ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत By Sher << लहू रुलाते हैं और फिर भी ... अब जिस तरफ़ से चाहे गुज़र... >> ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ Share on: