बाय बाय

नाम उसका फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे। बानिहाल के दर्रे के उस तरफ़ उसके बाप की पनचक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअ’म्मर आदमी था।
दिन भर वो उस पनचक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थी जिसमें ये पनचक्की लगाई गई थी। फातो के बाप को दो-तीन रुपये रोज़ाना मिल जाते, जो उसके लिए काफ़ी थे। फातो अलबत्ता उनको नाकाफ़ी समझती थी इसलिए कि उसको बनाव सिंघार का शौक़ था। वो चाहती थी कि अमीरों की तरह ज़िंदगी बसर करे।

काम काज कुछ नहीं करती थी, बस कभी कभी अपने बूढ़े बाप का हाथ बटा देती थी। उसको आटे से नफ़रत थी। इसलिए कि वो उड़ उड़ कर उसकी नाक में घुस जाता था। वो बहुत झुँझलाती और बाहर निकल कर खुली हवा में घूमना शुरू कर देती या चनाब के किनारे जा कर अपना मुँह-हाथ धोती और अ’जीब क़िस्म की ठंडक महसूस करती।
उसको चनाब से प्यार था। उसने अपनी सहेलियों से सुन रखा था कि ये दरिया इश्क़ का दरिया है जहां सोहनी-महींवाल, हीर-रांझा का इशक़ मशहूर हुआ।

बहुत ख़ूबसूरत थी और बड़ी मज़बूत जिस्म की जवान लड़की। एक पनचक्की वाले की बेटी शानदार लिबास तो पहन नहीं सकती, मैली शलवार ऊपर फिरन नुमा कुर्ता... दुपट्टा नदारद।
नज़ीर सचेत गढ़ से लेकर बानिहाल तक और भद्रवा से किश्तवाड़ तक ख़ूब घूमा फिरा था। उसने जब पहली बार फातो को देखा तो उसे कोई हैरत न हुई जब उस ने देखा कि फातो के कुर्ते के निचले तीन बटन नहीं हैं और उसकी जवान छातियां बाहर झांक रही हैं।

नज़ीर ने इस इलाक़े में एक ख़ास बात नोट की थी कि वहां की औरतें ऐसी क़मीसें या कुर्ते पहनती हैं जिनके निचले बटन ग़ायब होते हैं उसकी समझ में नहीं आता था कि आया ये दानिस्ता हटा दिए जाते हैं या वहां के धोबी ही ऐसे हैं जो इनको उतार लेते हैं।
नज़ीर ने जब पहली बार सैर करते हुए फातो को अपनी तीन कम बटनों वाली क़मीस में देखा तो उस पर फ़रेफ़्ता हो गया। वो हसीन थी नाक नक़्शा बहुत अच्छा था, ता’ज्जुब है कि वो मैली होने के बावजूद चमकती थी। उसका लिबास बहुत गंदा था मगर नज़ीर को ऐसा महसूस हुआ कि यही उस की ख़ूबसूरती को निखार रहा है।

नज़ीर वहां एक आवारागर्द की हैसियत रखता था, वो सिर्फ़ कश्मीर के देहात देखने और उनकी सियाहत करने आया था और क़रीब क़रीब तीन महीने से इधर-उधर घूम फिर रहा था। उसने किश्तवाड़ देखा भद्रवा देखा, कुद और बटोत में कई महीने गुज़ारे मगर उसे फातो ऐसा हुस्न कहीं नज़र नहीं आया था।
बानिहाल में पनचक्की के बाहर जब उसने फातो को तीन बटनों से बेनयाज़ कुर्ते में देखा तो उसके जी में आया कि अपनी क़मीस के सारे बटन अलाहिदा कर दे और उसकी क़मीस और फातो का कुर्ता आपस में ख़लत-मलत हो जाएं। कुछ इस तरह कि दोनों की समझ में कुछ भी न आए।

उस से मिलना नज़ीर के लिए मुश्किल नहीं था, इसलिए कि उसका बाप दिन भर गंदुम, मकई और ज्वार पीसने में मशग़ूल रहता था और वो थी हँसमुख, हर आदमी से खुल कर बात करने वाली। बहुत जल्द घुल्लू मिट्ठू हो जाती थी, चुनांचे नज़ीर को उसकी क़ुरबत हासिल करने में कोई दिक्क़त महसूस न हुई। चंद ही दिनों में उसने उससे राह-ओ-रस्म पैदा कर ली।
ये राह-ओ-रस्म थोड़ी देर में मुहब्बत में तबदील हो गई। पास ही चनाब जिसे इश्क़ का दरिया कहते हैं और जिसके पानी से फातो के बाप की पनचक्की चलती थी, इस दरिया के किनारे बैठ कर नज़ीर उसको अपना दिल निकाल कर दिखाता था जिसमें सिवाए मुहब्बत के और कुछ भी नहीं था। फातो सुनती, इसलिए कि वो उसके जज़्बात का मज़ाक़ उड़ाना चाहती थी... असल में वो थी ही हंसोड़। सारी ज़िंदगी वो कभी रोई न थी, उसके माँ-बाप बड़े फ़ख़्र से कहा करते थे कि हमारी बच्ची बचपन में कभी नहीं रोई।

नज़ीर और फातो में मुहब्बत की पेंगें बढ़ती गईं। नज़ीर फातो को देखता तो उसे यूं महसूस होता कि उसने अपनी रूह का अ’क्स आईने में देख लिया है और फातो तो उसकी गरवीदा थी इसलिए कि वो उसकी बड़ी ख़ातिरदारी करता था। उसको ये चीज़... जिसे मुहब्बत कहते हैं, पहले कभी नसीब नहीं हुई थी इसलिए वो बहुत ख़ुश थी।
बानिहाल में तो कोई अख़बार मिलता नहीं था इसलिए नज़ीर को बटोत जाना पड़ता था। वहां वो देर तक डाकख़ाना के अंदर बैठा रहता। डाक आती तो अख़बार पढ़ के पनचक्की पर चला आता। क़रीब क़रीब छः मील का फ़ासला था मगर नज़ीर इसका कोई ख़याल न करता। ये समझता कि चलो वरज़िश ही हो गई है।

जब वो पनचक्की के पास पहुंचता तो फातो किसी न किसी बहाने से बाहर निकल आती और दोनों चनाब के पास पहुंच जाते और पत्थरों पर बैठ जाते।
फातो उससे कहती, “बख़ैर... आज की ख़बरें सुनाओ।”

उसको ख़बरें सुनने का ख़ब्त था। नज़ीर अख़बार खोलता और उसको ख़बरें सुनाना शुरू कर देता। उन दिनों फ़िर्क़ावाराना फ़सादात थे। अमृतसर से ये क़िस्सा शुरू हुआ था जहां सिख्खों ने मुसलमानों के कई मुहल्ले जला कर राख कर दिए थे। वो ये सब ख़बरें उसको सुनाता, वो सिख्खों को अपनी गंवार ज़बान में बुरा-भला कहती, नज़ीर ख़ामोश रहता।
एक दिन अचानक ये ख़बर आई कि पाकिस्तान क़ायम हो गया है और हिंदुस्तान अलाहिदा हो गया है। नज़ीर को तमाम वाक़ियात का इल्म था मगर जब उसने पढ़ा कि हिंदुस्तान ने रियासत मांगरोल और मानावावार पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा कर लिया है तो वो बहुत परेशान हुआ मगर उसने अपनी इस परेशानी को फातो पर ज़ाहिर न होने दिया।

दोनों का इश्क़ अब बहुत उस्तवार हो चुका था। इसका इल्म फातो के बाप को भी हो गया था। वो ख़ुश था कि मेरी लड़की एक मुअ’ज़्ज़ज़ और शरीफ़ घराने में जाएगी मगर वो चाहता था कि उसकी बेटी स्यालकोट न जाये जहां का नज़ीर रहने वाला था। उसकी ये ख़्वाहिश थी कि नज़ीर उसके पास रहे।
दौलतमंद का बेटा है। पनचक्की के पास काफ़ी ज़मीन पड़ी है, उस पर एक छोटा सा मकान बनवा ले और दोनों मियां-बीवी उसमें रहें। जब चाहा पलक झपकते श्रीनगर पहुंच गए, वहां एक दो महीने रहे फिर वापस आ गए। कभी कभार स्यालकोट भी चले गए कि वो भी इतनी दूर नहीं।

फातो के बाप से नज़ीर ने मुफ़स्सल गुफ़्तुगू की। वो उससे बहुत मुतअस्सिर हुआ और उसने अपनी रज़ामंदी का इज़हार कर दिया। नज़ीर और फातो बहुत ख़ुश हुए, उस रोज़ पहली मर्तबा नज़ीर ने उस के होंटों को चूमा और ख़ुद अपने हाथ से उसके कुर्ते में तीन बटन लगाए।
दूसरे दिन नज़ीर ने अपने वालिदैन को लिख दिया कि वो शादी कर रहा है। कश्मीर की एक देहाती लड़की है जिससे उसकी मुहब्बत हो गई है। एक माह तक ख़त-ओ-किताबत होती रही। आदमी रोशन ख़्याल थे, इसलिए वो मान गए, हालाँकि वो अपने बेटे की शादी अपने ख़ानदान में करना चाहते थे।

उसके वालिद ने जो आख़िरी ख़त लिखा उसमें इस ख़्वाहिश का इज़हार किया गया था कि नज़ीर फ़ातिमा का फ़ोटो भेजे ताकि वो अपने रिश्तेदारों को दिखाएंगे, इसलिए कि वो उसके हुस्न की बड़ी तारीफ़ें कर चुका था।
लेकिन बानिहाल जैसे दूर उफ़्तादा इलाक़े में वो फातो की तस्वीर कैसे हासिल करता? उसके पास कोई कैमरा नहीं था, न वहां कोई फ़ोटोग्राफ़र, बटोत और कुद में भी इनका नाम-ओ-निशान नहीं था।

इत्तफ़ाक़ से एक दिन श्रीनगर से मोटर आई। नज़ीर सड़क पर खड़ा था, उसने देखा कि उसका दोस्त रनबीर सिंह ड्राईव कर रहा है। उसने बलंद आवाज़ में कहा, “रनबीर यार... ठहरो।”
मोटर ठहर गई, दोनों दोस्त एक दूसरे को गले मिले। नज़ीर ने देखा कि उसकी मोटर में कैमरा पड़ा है रोली फ्लेक्स। नज़ीर ने उससे कुछ देर बातें कीं फिर पूछा, “तुम्हारे कैमरे में फ़िल्म है?”

रणबीर ने हंस कर कहा, “ख़ाली कैमरा और ख़ाली बंदूक़ किस काम की होती है, मेरे कैमरे में सोलह एक्सपोज़र मौजूद हैं।”
नज़ीर ने फ़ौरन फातो को ठहराया और अपने दोस्त रनबीर से कहा, “यार इसके तीन चार अच्छे पोज़ ले लो और तुम मेरा ख़याल है स्यालकोट जा रहे हो, वहां से डेवलप और प्रिंट करा के मुझे दो दो कापियां बटोत के डाकखाने की मार्फ़त भिजवा देना”

रणबीर ने बड़े ग़ौर और दिलचस्पी से फातो को देखा, उसकी मोटर में डोगरा फ़ौज के तीन-चार सिपाही थे, थ्री नाट थ्री बंदूक़ें लिये। रणबीर जो मुक़ाम फ़ोटो लेने के लिए पसंद करता, ये मुसल्लह फ़ौजी उसके पीछे पीछे होते। नज़ीर उसके हमराह होना चाहता तो ये डोगरे उसे रोक देते। कश्मीर में हुल्लड़ मच रहा था। इसके मुतअ’ल्लिक़ नज़ीर को अच्छी तरह मालूम था कि हिंदुस्तान उस पर क़ाबिज़ होना चाहता है मगर पाकिस्तानी इसकी मुदाफ़अ’त कर रहे हैं। फ़ोटो लेकर जब नज़ीर का दोस्त रनबीर अपनी मोटर के पास आया तो उसने नज़ीर की तरफ़ आँख उठा कर भी न देखा। फातो डोगरे फ़ौजियों की गिरफ़्त में थी। उन्होंने ज़बरदस्ती मोटर में डाला वो चीख़ी चिल्लाई। नज़ीर को अपनी मदद के लिए पुकारा। मगर वो आ’जिज़ था। डोगरे फ़ौजी संगीनें ताने खड़े थे।
जब मोटर स्टार्ट हुई तो नज़ीर ने अपने दोस्त रनबीर से बड़े आ’जिज़ाना लहजे में कहा, “यार रनबीर! ये क्या हो रहा है?”

रनबीर सिंह ने जो कि मोटर चला रहा था, नज़ीर के पास से गुज़रते हुए हाथ हिला कर सिर्फ़ इतना कहा,“बाय बाय।”



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