कुछ तो है बात जो आती है क़ज़ा रुक रुक के By Sher << जी न सकूँ मैं जिस के बग़ै... दुख-भरा शहर का मंज़र कभी ... >> कुछ तो है बात जो आती है क़ज़ा रुक रुक के ज़िंदगी क़र्ज़ है क़िस्तों में अदा होती है Share on: