुश-गुलू, ख़ुश-जमाल ख़ुश तक़रीर था ना इस शहर में जवाब उस का हुस्न लाखों में इंतिख़ाब उस का शेर-गोई से ज़ौक़ रहता था लिखने-पढ़ने का शौक़ रहता था रुख़ पे गेसू की लहर आफ़त थी जो अदा उस की थी क़ियामत थी था ये उस गुल का जामा-ज़ेब बदन सादी पोशाक में थे सौ जोबन सारा घर उस पे रहता था क़ुरबाँ रूह गर माँ की थी तो बाप की जाँ नूर आँखों का दिल का चैन थी वो राहत-ए-जान-ए-वालदैन थी वो पहली नज़र एक दिन चर्ख़ पर जो अब्र आया कुछ अंधेरा सा हर तरफ़ छाया खुल गया जब बरस के वो बादल क़ौस तब आसमाँ पे आई निकल दिल मिरा बैठे बैठे घबराया सैर करने को बाम पर आया ख़फ़क़ाँ दिल का जो बहलने लगा इस तरफ़ उस तरफ़ टहलने लगा देखा इक सिम्त जो उठा के नज़र सामने थी वो दुख़्त-ए-सौदागर साथ हजमोलियाँ भी थीं दो चार देखती थीं वो आसमाँ की बिहार बाम से कुछ उतरती जाती थीं चहलें आपस में करती जाती थीं रह गई जब अकेली वो गुल-रू निगराँ सैर को हुई हर-सू हुई मेरी जो उस की चार निगाह मुँह से बेसाख़्ता निकल गई आह हाल दिल का नहीं कहा जाता ख़ूब सँभला, नहीं ग़श आ जाता ना हुआ गो कलाम फ़ी-मा-बैन रूह क़ालिब में हो गई बे-चैन तीर-ए-उल्फ़त जो था लगा कारी अश्क बेसाख़्ता हुए जारी सामने वो खड़ी थी माह-ए-मुनीर चुप खड़ा था मैं सूरत-ए-तस्वीर ताब-ए-नज़ारा इतनी ला ना सका कि इशारे से भी बुला ना सका देखता उस को बार बार था मैं महव-ए-हुस्न-ओ-जमाल-ए-यार था मैं गो मैं रोके हुए हज़ार रहा दिल पे लेकिन ना इख़्तियार रहा इसी सूरत से हो गई जब शाम लाई पास उस के इक कनीज़ पयाम बैठी नाहक़ भी होलें खाती हैं अम्मी-जान आप की बुलाती हैं गेसू रुख़ पर हवा से हिलते हैं चलिए अब दोनों वक़्त मिलते हैं सुन के लौंडी के मुँह से ये पैग़ाम गई कोठे के नीचे वो गुलफ़ाम उस का जल्वा ना जब नज़र आया मैं भी रोता हुआ उतर आया शाम से फिर सह्र की मर मर के शब वो काटी ख़ुदा ख़ुदा कर के इज़्तिराब-ए-आशिक़ पड़ गया दिल में ग़म से इक नासूर यही उस दिन से पड़ गया दस्तूर दिन में सौ बार बाम पर जाना देखना-भालना चले आना जब ना देखा वहां पे वो गुल-रु फ़र्त-ए-ग़म से निकल पड़े आँसू लाख चाहा न हो सका दिल सख़्त पए तस्कीं रही ये आमद-ओ-रफ़्त गुज़रे कुछ दिन तू रंज के मारे ज़र्द रख़्सार हो गए सारे हो गई फिर तो ऐसी हालत-ए-ज़ार जैसे बरसों का हो कोई बीमार दिल को थी ग़म से ख़ुद-फ़रामोशी लग गई लब पे मोहर-ए-खामोशी ना रहा दिल को ज़ब्त का यारा सर जहां पाया धड़ से दे मारा रंज लाखों तरह के सहते थे लब थे ख़ामोश अश्क बहते थे हिज्र से ग़ैर हो गई हालत ग़म से बिलकुल बदल गई सूरत हुआ हैरान अपना बेगाना जिस ने देखा मुझे न पहचाना माँ बाप की फ़हमाइश देखे माँ बाप ने जो ये अंदाज़ रूह क़ालिब से कर गई परवाज़ पूछा मुझ से ये क्या है हाल तिरा किस तरफ़ है बंधा ख़्याल तिरा सच बता दे कि ध्यान किस का है दिल में ग़म मेरी जान किसी का है रंज किस शोला-रु का खाते हो शमा की तरह पिघले जाते हो ज़र्द चेहरा है अर्ग़वाँ की तरह टुकड़े पोशाक है कताँ की तरह कौन सी माह-रू पे मरते हो सच्च कहो किस को प्यार करते हो ये कहो मह-जबीं मिला है कौन? तुम को ऐसा हसीं मिला है कौन? खाते हो पीते हो ना सोते हो रोज़ उठ उठ के शब को रोते हो नहीं मालूम कौन है वो छिनाल कर दिया मेरे लाल का ये हाल मेरे बच्चे की जो कुढ़ाए जान सात बार उस को में करूं क़ुर्बान अल्लाह आमीं से हम तो यूं पालें आप आफ़त में जां को यूं डालें तेरे पीछे की तल्ख़ सब औक़ात दिन को दिन समझी और ना रात को रात पाला किस किस तरह तुम्हें जानी कौन मिन्नत थी जो नहीं मानी रौशनी मस्जिदों में करती थी जा के दरगाह चौकी भर्ती थी अब जो नाम-ए-ख़ुदा जवान हुए ऐसे मुख़्तार मेरी जान हुए हाँ मियां सच है ये ख़ुदा की शान तुम करो जान-बूझ कर हलकान हम तो यूं फूंक फूंक रखें क़दम आप देते फिरें हर एक पे दम हम यहाँ रंज-ओ-ग़म में रोते हैं आप ग़ैरों पे जान खोते हैं यूं मिटाओगे जान कर हम को थी ना इस रोज़ की ख़बर हम को देखती हूँ जो तेरा हाल-ए-ज़बूँ ख़ुश्क होता है मेरे जिस्म का ख़ूँ यूं तो बर्बाद तू शबाब ना कर मिट्टी माँ बाप की ख़राब ना कर कुछ तो कह हम से अपने क़ल्ब का हाल किस का भाया है तुझ को हुस्न-ओ-जमाल दिल हुआ तेरा शेफ़्ता किस का सच बता है फ़रेफ़्ता किस का कैसा दो दिन में जी निढाल हुआ दाई बंदी का क्या ये हाल हुआ आईना तो उठा के देख ज़रा सुत गया दो ही दिन में मुँह कैसा सुद्ध ना खाने की है ना पीने की कौन सी फिर उम्मीद जीने की किस की उल्फ़त में है ये हाल किया कुछ ना माँ बाप का ख़याल किया दिल पे गुज़रा है क्या मलाल तो कह मुँह से नाशुदनी अपना हाल तो कह यूँ ही गर हो गया तू सौदाई दूर पहूंचेगी इस की रुसवाई ऐसे दीवाने को भरेगा कौन? शादी और ब्याह फिर करेगा कौन? कर दिया किस ने ऐसा आवारा कि नहीं बनता अब कोई चारा आगे तो ये ना था तिरा दस्तूर किस से सीखा है इस तरह के उमूर मेरे तो देख कर गए औसान लैला मजनूं के तूने काटे कान बातें ये वालदैन की सुन कर और इक क़ल्ब पर लगा नश्तर शर्म के मारे मुँह को ढाँप लिया कुछ ना माँ बाप को जवाब दिया गुज़रा याँ तक तो ये हमारा हाल अब बयान उस का होता है अहवाल मैं तो खाए हुए था इश्क़ का तीर पर हुई उस के दिल पे भी तासीर छलके आँखों के दोनों पैमाने दिल लगा आप ही आप घबराने आतिश-ए-इश्क़ से उठा जो धुआँ बातों बातों में बढ़ गया ख़फ़ाक़ाँ गोश फ़र्याद-ए-क़ल्ब सुनने लगे ख़ुद-बख़ुद हाथ पांव धुनने लगे दर्द-ओ-ग़म दिल को आ गया जो पसंद सोना रातों का हो गया सौगन्द मौज-ए-उल्फ़त उसे डुबोने लगी एक उलझन सी दिल को होने लगी घटने ताक़त लगी जो रोज़-ब-रोज़ आतिश-ए-हिज्र हो गई दिल-सोज़ दाग़ जूँ जूँ जिगर के जलते थे अश्क गर्म आँख से निकलते थे गर्म नाले थे लब पे आह-ए-सर्द दिल में होता था मीठा मीठा दर्द यूँ तड़पता था उस के सीने में दिल जिस तरह लोटे ताइर-ए-बिस्मिल हो गई जब कमाल हालत-ए-ज़ार जी में बाक़ी रहा ना सब्र-ओ-क़रार नामा-ए-हुस्न लिखने पढ़ने से था जो उस को ज़ौक़ सोच कर दिल में लिखा इक ख़त-ए-शौक़ भेजा मुझ को वो बे-ख़तर नामा डर से लिखा मगर ना सरनामा एक मामा ने आ के चुपके से ख़त दिया उन का हाथ में मेरे खोल कर मैंने जो उसे देखा कुछ अजब दर्द से ये लिखा था हो ये मालूम तुम को बाद-ए-सलाम ग़म-ए-फुर्क़त से दिल है बे-आराम अपने कोठे पे तू नहीं आता दिल हमारा बहुत है घबराता शक्ल दिखला दे किबरिया के लिए बाम पर आ ज़रा ख़ुदा के लिए इस मुहब्बत पे हो ख़ुदा की मार जिस ने यूं कर दिया मुझे ना-चार सारे उल्फ़त ने खो दिए औसान वर्ना ये लिखती मैं ख़ुदा की शान अब कोई इस में क्या दलील करे जिस को चाहे ख़ुदा ज़लील करे जवाब इश्क़ पढ़ के मैंने लिखा ये उस को जवाब क्या लिखूँ तुम को अपना हाल-ए-ख़राब बन गई याँ तो जान पर मेरी ख़ूब ली आप ने ख़बर मेरी हिज्र में मर के ज़िंदगानी की अब भी पूछा तो मेहरबानी की जब से देखा है आप का दीदार दिल से जाता रहा है सब्र-ओ-क़रार रोज़ तप से बुख़ार रहता है सर पे इक जिन सवार रहता है तेरे क़दमों की हूँ क़सम खाता होश दो दो पहर नहीं आता पूछता है जो कोई आ के हाल और होता है मेरे दिल को मलाल कहूँ किस किस से इस कहानी को आग लग जाये इस जवानी को हो गई है कुछ ऐसी ताक़त ताक़ उठ नहीं सकता बार-ए-रंज-ए-फ़िराक़ हिल के पानी पिया नहीं जाता वर्ना हुक्म आप का बजा लाता पाता ताक़त जो तालिब-ए-दीदार बाम पर आता दिन में सौ सौ बार पहुंचा जिस वक़्त से तिरा मकतूब ज़िंदगी का बंधा है कुछ उस्लूब रंज राहत से गर बदल जाये क्या अजब है जो दिल सँभल जाये पेशक़दमी जो तुम ने की मिरे साथ इस में ज़िल्लत की कौन सी है बात नहीं कुछ इस में आप का है क़सूर मेरी उल्फ़त का ये असर है ज़रूर इश्क़ का है असर मिरे वल्लाह वर्ना तुम लिखतीं ये मआज़-अल्लाह तुम तो वो लोग होते हो जल्लाद नहीं सुनते कोई करे फ़र्याद हो बला से किसी का हाल बुरा कोई मर जाये तुम को क्या पर्वा नहीं मुम्किन तुम्हारा बल जाये दम भी आशिक़ का गर निकल जाये अब मैं लिखता हूँ आप को ये हुज़ूर वस्ल की फ़िक्र चाहिए है ज़रूर इस में ग़फ़लत जो तू ने की ए माह हाल होगा मिरा कमाल तबाह ग़ैर है हिज्र से मिरी हालत ग़म उठाने की अब नहीं ताक़त दिल पे आफ़त अजीब आई है जान बच जाये तो ख़ुदाई है जान को किस घड़ी क़रार आया ग़श ने फ़ुर्सत जो दी बुख़ार आया तपिश-ए-दल ने गर क्या होशयार वह्म आने लगे हज़ार हज़ार दिल की वहशत ने कुछ जो मारा जोश वो भी जाते रहे जो आए थे होश आश्ना दोस्त आ गए जो कभू जिस ने देखा निकल पड़े आँसू झूट समझें इसे हुज़ूर नहीं जान जाती रहे तो दूर नहीं मर गए हम तो रंज-ए-फुर्क़त से पर ख़बर की ना अपनी हालत से अब जो भेजी ये आप ने तहरीर है ये लाज़िम कि वो करो तदबीर सख़्तियां हिज्र की बदल जाएं दिल की सब हसरतें निकल जाएं दे के ख़त मैंने ये कहा उस से जल्द इस का जवाब ला उस से पहूँचा जब उस तलक मिरा मकतूब हंस के बोली कि वाह-वा क्या ख़ूब जवाब-ए-ख़त फिर किया ये जवाब मैं तहरीर कुछ क़ज़ा तो नहीं है दामन-गीर ज़िक्र इन बातों का यहाँ किया था छेड़ने को तिरे ये लिखा था ऐसी बातें थीं कब यहाँ मंज़ूर था फ़क़त तेरा इम्तिहाँ मंज़ूर ये तो लिखे थे सब हंसी के कलाम वर्ना इन बातों से मुझे क्या काम मुझ को ऐसी थी क्या तिरी पर्वा बाम पर तू बला से आ कि ना आ बात थी ये कमाल अक़ल से दूर झूट लिखने पे हो गए मग़रूर तुम पे मरती मैं क्या क़ियामत थी क्या मिरे दुश्मनों की शामत थी मेरी जानिब से ये गुमाँ क्या ख़ूब झूट जम जम से है बहुत मरग़ूब ये ना समझा कि माजरा क्या है? यूं भी कोई किसी को लिखता है काला दाना ज़रा उतरवा लो राई लून इस समझ पे कर डालो तुझ पे मरते भी गर मिरे बद-ख़्वाह यूं न लिखती कभी मआज़-अल्लाह जान पा-पोश से निकल जाती पर तबीयत ना यूं बदल जाती ऐसी बातों में होता है बदनाम अब न लिखिएगा इस तरह के कलाम रंज आ जाता है इसी कद से ना बढ़े आदमी कभी हद से क्या समझ कर लिखा था ये मज़मून अच्छी होती नहीं है उतनी दोन जी में ठानी है क्या बताओ तो? ख़ानगी कसबी कोई समझे हो मालज़ादी नहीं यहाँ कोई जो करे तुम से गर्मियाँ कोई देख तहरीर फ़ेल लाए आप ख़ूब जल्दी मज़े में आए आप तालिब-ए-वस्ल जो हुए हम से हैगा सादा मिज़ाज जम जम से विसाल-ए-दोस्त रही कुछ रोज़ तो यही तहरीर फिर मुवाफ़िक़ हुई मरी तक़दीर हुए उस गुल से वस्ल के इक़रार उठ गई दरमियाँ से सब तकरार जो कहा था अदा किया उस ने वाअदा इक दिन वफ़ा किया उस ने रात भर मेरे घर में रह के गई सुबह के वक़्त फिर ये कह के गई बात इस दम की याद रखिएगा एक दिन ये मज़ा भी चखिएगा बिगड़ेगी जब न कुछ बन आएगी आप के पीछे जान जाएगी लो मरी जान जाती हूँ अब तो याद रखिएगा मेरी सोहबत को जो ख़ुदा फिर मिलाएगा तुम से तो कहूंगी मैं हाल आ तुम से सुन के मैंने दिया ये उस को जवाब न करो दिल को इस क़दर बेताब कहती तुम क्या हो ये ख़ुदा ना करे ये सितम होवे किबरिया ना करे उम्र भर हम वफ़ा ना तोड़ेंगे ज़िंदगी भर ना मुँह को मोड़ेंगे प्यार करती जो थी वो ग़ैरत-ए-हूर रक्खा मिलने का उस ने ये दस्तूर पंज-शंबा को जाती थी दरगाह वाँ से आती थी मेरे घर वो माह ऐश होने लगे मिरे उन के ग़ैर जलने लगे ये सुन सुन के आतिश-ए-हिज्र इत्तिफ़ाक़ ऐसा फिर हुआ नागाह दो महीने तलक ना आई वो माह क़ता सब हो गए पयाम-ओ-सलाम ना रही शक्ल-ए-राहत-ओ-आराम तबा को हो गई परेशानी अक़्ल को थी अजीब हैरानी दिल को तश्वीश थी ये हद से ज़ियाद दफ़अतन पड़ गई ये क्या उफ़्ताद थी ना मुझ से यहाँ किसी को लॉग किस ने इस तरह की लगाई आग दिल में किस ने ये उस के बल डाला जो मिरे ऐश में ख़लल डाला कुछ तो ऐसा हुआ है अफ़्साना जो यहाँ तक ना हो सका आना नहीं मालूम क्या पड़ी उफ़्ताद जो फ़रामोश की हमारी याद कौन ऐसा है जाये घर उस के किस को भेजूँ मकान पर उस के क्यों ना बेज़ार हूँ मैं जीने से नहीं देखा है दो महीने से जान आँखों में खिंच के आई है अब नहीं ताक़त-ए-जुदाई है कर लिया हो सका जहाँ तक सब्र अब कहो दिल करे कहाँ तक सब्र दो महीने ना देखे जब ग़ुल को चैन किस तरह आए बुलबुल को रात फिर किस तरह गुज़ारी जाये किसी तरह दिल की बेक़रारी जाये तबा किस तरह फिर बहल जाये जिस्म से रूह जब निकल जाये आख़िरी मुलाक़ात आई नौचंदी इतने में नागाह इस बहाने से आई वो दरगाह बस कि मरती थी नाम पर मेरे छुप के आई वहाँ से घर मेरे थी जो फ़ुरसत न अश्क-बारी से उतरी रोती हुई सवारी से फिर लिपट कर मिरे गले इक बार हाल करने लगी वो यूँ इज़हार अक़रिबा मेरे होगए आगाह तुम से मिलने की अब नहीं कोई राह मश्वरे ये हुए हैं आपस में भेजते हैं मुझे बनारस में वो छुटे हम से जिस को प्यार करें जब्र क्योंकर ये इख़्तियार करें गो ठिकाने नहीं हैं होश-ओ-हवास पर ये कहने को आई हूँ तिरे पास आख़िरी इल्तिमास जा-ए-इबरत सराय फ़ानी है मौरिद-ए-मर्ग नागहानी है ऊंचे ऊंचे मकान थे जिन के आज वो तंग गोर में हैं पड़े कल जहां पर शगूफ़ा-ओ-गुल थे आज देखा तो ख़ार बिलकुल थे जिस चमन में था बुलबुलों का हुजूम आज उस जा है आशियाना-ए-बूम बात कल की है नौजवाँ थे जो साहिब-ए-नौबत-ओ-निशाँ थे जो आज ख़ुद हैं ना है मकाँ बाक़ी नाम को भी नहीं निशाँ बाक़ी ग़ैरत-ए-हूर मह-जबीं ना रहे हैं मकां गर तो वो मकीं ना रहे जो कि थे बादशाह-ए-हफ़्त इक़लीम हुए जा जा के ज़ेर-ए-ख़ाक मुक़ीम कोई लेता नहीं अब उस का नाम कौन सी गोर में गया बहराम अब ना रुस्तम ना साम बाक़ी है इक फ़क़त नाम-नाम बाक़ी है कल जो रखते थे अपने फ़र्क़ पे ताज आज हैं फ़ातिहा को वो मुहताज थे जो ख़ुद-सर जहान में मशहूर ख़ाक में मिल गया सब उन का ग़रूर इतर मिट्टी का जो ना मलते थे ना कभी धूप में निकलते थे गर्दिश-ए-चर्ख़ से हलाक हुए इस्तिख़्वां तक भी उन के ख़ाक हुए थे जो मशहूर क़ैसर-ओ-फ़ग़फ़ूर बाक़ी उन का नहीं निशान-ए-क़ुबूर ताज में जिन के टकते थे गौहर ठोकरें खाते हैं वो कासा-ए-सर रश्क-ए-यूसुफ़ जो थे जहां में हसीं खा गए उन को आसमान-ओ-ज़मीं हर घड़ी मुन्क़लिब ज़माना है यही दुनिया का कारख़ाना है है ना शीरीं ना कूहकन का पता ना किसी जा है नल दमन का पता बू-ए-उल्फ़त तमाम फैली है बाक़ी अब क़ैस है ना लैला है सुबह को ताइराइन-ए-ख़ुश-इलहान पढ़ते हैं कुल्लो-मन-अलैहा-फॉन मौत से किस को रुस्तगारी है आज वो कल हमारी बारी है ज़िंदगी बेसबात है इस में मौत ऐन-ए-हयात है इस में हम भी गर जान दे दें खा कर सम तुम ना रोना हमारे सर की क़सम दिल को हमजोलियों में बहलाना या मरी क़ब्र पर चले आना जा के रहना ना इस मकान से दूर हम जो मर जाएं तेरी जान से दूर रूह भटकेगी गर ना पाएगी ढूंढने किस तरफ़ को जाएगी रोके रहना बहुत तबीयत को याद रखना मिरी वसिय्यत को ज़ब्त करना अगर मलाल रहे मेरी रुसवाई का ख़्याल रहे मेरे मरने की जब ख़बर पाना यूं ना दौड़े हुए चले आना जमा होलें सब अक़रिबा जिस दम रखना उस वक़्त तुम वहां पे क़दम कहे देती हूँ जी ना खोना तुम साथ ताबूत के ना रोना तुम हो गए तुम अगरचे सौदाई दूर पहुंचेगी मेरी की रुसवाई लाख तुम कुछ कहो ना मानेंगे लोग आशिक़ हमारा जानेंगे ताना-ज़न होंगे सब ग़रीब-ओ-अमीर क़ब्र पर बैठना ना हो के फ़क़ीर सामना हो हज़ार आफ़त का पास रखना हमारी इज़्ज़त का जब जनाज़ा मिरा अज़ीज़ उठाएं आप बैठे वहां ना अश्क बहाएं मेरी मिन्नत पे धियान रखिएगा बंद अपनी ज़बान रखिएगा तज़्किरा कुछ ना कीजिएगा मिरा नाम मुँह से ना लीजिएगा मिरा अश्क आँखों से मत बहाईएगा साथ ग़ैरों की तरह जाईएगा आप कांधा ना दीजिएगा मुझे सब में रुसवा ना कीजिएगा मुझे रंग दिल के बदल ना जाएं कहीं मुँह से नाले निकल ना जाएं कहीं साथ चलना ना सर के बाल खुले ता किसी शख़्स पर ना हाल खुले होते आतिश के हैं ये पर काले ताड़ जाते हैं ताड़ने वाले हो बयां गर किसी जगह मिरा हाल तुम ना करना कुछ उस तरफ़ को ख़याल ज़िक्र सुन कर मिरा ना रो देना मेरी इज़्ज़त ना यूं डुबो देना रंज-ए-फुर्क़त मिरा उठा लेना जी किसी और जा लगा लेना होगा कुछ मेरी याद से ना हुसूल दिल को कर लेना और से मशग़ूल रंज करना ना मेरा मैं क़ुर्बान सुन लो गर अपनी जान है तो जहान दे ना उस को ख़ुदा कभी कोई दर्द होता नाज़ुक कमाल है दिल-ए-मर्द दिल में कुढ़ना ना मुझ से छूट के तू रोना मत सीना कूट कूट के तू आ के रो लेना मेरी क़ब्र के पास ता निकल जाये तेरे दिल की भड़ास आँसू चुपके से दो बहा लेना क़ब्र मेरी गले लगा लेना अगर आ जाये कुछ तबीयत पर पढ़ना क़ुरआन मेरी तुर्बत पर गुंचा-ए-दिल मिरा खिला जाना फूल तुर्बत पे दो चढ़ा जाना रो के करना न अपना हाल ज़बूं ता ना हो जाये दुश्मनों को जुनूं देखिए किस तरह पड़ेगी कल सख़्त होती है मंज़िल-ए-अव्वल मेरे मर्क़द पे रोज़ आना तुम फ़ातिहा से ना हाथ उठाना तुम है ये हासिल सब इतनी बातों से मिट्टी देना तुम अपने हातों से उम्र भर कौन किस को रोता है कौन साहिब किसी का होता है कभी आ जाये गर हमारा धियान जानना हम पे हो गई क़ुर्बान दिल में कुछ आने दीजियो ना मलाल ख़्वाब देखा था कीजियो ये ख़याल रंज-ओ-राहत जहां में तो अम है कहीं शादी है और कहीं ग़म है है किसी जा पे जश्न शाम-ओ-पगाह है किसी जा सदा-ए-नाला-ओ-आह मर्ग का किस को इंतिज़ार नहीं ज़िंदगी का कुछ एतिबार नहीं फिर मुलाक़ात देखें हो कि ना हो आज दिल खोल कर गले मिल लो ख़ूब सा आज देख-भाल लो तुम दिल की सब हसरतें निकाल लो तुम आओ अच्छी तरह से कर लो प्यार कि निकल जाये कुछ तो दिल का बुख़ार दिल में बाक़ी रहे ना कुछ अरमान ख़ूब मिल लो गले से मैं क़ुर्बान हश्र तक होगी फिर ये बात कहाँ हम कहाँ तुम कहाँ ये रात कहाँ कह लो सुन लो जो कुछ कि जी में आए फिर ख़ुदा जाने क्या नसीब दिखाए दिल को अपने करो मलूल नहीं रोने-धोने से कुछ हुसूल नहीं हम को गाड़े जो अपने दिल को कुढ़ाए हम को है है करे जो उचक बहाए उम्र तुम को तो है अभी खेना दिन बहुत से पड़े हैं रो लेना बाहें दोनों गले में डाल लो आज जो जो अरमान हूँ निकाल लो आज फिर ख़ुदा जाने क्या मशीयत है इतनी सोहबत बहुत ग़नीमत है कल किसे बैठ कर करोगे प्यार किस की लोगे बलाऐं तुम हर बार कल गले से किसे लगाओगे यूं किसे गोद में बिठाओगे हाल किस का सुनाएगी आ कर किस की मामा बुलाएगी आकर हम तो उठते हैं इस मकां से कल अब तो जाते हैं इस जहां से कल याद अपनी तुम्हें दिलाते जाएं पान कल के लिए लगाते जाएं हो चुका आज जो कि था होना कल बसाएंगे क़ब्र का कोना ख़ाक में मिलती है ये सूरत-ए-ऐश फिर कहाँ हम कहाँ ये सोहबत-ए-ऐश देख लो आज हम को जी भर के कोई आता नहीं है फिर मर के ख़त्म होती है ज़िंदगानी आज ख़ाक में मिलती है जवानी आज चुप रहो क्यों अबस भी रोते हो मुफ़्त काहे को जान खोते हो समजो इस शब को शब-ए-बरात की रात हम हैं मेहमाँ तुम्हारे रात की रात चैन दिल को ना आएगा तुझ बिन अब के बिछड़े मिलेंगे हश्र के दिन अब तुम इतनी दुआ करो मरी जान कल की मुश्किल ख़ुदा करे आसान फल उठाया ना ज़िंदगानी का ना मिला कुछ मज़ा जवानी का दिल में ले कर तुम्हारी याद चले बाग़-ए-आलम से ना-मुराद चले कहती है बार बार हिम्मत-ए-इश्क़ है यही मुक़तज़ा-ए-ग़ैरत-ए-इश्क़ चारपाई पे कौन पड़ के मरे कौन यूं एड़ियां रगड़ के मरे इश्क़ का नाम क्यों डुबो जाएं आज ही जान क्यों ना खो जाएं जब तलक चर्ख़ बे-मदार रहे ये फ़साना भी यादगार रहे बोली घबरा के फिर ठहर मिरी जान कुछ सुना भी कि क्या बजा इस आन हसरत-ए-दिल निगोड़ी बाक़ी है और यहां रात थोड़ी बाक़ी है गोद में अपनी फिर बिठा लो जान फिर गले से हमें लगा लो जान डाल दो फिर गले में बाहों को फिर गिलौरी चबा के मुँह में दो फिर कहाँ हम कहाँ ये सोहबत-ए-यार कर लो फिर हम को भींच भींच के प्यार फिर मिरे सर पे रख दो सर अपना गाल फिर रख दो गाल पर अपना फिर उसी तरह मुँह को मुँह से मलो फिर वही बातें प्यार की कर लो लहर फिर चढ़ रही है कालों की बू सुन्घा दो तुम अपने बालों की फिर हम उठने लगीं बिठा लो तुम फिर बिगड़ जाएं हम मना लो तुम फिर लबों को चबा के बात करो फिर ज़रा मुस्कुरा के बात करो फिर बलाऐं तुम्हारी यार लें हम आओ फिर सर से सर उतार लें हम रो न इस तरह से तू ज़ार-ओ-क़तार दुश्मनों को कहीं चढ़े ना बुख़ार आप अच्छे भले बिछड़ जाएँ और लेने के देने पड़ जाएँ काट ले कोई धड़ से सर मेरा बाल बीका ना हो मगर तेरा मैं दिल-ओ-जां से हूँ फ़िदा तेरी ले के मर जाऊं मैं बला तेरी अब तू क्यों ठंडी सांसें भरता है क्यों मिरे दल के टुकड़े करता है मैं अभी तो नहीं गई हूँ मर क्यों सुजाई हैं आँखें रो रो कर इस क़दर हो रहा है क्यों ग़मगीं क्यों मिटाता है अपनी जान-ए-हज़ीं कर ना रो रो के अपना हाल-ज़बूं अरे ज़ालिम अभी तो जीती हूँ अश्क बहते हैं नागवार तिरे तू ना रो हो गई निसार तिरे ऐसे क़िस्से हज़ार होते हैं यूं कहीं मरदुवे भी रोते हैं यूं तो आँसू ना तू बहा अपने दिल को मज़बूत रख ज़रा अपने रंज से मेरे कुछ उदास ना हो यूं तू लिल्ला बद-हवास ना हो तुम तो इतने में हो गए रंजूर थक गए और अभी है मंज़िल दूर इसी ग़म ने तो मुझ को मारा है सदमा तेरा नहीं गवारा है अपने मरने का कुछ नहीं है अलम दिल में मेरे फ़क़त है इस का ग़म जान हम ने तो इस तरह खोई कौन तेरी करेगा दिल-जोई आ के समझाएगा बुझाएगा कौन इस तरह से गले लगाएगा कौन कौन रोकेगा इस तबीयत को किस से कह जाऊं इस वसीयत को गो कि बेजा तिरा हिरास नहीं कोई दिल-सोज़ भी तो पास नहीं मैं कहाँ हूँ जो साथ दूं तेरा हाथ में किस के हाथ दूं तेरा यूं तसल्ली तिरी करेगा कौन मेरी सूरत भला मरेगा कौन कौन यूं ख़ुश करेगा दिल तेरा दिल है इस ग़म से मुज़्महिल तेरा जी लगेगा ना साथ में इस का दिल लिए रहना हाथ में इस का पर मैं अब इस का क्या करूं कम-बख़्त आसमां दूर है ज़मीं है सख़्त गो कि उक़्बा में रू-स्याह चली मगर अपनी सी मैं निबाह चली जी को तुम पर फ़िदा किया मैंने हक़ वफ़ा का अदा किया मैंने बोली फिर ज़ानूओं पे मार के हाथ नहीं मालूम अब है कितनी रात जूँ जूँ घड़ियाल वां बजाता था जी मिरा सनसनाया जाता था यूँ तो कोई न दर्द-ओ-ग़म में कुढ़े फूले जाते हैं हाथ पांव मिरे कुछ अजब हो रहा है जान का तौर कहती हूँ कुछ निकलता है कुछ और आँसू आँखों में भर भर आते हैं दस्त-ओ-पा सारे थरथराते हैं दिल को समझाती हूँ मैं बहुतेरा पर सँभलता नहीं है जी मेरा गो तू बैठा हुआ है पास मिरे पर ठिकाने नहीं हवास मिरे होश आए हुए भी जाते हैं दिल में क्या क्या ख़्याल आते हैं पेश यूं फुर्क़त-ए-हबीब न हो किसी दुश्मन को भी नसीब ना हो दूसरा अब ये और मातम है सांग बाक़ी बहुत हैं शब कम है ख़ाक तसकीन-ए-जान-ए-ज़ार करें अब वसीयत करें कि प्यार करें सुन के मैंने दिया ये उस को जवाब दिल को मेरे बस अब करो ना कबाब तुम तो यूं अपनी जान दो मिरी जान मैं वसिय्यत सुनूँ ख़ुदा की शान दिल से रखना ज़रा ये अपने दूर कौन कम-बख़्त ये करेगा उमूर मुझ पे ये दिन तो किबरिया ना करे तुम मरो में जियूं ख़ुदा ना करे जान दे दो गी तुम जो खा कर सम मैं भी मर जाऊँगा ख़ुदा की क़सम जो ये देखेगा ख़ूब रोएगा आगे पीछे जनाज़ा होएगा इक ज़रा मुझ से तो कहो ये हाल जी में क्या आया आप के ये ख़याल दिल ही दिल में अलम उठाती हो जान देती हो, ज़हर खाती हो पहूँचा माँ बाप से अगर है अलम उस का करना ना चाहिए तुम्हें ग़म जो कि होते हैं क़ौम के अशराफ़ यूंही करते हैं वो क़सूर माफ़ कुछ तुम्हें पर नहीं है ये उफ़्ताद सब के माँ बाप होते हैं जल्लाद सदमा हर इक पे ये गुज़रता है ज़हर खा खा के कोई मरता है शिकवा माँ बाप का तो नाहक़ है इन का औलाद पर बड़ा हक़ है हूँ जो नाराज़ ये क़ियामत है इन के क़दमों के नीचे जन्नत है तुम तो नाम-ए-ख़ुदा से हो दाना उस पे रुतबा ना इन का पहचाना क्या भरोसा हयात का इन की ना बुरा मानो बात का इन की होश रहते नहीं हैं इस सन के ये तो मेहमान हैं कोई दिन के इतनी सी बात का गुबार है क्या इन के कहने का एतिबार है क्या ग़ौर से कीजिए जो दिल में ख़याल इन का ग़ुस्सा नहीं है जा-ए-मलाल सुन के उस ने दिया ये मुझ को जवाब हम ने देखी नहीं है चश्म-ए-इताब बे-हया ऐसी ज़िंदगी को सलाम मुँह पे आए ना थे कभी ये कलाम ताने सुनती हूँ दो महीने से मौत बेहतर है ऐसे जीने से ख़ून-ए-दिल कब तलक पीए कोई बे-हया बन के क्या जीए कोई नौज इंसान बेहमिय्यत हो आदमी क्या ना जिस को ग़ैरत हो बात वो किस तरह बशर से उठे ना सुनी हो कभी जो कानों से वो सुने जिस को इस की आदत है इस में क्या अपनी अपनी ग़ैरत है पर मिरे जीते जी तो बहर-ए-ख़ुदा अपने मरने का ज़िक्र मुँह पे ना ला कौन सा पड़ गया है रंज-ओ-मिहन जान क्यों देंगे आप के दुश्मन तुम ने जी देने की जो की तदबीर हश्र के रोज़ हूँगी दामन-गीर तू सलामत जहाँ में रह मिरी जाँ निकलें माँ बाप के तिरे अरमाँ वास्ते मेरे अपना दिल न कुढ़ा चांद सी बन्नू घर में ब्याह के ला है यही लुतफ़ ज़िंदगानी का देख सुख अपनी नौजवानी का चार दिन है ये नाला-ओ-फ़र्याद उम्र भर कौन किस को करता है याद लुत्फ़ दुनिया के जब उठाओगे हम को दो दिन में भूल जाओगे आख़िरी घड़ियां था यही ज़िक्र जो बजा घड़ियाल सुनते ही उस के हो गई बेहाल हो गया फ़र्त-ए-ग़म से चेहरा ज़र्द दस्त-ओ-पा थरथरा के हो गए सर्द मुर्दनी रुख़ पे छा गई उस के दिल में वहशत समा गई उस के दिल में गुज़रा जो उस के सुब्ह का शक हुई इस्तादा जा के ज़ेर-ए-फ़लक ठंडी जिस दम चली नसीम-ए-सहर हो गया हाल और भी अबतर इतने में सुब्ह की बजी वर्दी दूनी चेहरे की हो गई ज़र्दी हुए साबित जो सुब्ह के आसार हो गई और उस की हालत-ए-ज़ार बीद की तरह जिस्म थर्राया सर से ले पांव तक अर्क़ आया बातें करनी जो थीं सौ भूल गई दम लगा चढ़ने सांस फूल गई बोली घबरा के रहिया इस के गवाह और कहा ला-इलाहा-इल्लल्लाह अब फ़क़त ये है ख़ूँ-बहा मेरा बख़्श दीजो कहा-सुना मेरा कह के वो फिर चिमट गई इक बार और क्या ख़ूब भींच भींच के प्यार सर से लेकर बलाएँ ता-ब-क़दम बोली तुम पर निसार होते हैं हम आग लग जाए वो घड़ी कम्बख़्त बाम पर आई थी मैं कौन से वक़्त फिर ये बोली वो पोछ कर आँसू मेरे सर की क़सम न कुढ़ियो तू आज़माती थी तुझ को कसती थी मैं तिरे छेड़ने को हंसती थी मुफ़ारिक़त कह के ये बात हो गई वो सवार यां बंधा आँसूओं का आँख से तार आतिश-ए-ग़म भड़क गई दूनी तपिश-ए-क़लब ने की अफ़्ज़ूनी याद आती थी जब वसिय्यत-ए-यार वहम लाता था दिल हज़ार हज़ार थी मुसीबत जो ये बला-अंगेज़ ध्यान आते थे क्या क्या वहशत-ख़ेज़ दिल में कहने का उस के था जो मलाल आते थे ज़ेहन में अजीब ख़याल कौन रोकेगा जा के घर बैठे जो कहा है वही ना कर बैठे हर घड़ी था जो इज़्तिराब फुज़ूँ चिपका रोता था बैठा में महज़ूँ कि उठा एक सिम्त से वो गुल होश जिस से कि उड़ गए बिलकुल शोला इक आग का भड़कने लगा मिस्ल बिस्मिल के दिल तड़पने लगा यूं तो गुज़रे थे दोपहर रोते और हाथों के उड़ गए तोते हो गया दिल को इस तरह का हिरास आए सौ सौ तरीक़ के वस्वास कहा इक दोस्त से कि तुम जा कर जल्द इस शोर-ओ-ग़ुल की लाओ ख़बर रोते हैं हम से बद-नसीब कोई मर गया उन का क्या हबीब कोई यूँ जो अपनी ये जान खोते हैं कौन हैं किस लिए ये रोते हैं क्या हुआ इन पे सदमा-ए-जां-काह ये जो करते हैं ऐसे नाला-ओ-आह दौड़े आख़िर उधर मिरे अहबाब लेकर आए ख़बर वहाँ से शताब किया इस तरह आ के मुझ से बयाँ कि यहाँ से है इक क़रीब मकाँ बाग़ के पास जो बना है घर वाँ फ़रोकश है एक सौदागर यूँ तो इक शोर राह भर में है पर ये आफ़त उन्हीं के घर में है साफ़ खुलता नहीं है ये असरार मर गया कोई या कि है बीमार पर ये होता है अक़्ल से इदराक कि नहीं बेसबब उड़ाते ख़ाक कुछ ना कुछ तो है ऐसी ही रूदाद कि ये है शोर-ए-नाला-ओ-फ़र्याद नहीं बरपा ये बेसबब मातम है निकलता किसी जवान का दम हर बशर हो रहा है दीवाना कोई मरता है साहिब-ए-ख़ाना नहीं क़ाबू में है किसी का दिल पीटते सर हैं साहिबान-ए-महल नहीं देता सुनाई कुछ बिलकुल है फ़क़त एक हाय हाय का गुल थमता इक दम