कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का By Sher << वो भला पेच निकालेंगे मिरी... या रब हमें तो ख़्वाब में ... >> कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का शब-ए-तारीक है और मिलती नहीं राह कहीं Share on: