इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई By Sher << कहीं ऐसा न हो मर जाऊँ मैं... क़तरा ठीक है दरिया होने म... >> इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई जब जिस्म ही सारा जलता हो फिर दामन-ए-दिल को बचाएँ क्या Share on: