ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का By Sher << शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी ... मर गया ख़ास तौर पर मैं भी >> ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का आब-जू में रहता है और नज़र नहीं आता Share on: