बर्फ़ का पानी

“ये आपकी अक़्ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं?”
“मेरी अक़्ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुमसे शादी की, भला इसकी ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब करा ली।”

“जी हाँ आज़ादी तो आपकी यक़ीनन सल्ब हुई इसलिए कि अगर आप अब खुले बंदों अय्याशी नहीं कर सकते, शादी से पहले आप को कौन पूछने वाला था, जिधर को मुँह उठाया चल दिए झक मारते रहे।”
“देखो मैं तुम से कई मर्तबा कह चुका हूँ कि मुझ से जो कुछ कहना हो चंद लफ़्ज़ों में साफ़ साफ़ कह दिया करो, मुझे ये झिक झिक पसंद नहीं। जिस तरह मैं साफ़ गो हूँ उसी तरह मैं चाहता हूँ कि दूसरे भी साफ़ गो हों।”

“आपकी साफगोई तो ज़र्ब-उल-मिस्ल बन चुकी है।”
“तुम्हारी ये तंज़ ख़ुदा मालूम तुमसे कब जुदा होगी, इतनी भोंडी होती है कि तबीयत ख़राब हो जाती है।”

“आपकी तबीयत तो शगुफ़्ता गुफ़्तुगू सुन कर भी ख़राब हो जाती है, अब इसका क्या ईलाज है, असल मैं आपको मेरी कोई चीज़ भी पसंद नहीं। हर वक़्त मुझ में कीड़े डालना आपका शुगल होगया है अगर मैं आपके दिल से उतर गई हूँ तो साफ़ साफ़ कह क्यों नहीं देते, बड़े साफ़गो बने फिरते हैं आप, ऐसा रियाकार शायद ही दुनिया के तख़्ते पर हो।”
“अब मैं रियाकार भी हो गया, क्या रियाकारी की है मैंने तुम से? यही कि तुम्हारी नौकरों की तरह ख़िदमत करता हूँ।”

“बड़ी ख़िदमत की है आपने मेरी...”
“सर पर क़ुरआन उठाओ और बताओ कि जबसे हमारी शादी हुई है कभी तुमने मेरा सर तक सहलाया है, मैं बुख़ार में फुंकता रहा हूँ कभी तुम ने मेरी तीमारदारी की। पिछले दिनों मेरे सर में शिद्दत का दर्द था, मैंने रात को तुम्हें आवाज़ दी और कहा मुझे बाम दे दो मगर तुमने करवट बदल कर कहा, मेरी नींद न ख़राब कीजिए, आप उठ कर ढूंढ लीजिए, कहाँ है। और याद है जब तुम्हें निमोनिया होगया था तो मैंने सात रातें जाग कर काटी थीं दिन और रात मुझे पल भर का चैन नसीब नहीं था।”

“दिन भर सोए रहते थे, आपको मेरी बीमारी का एक बहाना मिल गया था। सात छुट्टियां लीं और दफ़्तर के काम से नजात पा कर आराम करते रहे हैं। आपके सारे हीले-बहाने जानती हूँ, मेरा ईलाज आपने किया था या डाक्टरों ने...”
“उन डाक्टरों को तुम बुला कर लाई थीं क्या। और दवाएं भी क्या तुमने ख़ुद जा कर ख़रीदी थीं और जो रुपया ख़र्च हुआ क्या फ़रिश्तों ने ऊपर से फेंक दिया था। कितने सफ़ेद झूट बोलती हो कि मैं दिन को सोया रहता था। क़सम ख़ुदा की जो एक लम्हे के लिए भी उन दिनों सोया हूँ, तुम बीमार हो जाओ तो घर की ईंटें भी जागती रहती हैं। तुम उस वक़्त किसको सोने देती हो। आह-ओ-पुकार का तांता बंधा रहता है जैसे किसी पर बहुत बड़ा ज़ुल्म ढाया जा रहा है।”

“जनाब बीमारियां ज़ुल्म नहीं होतीं तो क्या होती हैं, जो मैंने बर्दाश्त किया है वो आप कभी न कर सकते और न कभी कर सकते हैं। मैंने कितनी बीमारियां ख़ंदा पेशानी से सही हैं। आपको तो ख़ैर इस वक़्त कुछ याद नहीं आएगा। इसलिए कि आप मेरे दुश्मन बने बैठे हैं।”
“दिन ही को मैं तुम्हारा दुश्मन बन जाता हूँ, रात को तो तुम ने हमेशा बेहतरीन दोस्त समझा है।”

“शर्म नहीं आती आपको ऐसी बातें करते, रात और दिन में फ़र्क़ ही क्या है।”
“अल्लाह ही बेहतर जानता है, कह कर आप ने मेरा गला घूँट दिया कि मैं आपसे कुछ और न कह सकूं।”

“लो भई, अब मैं इत्मिनान से यहां बैठ जाता हूँ, आराम जाये जहन्नम में। तुम जो कुछ कहना चाहती हो एक ही सांस में कहती चली जाओ...”
“मेरी सांस इतनी लंबी नहीं...”

“औरतों को सांस के मुतअल्लिक़ तो यही सुना था कि बहुत लंबी होती है और ज़बान भी माशाअल्लाह काफ़ी दराज़...”
“आप ये महीन-महीन चुटकियां न लीजिए, मैंने अगर कुछ कह दिया तो आपके तन-बदन में आग लग जाएगी।”

“इस तन-बदन में कई बार आग लग चुकी है, चलो एक फ़ायर करो और क़िस्सा तमाम कर दो।”
“क़िस्सा तो आप मेरा तमाम करके रहेंगे।”

“किसलिए। मुझे तुमसे क्या बुग़्ज़ है, अल्लाह के वास्ते का बैर तो नहीं मुझसे है।”
“मुहब्बत और इताअत को आप बैर समझते हैं, इसलिए तो मैंने कहा था कि आपकी अक़्ल पर पत्थर पड़ गए हैं।”

“मेरी अक़्ल पर पत्थर पड़ें या कोह-ए-हिमालया का पहाड़ लेकिन तुम्हारी मुहब्बत और इताअत मेरी समझ में नहीं आई, इताअत को फ़िलहाल छोड़ो... लेकिन मैं ये पूछता हूँ कि अब तक तुम मुहब्बत भरी गुफ़्तुगू कर रही थीं।”
“तो मैंने आपको कौन सी गाली दी है?”

“गाली देने में तुमने कोई कसर तो उठा नहीं रखी, रियाकार तक तो बता दिया मुझको, इससे बदतर गाली और क्या हो सकती है।”
“ये लो खुला गिरेबान है, मैंने अपना सारा सर इसमें डाल दिया अब तुम बताओ। सिर्फ़ तुम्हारी शक्ल नज़र आती है। ख़ौफ़नाक, बड़ी हैबतनाक।”

“तो कोई दूसरी कर लीजिए जो ख़ुश शक्ल हो।”
“एक ही करके मैंने भर पाया है। ख़ुदा न करे ज़िंदगी में दूसरी आए।”

“आप मुझसे इस क़दर तंग क्यों आ गए हैं।”
“मैं क़तअन तंग नहीं आया... बस तुम दिल जलाती रहती हो।”

“मेरा दिल तो जल कर कोयला हो चुका है, सच पुछिए तो मैं चाहती हूँ कि कुछ खा के मर जाऊं... मैं जा रही हूँ।”
“कहाँ?”

“मैंने एक मन बर्फ़ मंगवाई है उसे चार बाल्टियों में पानी के अंदर डाल रखा है। उस ठंडे पानी से नहाऊँगी और पंखे के नीचे बैठ जाऊंगी। एक मर्तबा मुझे पहले निमोनिया तो हो ही चुका है, अब होगा तो फेफड़े यक़ीनन जवाब दे जाऐंगे।”
“ख़ुदा हाफ़िज़।”

“ख़ुदा हाफ़िज़... ख़ुदकुशी का ये तरीक़ा तुमने बहुत अच्छा ढूँडा है जो आज तक किसी को सूझा नहीं होगा...”
“आपके पहलू में तो दिल ही नहीं।”

“जो कुछ भी है बहर हाल मौजूद है और धड़कता भी है। जाओ यख़ आलूद पानी से नहा कर पंखे के नीचे बैठ जाओ।”
“जा रही हूँ। आपसे चंद बातें करनी हैं।”

“ज़रूर करो...”
“मेरे बच्चों का आप ज़रूर ख़याल रखिएगा...”

“क्या वो मेरे बच्चे नहीं हैं।”
“हैं... लेकिन शायद मेरी वजह से अच्छा सुलूक न करो।”

“नहीं नहीं... तुम कोई फ़िक्र न करो... मैं उन्हें बोर्डिंग में दाख़िल कराने ले जाता हूँ... ख़ुदा-हाफ़िज़।”
“ख़ुदा तुम्हारा हाफ़िज़ हो, मुझे तो फ़िलहाल ख़ुदकुशी नहीं करनी, लेकिन सुनो निमोनिया हो तो डाक्टर को बुला लाऊं।”

“हरगिज़ नहीं... मैं मरना चाहती हूँ।”
“तो मैं नहीं बुलाऊंगा। लेकिन निमोनिया के मरीज़ फ़ौरन नहीं मरते पाँच-छः रोज़ तो लगाते हैं।”

“आप इस अर्से तक इंतिज़ार कीजिएगा।”
“बहुत बेहतर।”

“मेरी कही-सुनी माफ़ कर दीजिएगा।”
“वो तो मैंने उसी रोज़ कर दी थी जब तुमसे निकाह हुआ था।”

“मैं आपसे सिर्फ़ इतना कहना चाहती हूँ कि आपकी अक़्ल पर जो पत्थर पड़ गए हैं, उन्हें दूर कर दीजिएगा।”
“मैं वादा करता हूँ अगर तुम कहो तो क़सम उठाने के लिए तैयार हूँ। अच्छा तो मैं चला बच्चे बाहर खेल रहे हैं उन्हें होस्टल ले जाता हूँ, वापस दो-तीन घंटे में आ जाऊंगा। अगर इस दौरान में तुम मर गईं तो बहुत अच्छा तजहीज़-ओ-तकफ़ीन का सामान कर दूँगा, मुझे अभी कल ही तनख़्वाह मिली है।”

“जाईए मैं भी चली।”
“अलविदा।”

“अलविदा।”
“कभी कभी मुझ नाबकार को याद कर लिया कीजिए।”

“ज़रूर ज़रूर तुम नाबकार क्यों कहती हो ख़ुद को।”
“मैं किस काम की हूँ।”

“ख़ैर छोड़ो। बहस इस पर अलग शुरू हो जाएगी और तुम्हारी ख़रीदी हुई एक मन बर्फ़ पिघल कर गर्म पानी में तबदील हो जाएगी।”
“ये तो आप ने दुरुस्त कहा। अच्छा... मैं चली।”

“मैं आ गया हूँ बच्चों को बोर्डिंग हाउस में दाख़िल कराके, तुम ग़ुसलख़ाने में अभी तक क्या कर रही हो।”
“कुछ नहीं सोच रही थी।”

“क्या सोच रही थीं?”
“मैंने वो ख़त दुबारा पढ़ा।”

“कौन सा ख़त?”
“जो आपकी मेज़ की दराज़ में पड़ा था किसी लड़की की तरफ़ से था। अब मैंने जो ग़ौर से देखा तो मालूम हुआ कि आपके नाम नहीं बल्कि उस अख़बार के एडिटर के नाम है जहां आप काम करते हैं। मुझे अफ़सोस है मैंने आप पर शक किया।”

“तुम हमेशा शक किया करती हो... अब तो मेरी अक़्ल के पत्थर हट गए। वो लड़की नहीं कोई मर्द है इसीलिए मैं तफ़तीश की ग़रज़ से उसे अपने साथ ले आया था, ख़ैर छोड़ो ठंडा पानी तो पिलाओ, एक मन बर्फ़ तुमने मंगवाई थी।”
“उसका सब पानी मैंने ग़ुस्लख़ाने में डाल दिया। बड़ा ठंडा हो गया है, आप भी यहां आ जाईए।”




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