ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं By Sher << ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिल... दुनिया में हैं काम बहुत >> ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए Share on: