मिरे हर ज़ख़्म पर इक दास्ताँ थी उस के ज़ुल्मों की By Sher << छलकी हर मौज-ए-बदन से हुस्... फ़िक्र-ए-मआल थी न ग़म-ए-र... >> मिरे हर ज़ख़्म पर इक दास्ताँ थी उस के ज़ुल्मों की मिरे ख़ूँ-बार दिल पर उस के हाथों का निशाँ भी था Share on: