जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर By वक़्त, Qita << इक ज़रा रसमसा के सोते में गरमी >> जाम उठा और फ़ज़ा को रक़्साँ कर ख़ुद-ब-ख़ुद कोई रुत नहीं फिरती वक़्त की तंग-दिल सुराही से मय की इक बूँद भी नहीं गिरती Share on: