बुड्ढ़ा खूसट

ये जंग-ए-अज़ीम के ख़ातमे के बाद की बात है जब मेरा अज़ीज़ तरीन दोस्त लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्मद सलीम शेख़ (अब) ईरान-इराक़ और दूसरे महाज़ों से होता हुआ बम्बई पहुंचा। उसको अच्छी तरह मालूम था, मेरा फ़्लैट कहाँ है।
हममें गाहे-गाहे ख़त-ओ-किताबत भी होती रहती थी लेकिन उससे कुछ मज़ा नहीं आता था, इसलिए कि हर ख़त सेंसर होता है। इधर से जाये या उधर से आए अजीब मुसीबत थी।

मगर अब उन मुसीबतों का ज़िक्र क्या करना। उसकी बम्बई के बी.बी ऐंड सी.आई.ए. के ट्रेसेंस पर पोस्टिंग हुई। उस वक़्त वो सिर्फ़ लेफ्टिनेंट था। हम दोनों वसीअ-ओ-अरीज़ रेलवे स्टेशन के बूफ़े में बैठ गए और दोपहर के बारह एक बजे तक ठंडी ठंडी बीयर पीते रहे। उसने इस दौरान में मुझे कई कहानियां सुनाईं जिनमें से एक ख़ासतौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र है।
उसने ईरान, इराक़ और ख़ुदा मालूम किन किन मुल्कों के अपने मुआशक़े सुनाए, मैं सुनता रहा, पेशेवर आशिक़ तो कॉलिज के ज़माने से था। उसकी दास्तानें अगर मैं सुनाऊं तो एक ज़ख़ीम किताब बन जाये। बहरहाल आपको इतना बताना ज़रूरी है कि उसे लड़कियों को अपनी तरफ़ मुतवज्जा करने का गुर मालूम था।

गोर्डन कॉलिज रावलपिंडी में वो राजा इंद्र था। उसके दरबार में वहां की तमाम परियां मुजरा अर्ज़ करती थीं... ख़ूबसूरत था, काफ़ी ख़ूबसूरत मगर उसका हुस्न मर्दाना हुस्न था। पतली नोकीली नाक जो यक़ीनन अपना काम कर जाती होगी, छोटी-छोटी गहरे भोसले रंग की आँखें जो उसके चेहरे पर सज गई थीं बड़ी होतीं तो शायद उसके चेहरे की सारी कशिश मारी जाती।
वो खलंडरा था जिस तरह लार्ड बायरन सिर्फ़ कुछ अर्से के लिए किसी से दिलचस्पी लेता था और उसे छोड़ कर आगे बढ़ जाता, जैसे वो उसकी ज़िंदगी में कभी आई ही नहीं, उसी तरह का सुलूक वो अपने जाल में फंसी हुई लड़कियों से करता।

मुझे उसका ये रवय्या पसंद नहीं था कि ये मेरी नज़र में बहुत ज़ालिमाना है, मगर वो बेपर्वा था, कहा करता, "उल्लु के पट्ठे... ग़ालिब पढ़ो वो क्या कहता... उसे मतन याद कभी नहीं रहता था, मगर उसका मफ़हूम अपने अल्फ़ाज़ में अदा कर दिया करता... वो कहता है, वही शाख़-ए-तूबा और जन्नत में वही एक हूर... वल्लाह ज़िंदगी अजीरन हो जाएगी... शहद की मक्खी बनो कली-कली का रस चूसो... मक्खी लिखी मिस्री की न बनो जो वहीं चिपक कर रह जाये।”
फिर उसने इक़बाल के एक शे'र का हवाला अपना बीयर का गिलास ख़ाली करते हुए दिया, "क्या कहा है इक़बाल ने:

“तू ही नादां चंद कलियों पर क़नाअत कर गया
वर्ना गुलशन में इलाज-ए-तंगी दामां भी था”

“साबित हुआ कि तुम न सिर्फ़ नादां हो बल्कि दर्जा-ए-अव़्वल बनास्पती घी की तरह दर्जा-ए-अव़्वल चुग़द भी हो... अब हटाओ इस बकवास को।"
मैं ने ये बकवास इस तरह हटाई जिस तरह बैरे ने मेरी बीयर की ख़ाली बोतल।

पेशतर इसके कि मैं असल कहानी की तरफ़ आऊं, मैं आपको शेख़ सलीम से मुतअल्लिक़ एक बहुत दिलचस्प वाक़िया सुनाता हूँ।
हम गोर्डन कॉलिज में बी.ए. फाईनल में पढ़ते थे कि क्रिस्मस की छुट्टियों में एक रुक्मिणी की शादी की उड़ती उड़ती अफ़्वाह हमें मिली। ये रुक्मिणी हमारी ही किसी क्लास में पढ़ती थी और कुछ अर्सा पहले बुरी तरह शेख़ सलीम पर फ़रेफ़्ता। शक्ल-सूरत उसकी वाजिबी थी मगर मेरा दोस्त शहद की मक्खी था, चुनांचे दो महीने उन का मुआशक़ा चलता रहा, इसके बाद वो उससे बिल्कुल अजनबी हो गया।

जब उसको बताया गया कि रुक्मिणी जो तुम्हारी महबूबा थी और जिसकी ख़ातिर तुमने इतने झगड़े अपनी क्लास के तालिब इल्मों से किए “वो अगर दूसरी जगह ब्याही जाये तो डूब मरो... लेकिन तुम तैरना जानते हो... डूबने का काम हम अपने ज़िम्मे लेते हैं।”
शेख़ सलीम को इस क़िस्म की बातें उमूमन खा जाती थीं। उसने अपनी महीन-महीन मुंछों को ताव देने की कोशिश की और कहा, "अच्छा, तुम देख लेना क्या होगा।”

उसकी पार्टी के एक क़वी हैकल लड़के ने पूछा, “क्या होगा?”
शेख़ सलीम ने उसको झाग की तरह बिठा दिया, “होगा तुम्हारी माँ का सर... जब शादी का दिन आएगा, देख लेना... चलो आओ मेरे साथ मुझे तुम से चंद बातें करनी हैं।”

शादी का दिन आ गया। बारात जब दूल्हा वालों के घर के पास पहुंची तो कोई शख़्स सर पर सहरा बांधे बड़े अच्छे घोड़े पर सवार अंदर दाख़िल हो गया। दूल्हा मोटर में जिस पर फूलों का जाल बना हुआ था।
घोड़ा सवार सहरे से लदा-फंदा शामियाने के पास था। घोड़ा ख़ुद दूल्हा बना हुआ था। दुल्हन का बाप और उसके रिश्तेदार आगे बढ़े। घोड़े का मालिक भागा भागा आ गया था।

इस सहरे से लदे हुए आदमी को उस जगह बिठा दिया गया, जहां दुल्हन को भी साथ बैठना था। बीच में हवन कुंड था जिसमें छोटी छोटी लकड़ियों के टुकड़े जल रहे थे। उन्होंने नंगे बदन उठ कर दुल्हन को अशीर्वाद दी और दुल्हन से कहा, “सरदार जी दुल्हन को जल्द बुलाईए मुहूर्त हो गया है।”
फ़ौरन रुक्मिणी पहुंच गई और कुछ अर्से के लिए दूल्हे के साथ बिठा दी गई। पण्डित जी ने कुछ पढ़ा जिसका मतलब मेरी समझ में न आया... लेकिन एक दम शादी के इस जलसे में एक हड़बोंग सी मच गई जब कार से एक दूल्हा निकल कर सामने आ गया और बुलंद आवाज़ में तमाम हाज़िरीन को मुख़ातिब किया, “मेरे साथ धोका हुआ है... मैं दावा दायर करूंगा।”

वो दूल्हा जो हाथ पकड़ कर दुल्हन को उठा रहा था बड़ी ख़ौफ़नाक आवाज़ में चिल्लाया, “अबे, जा बे दावे दायर करने के कुछ लगते।”
ये कह कर उसने अपने फूलों का घूंघट उठा दिया और उन हज़ार के क़रीब आदमियों से जो शामियाने के नीचे थे कुछ कहना चाहा... मगर क़हक़हों का एक समुंदर मौजें मारने लगा... दूसरी पार्टी के आदमी भी उन क़हक़हों में शरीक हुए क्योंकि जब ये फूलों का पर्दा अलाहिदा हुआ तो उन्होंने देखा कि शेख़ सलीम है।

रुक्मिणी बड़ी ख़फ़ीफ़ हुई, मगर शेख़ सलीम ने बड़ी जुर्रत से काम ले कर उससे बुलंद आवाज़ में पूछा, “तुम उस चुग़द के साथ शादी करने के लिए तैयार हो।”
रुक्मिणी ख़ामोश रही।

“अच्छा जाओ जहन्नम में... लेकिन एक दिन नहीं, पूरे तीन महीने तुम हमें पूजती रही हो।” ये कह कर वो सही दूल्हे की तरफ़ बढ़ा जिसके मुँह से ग़ुस्से के मारे झाग निकल रहे थे। आगे बढ़ कर उसने अपने सारे हार उसके गले में डाल दिए... सब बराती बुत बने बैठे थे।
हँसता, क़हक़हे लगाता वो अपने घोड़े पर बड़ी सफ़ाई से सवार हुआ और ऐड़ लगा कर कोठी से बाहर निकल गया। घोड़े से उतर कर (हम दूर निकल गए थे। इसलिए कि मैं उसके पीछे घोड़े की सी तेज़ रफ़्तारी से भागा था) उसने मेरा कांधा बड़े ज़ोर से हिलाया, "क्यों बेटे, मैं ने तुम से क्या कहा था, अब देख लिया?”

हुआ तो सब कुछ ठीक था मगर मुझे डर था कहीं शेख़ सलीम गिरफ़्तार न हो जाये। मैंने उससे कहा, “जो तुमने किया वो और कोई नहीं कर सकता, लेकिन भाई मेरे कहीं हंसी में फंसी न हो जाये, फ़र्ज़ करो अगर रुक्मिणी के बाप ने तुम्हें गिरफ़्तार करा दिया?”
वो अकड़ कर बोला, “उसके बाप का बाप भी नहीं कर सकता... कौन अपनी बेटी को अदालत चढ़ाएगा... मैं तो इसी वक़्त गिरफ़्तार होने के लिए तैयार हूँ... ले जाये मुझे थाने... उस साली के सारे पोल खोल दूँगा... मेरे पास उसके दर्जनों ख़ुतूत पड़े हैं।”

सारे शहर में यही अफ़वाह फैली हुई थी कि रुक्मिणी का बाप शेख़ सलीम को ज़रूर उसकी गुस्ताख़ी की सज़ा दिलवाएगा कि वो सारी उम्र याद रखे, मगर कुछ न हुआ। जब कई दिन गुज़र गए तो मेरे पास गाता हुआ आया:
थी ख़बर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े

देखने हम भी गए पर वो तमाशा न हुआ
अब मैं असल कहानी की तरफ़ पलटता हूँ, जो इस वाक़े से भी कहीं ज़्यादा दिलचस्प और मानी ख़ेज़ है... ये ख़ुद उसने मुझे सुनाई जिसकी सदाक़त पर मुझे सौ फ़ीसद यक़ीन है... इसलिए कि शेख़ सलीम झूटा कभी नहीं था।

उसने मुझे बताया, “मैं ईरान में था। वहां की लड़कियां आम यूरोपियन लड़कियों की तरह होती हैं, वही लिबास वही वज़ा क़ता, अलबत्ता नाक-नक़्शे के लिहाज़ से काफ़ी मुख़्तलिफ़ होती हैं... जितनी ख़ुराफ़ात वहां होती है शायद ही किसी और मुल्क में होती है... मैंने वहां कई शिकार कीं।
वहां मेरे एक बड़े अफ़सर कर्नल उस्मानी थे। हालाँकि उनका ओह्दा जैसा कि ज़ाहिर है मुझसे बहुत बड़ा था। लेकिन वो मेरे बड़े मेहरबान थे। मेस में जब भी मुझे देखते, ज़ोर से पुकारते... इधर आओ शेख़, मेरे पास बैठो, और वो मेरे लिए एक कुर्सी मंगवाते। विस्की का दौर चलता तो इधर-उधर की बातें शुरू कर देते, कर्नल उस्मान को मुझसे छेड़ख़ानी करने में ख़ास मज़ा आता। जब वो कोई फ़िक़रा मुझ पर चुस्त करते तो बहुत ख़ुश होते... काफ़ी मुअम्मर आदमी था।

इसके इलावा बड़ा अफ़सर, मैं ख़ामोश रहता... उनको इन पुलिस्तानी नर्सों से बड़ी दिलचस्पी थी जो वहां एम्बुलेंस कोर में काम करती थीं। ये पुलिस्तानी लड़कियां बला की तन-ओ-मंद होती हैं... ये मोटी-मोटी सफ़ेद पिंडलियां। बड़ी मज़बूत छातियां, बड़ी-बड़ी और सेहतमंद कोखे, चौड़े और गोश्त से भरे हुए जिन में सख़्ती हो। लोहे ऐसी सख़्त... मेरी कई दोस्त थीं। पर जब मैं आयरन से मिला तो सब को भूल गया।
सारे ईरान को भूल गया। बड़ी सिफ़तें थीं। नक़्श सब छोटे-छोटे थे अगर तुम उसकी छातियों और पिंडलियों को पेश-ए-नज़र रखते तो यही समझते कि उसके हाथ डबल रोटी के मानिंद होंगे। उसकी उंगलियां इतनी मोटी होंगी जैसे किसी दरख़्त की टहनी... मगर नहीं दोस्त, उसके हाथ बड़े नर्म-ओ-नाज़ुक थे और उसकी उंगलियां, तुम ये समझ लो कि चुग़्ताई की बनाई तस्वीरों की मख़रूती लाँबी नहीं, मगर पतली पतली थीं। मैं तो उस पर फ़रेफ़्ता हो गया। चंद रोज़ की मुलाक़ातों ही में उसके मेरे तअल्लुक़ात बेतकल्लुफ़ी की हद तक बढ़ गए।"

यहां तक पहुंच कर शेख़ रुक गया। एक नया पैग गिलास में डाला और सोडा मिला कर गटा गट पी गया, “न याद कराओ ये क़िस्सा।”
मैंने उससे कहा, “लेफ्टिनेंट साहिब, आपने ख़ुद ही तो शुरू किया था।”

उसने माथे पर त्यौरी चढ़ा कर मेरी तरफ़ देखा और एक पैग अपने गिलास में, तीन-चार पैग जो बोतल में बाक़ी बच गए थे, इंतिक़ामन मेरे गिलास में डाले और ख़ुद सूखी जिसे अंग्रेज़ी में नीट कहते हैं, पी गया और खांस-खांस कर अपना बुरा हाल कर लिया, “लानत हो तुम पर!”
“यानी ये क्या मौक़ा था मुझ पर लानत भेजने का।”

उसकी खांसी अब बंद हो गई थी और वो रूमाल से अपना मुँह पोंछ रहा था कि न पूछो मेरी जान... दूसरे रोज़ रात को कर्नल साहब से मुलाक़ात हुई... उन्होंने बड़े तंज़ से कहा, “कहो साहबज़ादे, मुझे बूढा समझते हो... वो तुमने ज़र्ब-उल-मिस्ल नहीं सुनी... नया एक दिन पुराना सौ दिन।”
मैंने उनसे अर्ज़ की, कर्नल साहब आपका मेरा क्या मुक़ाबला... मगर मैं दिल ही दिल में सोचा कि ये कम्बख़्त इस हक़ीक़त से अब तक ग़ाफ़िल है कि क़ब्र में पांव लटकाए बैठा है और इश्क़ फ़र्मा रहा है।

मैं तो ख़ुदा की क़सम जब इस उम्र को पहुंचूंगा तो ख़ुदकुशी कर लूंगा... इस मुँह के साथ जिसमें आधे दाँत मस्नूई हैं, मेरी आयरन पर निगाहें लगाए बैठा है। कर्नल होगा तो अपने घर में, उसने कभी फिर उसकी बात की तो एक ऐसा घूंसा जमाऊंगा उसकी सूखी गर्दन पर कि मुनक्का बाहर आ जाएगा।”
देर तक उस बढ्ढे खूसट से आयरन... निहायत ही प्यारी आयरन के मुतअल्लिक़ बातें होती रहीं और वो तंज़ करने से बाज़ न आया। विस्की का चौथा दौर चल रहा था। मैंने अपने होंटों पर बड़ी फ़रमांबर्दार क़िस्म की मुस्कुराहट पैदा किया और उससे कहा, “कर्नल साहब, जो आपको बुढ्ढा कहे वो ख़ुद बुढ्ढा है। आप तो माशा-अल्लाह धान-पान हैं।”

ये महफ़िल ख़त्म हुई तो मैं बहुत ख़ुश हुआ। आयरन ने मुझ से वादा किया कि वो दूसरे रोज़ फ़ुलां-फ़ुलां होटल में शाम को सात बजे मिलेगी।
उसमें फ़ौजियों को इजाज़त थी, इतवार था इसलिए मैं वर्दी के बजाय निहायत आला सूट पहन कर वहां पहुंचा।

सात बजने में अभी नौ मिनट बाक़ी थे, मैं डाइनिंग हाल में दाख़िल हुआ तो मेरे पांव वहीं के वहीं जम गए... कर्नल उस्मानी साहब आस पास बैठे हुए लोगों से ग़ाफ़िल आयरन का बड़ा लंबा बोसा ले रहे थे... मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं उस कर्नल से कहीं ज़्यादा बुड्ढ़ा खूसट बन गया हूँ।



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