मिरी शिकस्त पे इक परतव-ए-जमाल तो है By Qita << रात की पुर-सुकूत ज़ुल्मत ... वो कसी दिन न आ सके पर उसे >> मिरी शिकस्त पे इक परतव-ए-जमाल तो है मैं क्यूँ न अज़्मत-ए-उफ़्तादगी पे इतराऊँ तुझी से है मिरी आसूदा-ख़ातिरी का भरम तिरे ग़मों का ख़ज़ाना छिने तो लुट जाऊँ Share on: