इंक़लाब-ए-रोज़गार By Rubaai << जब दस्त-ए-ख़िज़ाँ से बिखर... हर सुब्ह के चेहरे को निखा... >> बस बस के हज़ारों घर उजड़ जाते हैं गड़ गड़ के अलम लाखों उखड़ जाते हैं आज इस की है नौबत तो कल उस की बारी बन बन के यूँही खेल बिगड़ जाते हैं Share on: