हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ By Sher << शिफ़ा क्या हो नहीं सकती ह... जाँ-ब-लब लम्हा-ए-तस्कीं म... >> हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ गर चंद क़दम चलिए तो क्या ख़ूब ग़ज़ल हो Share on: