हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी By Sher << कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र न... लो आज हम ने तोड़ दिया रिश... >> हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी सख़्ती-ए-दीवार-ओ-दर है झेलता जाता हूँ मैं Share on: