इक सिलसिला हवस का है इंसाँ की ज़िंदगी By Sher << कैसे कैसे मैं भूला हूँ वही लफ़्ज़ हैं दुर्र-ए-बे... >> इक सिलसिला हवस का है इंसाँ की ज़िंदगी इस एक मुश्त-ए-ख़ाक को ग़म दो-जहाँ के हैं Share on: