अब इस का चारा ही क्या कि अपनी तलब ही ला-इंतिहा थी वर्ना By Sher << अब जो रूठे तो जाँ पे बनती... उजालों को ढूँडो सहर को पु... >> अब इस का चारा ही क्या कि अपनी तलब ही ला-इंतिहा थी वर्ना वो आँख जब भी उठी है दामान-ए-दर्द फूलों से भर गई है Share on: