मिरे ही हिस्से में अज़्मत सलीब-ओ-दार की थी By Sher << फिर कोई ख़ंजर चलाए फिर को... मजबूर का शिकवा क्या मजबूर... >> मिरे ही हिस्से में अज़्मत सलीब-ओ-दार की थी मुझे ही अहद का अपने रसूल होना था Share on: