आशिक़ ही फ़क़त नहीं है जंजालों में Admin ताहिर फ़राज़ की शायरी, Rubaai << अपने आक़ा की हर घड़ी याद ... ज़ुहहाद का ग़फ़लत से है औ... >> आशिक़ ही फ़क़त नहीं है जंजालों में हर ताइर-ए-दिल फँसा है इन जालों में बाहर इस सिलसिले से है कौन 'मुनीर' बूढ़े भी हैं उस जवान के बालों में Share on: