चौदहवीं का चाँद

अक्सर लोगों का तर्ज़-ए-ज़िंदगी, उनके हालात पर मुनहसिर होता है और बा’ज़ बेकार अपनी तक़दीर का रोना रोते हैं। हालाँकि इससे हासिल-वुसूल कुछ भी नहीं होता। वो समझते हैं अगर हालात बेहतर होते तो वो ज़रूर दुनिया में कुछ कर दिखाते। बेशतर ऐसे भी हैं जो मजबूरियों के बाइस क़िस्मत पर शाकिर रहते हैं। उनकी ज़िंदगी उन ट्राम कारों की तरह है जो हमेशा एक ही पटरी पर चलती रहती हैं। जब कंडम हो जाती हैं तो उन्हें महज़ लोहा समझ कर किसी कबाड़ी के पास फ़रोख़्त कर दिया जाता है।
ऐसे इंसान बहुत कम हैं। जिन्हों ने हालात की पर्वा न करते हुए ज़िंदगी की बागडोर अपने हाथ में सँभाल ली। टॉमस विल्सन भी इसी क़बील से था।

उसने अपनी ज़िंदगी बदलने के लिए अनोखा क़दम उठाया। पर उसकी मंज़िल का चूँकि कोई पता नहीं था, इसलिए उसकी कामयाबी के बारे में अंदाज़ा लगाना मुश्किल था।
उसके इस अनोखेपन के मुतअ’ल्लिक़ मैंने बहुत कुछ सुना। सबसे पहले लोग यही कहते कि वो ख़लवत पसंद है लेकिन मैंने दिल में तहय्या कर लिया कि किसी न किसी हीले उसे अपनी दास्तान-ए-ज़िंदगी बयान करने पर आमादा कर लूंगा क्योंकि मुझे दूसरे आदमियों के बयान की सदाक़त पर ए’तिमाद नहीं था।

मैं चंद रोज़ के लिए एक सेहत अफ़्ज़ा मक़ाम पर गया, वहीं उससे मुलाक़ात हुई। मैं दरिया किनारे अपने मेज़बान के साथ खड़ा था कि वो एक दम पुकार उठा,“विल्सन।”
मैंने पूछा, “कहाँ है?”

मेरे मेज़बान ने जवाब दिया, “अरे भई! वही जो मुंडेर पर नीली क़मीस पहने हमारी तरफ़ पीठ किए बैठा है।”
मैंने उसकी तरफ़ देखा और मुझे नीली क़मीस और सफ़ेद बालों वाला सर नज़र आया। मेरी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वो मुड़ कर देखे और हम उसे सैर-ओ-तफ़रीह के लिए साथ ले जाएं।

उस वक़्त सूरज का अ’क्स दरिया में डूब रहा था। सैर करने वाले चहचहा रहे थे। इतने में गिरजे की यक-आहंग घंटियां बजने लगीं।
मैं उस वक़्त क़ुदरत की दिल-फ़रेबियों से इस क़दर मस्हूर हो चुका था कि विल्सन को अपनी तरफ़ आते न देख सका। जब वो मेरे पास से गुज़रा तो मेरे दोस्त ने उसे रोक लिया और उसका मुझ से तआ’रुफ़ कराया। उसने मेरे साथ हाथ मिलाया, लेकिन किसी क़दर बेए’तिनाई से। मेरे दोस्त ने इस को महसूस किया और उसको शराब की दा’वत दी।

मदऊ किए जाने पर वो मुस्कुराया। अगरचे उसके दाँत ख़ूबसूरत न थे फिर भी उसकी मुस्कुराहट दिलकश थी। वो नीली क़मीस और ख़ाकिसतरी पतलून पहने था जो किसी हद तक मैली थी। उसके लिबास को उसके जिस्म की साख़्त से कोई मुनासिबत नहीं थी।
उसका चेहरा लंबोतरा, पतले होंट और आँखें भूरे रंग की थीं।

चेहरे के ख़ुतूत नुमायां, जिनसे नुमायां था कि जवानी में वो ज़रूर ख़ूबसूरत होगा। वज़ा-क़ता के ए’तबार से वो किसी बीमा कंपनी का एजेंट मालूम होता था।
हम चहल-क़दमी करते, एक रेस्तोरान में पहुंच कर, उससे मुल्हक़ा बाग़ीचे में बैठ गए और बैरे को शराब लाने के लिए कहा। होटल वाले की बीवी भी वहां मौजूद थी। अधेड़पन की वजह से अब उसमें वो बात नहीं रही थी लेकिन चेहरे का निखार अब भी गुज़री हुई करारी जवानी की चुग़लियाँ खा रहा था।

तीस साल पहले बड़े बड़े आर्टिस्ट उसके दीवाने थे, उसकी बड़ी बड़ी शराबी आँखों और शहद भरी मुस्कुराहटों में अजब दिलकशी थी।
हम तीनों बैठे यूंही इधर-उधर की बातें करते रहे। चूँकि मौज़ू दिलचस्प नहीं थे इसलिए विल्सन थोड़ी देर के बाद रुख़सत मांग कर चला गया। हम भी उसके रुख़सत होने पर उदास होगए।

रास्ते में मेरे दोस्त ने विल्सन के बारे में कहा, “मुझे तो तुम्हारी सुनाई हुई कहानी बेसर-ओ-पा मालूम होती है।”
“क्यों?”

“वो इस क़िस्म की हरकत का मुर्तकिब नहीं हो सकता।”
उसने कहा, “कोई शख़्स किसी की फ़ितरत के मुत’अल्लिक़ सही अंदाज़ा कैसे लगा सकता है?”

“मुझे तो वो आम इंसान दिखाई देता है जो चंद महफ़ूज़ किफ़ालतों के सहारे कारोबार से अलाहिदा हो चुका है।”
“तुम यही समझो, ठीक है।”

दूसरे दिन दरिया किनारे विल्सन हमें फिर दिखाई दिया। भूरे रंग का लिबास पहने, दाँतों में पाइप दबाये खड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसके चेहरे की झुर्रियों और सफ़ेद बालों से भी जवानी फूट रही है।
हम कपड़े उतार कर पानी के अंदर चले गए। जब मैं नहा कर बाहर निकला तो विल्सन ज़मीन पर औंधे मुँह लेटा कोई किताब पढ़ रहा था। मैं सिगरेट सुलगा कर उसके पास गया।

उसने किताब से नज़रें हटा कर मेरी तरफ़ देखा और पूछा, “बस, नहा चुके।”
मैंने जवाब दिया, “हाँ... आज तो लुत्फ़ आगया... दुनिया में इससे बेहतर नहाने की और कोई जगह नहीं हो सकती... तुम यहां कितनी मुद्दत से हो?”

उसने जवाब दिया, “पंद्रह बरस से।”
ये कह कर वह दरिया की मचलती हुई नीली लहरों की तरफ़ देखने लगा, उसके बारीक होंटों पर लतीफ़ सी मुस्कुराहट खेलने लगी, “पहली बार यहां आते ही मुझे इस जगह से मुहब्बत होगई... तुम्हें उस जर्मन का क़िस्सा मालूम है, जो एक बार यहां लंच खाने आया और यहीं का हो के रह गया। वो चालीस साल यहां रहा... मेरा भी यही हाल होगा। चालीस बरस नहीं तो पच्चीस तो कहीं नहीं गए।”

मैं चाहता था कि वो अपनी गुफ़्तुगू जारी रखी। उसके अलफ़ाज़ से ज़ाहिर था कि उसके अफ़साने की हक़ीक़त ज़रूर कुछ है।
इतने में मेरा दोस्त भीगा हुआ हमारी तरफ़ आया। बहुत ख़ुश था क्योंकि वो दरिया में एक मील तैर कर आरहा था। उसके आते ही हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू बदल गया और बात अधूरी रह गई।

उसके बाद विल्सन से मुतअद्दिद बार मुलाक़ात हुई, उसकी बातें बड़ी दिलचस्प होतीं। वो इस जज़ीरे के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ था।
एक दिन चांदनी रात का लुत्फ़ उठाने के बाद, मैंने और मेरे दोस्त ने सोचा कि चलो मोंटी सलावर की पहाड़ी की सैर करें। मैंने विल्सन से कहा कि, “आओ यार, तुम भी हमारे साथ चलो।”

विल्सन ने मेरी दा’वत क़बूल करली लेकिन मेरा दोस्त नासाज़ि-ए-तब्अ’ का बहाना करके हमसे जुदा होगया। ख़ैर, हम दोनों पहाड़ी की जानिब चल दिए और इस सैर का ख़ूब लुत्फ़ उठाया। शाम के धुंदलके में थके-मांदे, भूके सराय में आए।
खाने का इंतिज़ाम पहले ही कर रखा था जो बहुत लज़ीज़ साबित हुआ। शराब, अंगूर की थी। पहली बोतल तो सिवय्यां खाने के साथ ही ख़त्म होगई। दूसरी के आख़िरी जाम पीने के बाद मेरे और विल्सन के दिमाग़ में बयक-वक़्त ये ख़याल समाने लगा कि ज़िंदगी कुछ ऐसी दुशवार नहीं।

हम उस वक़्त बाग़ीचे में अंगूरों से लदी हुई बेल के नीचे बैठे थे। रात की ख़ामोश फ़ज़ा में ठंडी हवा चल रही थी। सराय की ख़ादिमा हमारे लिए पनीर और इंजीरें ले आई।
विल्सन थोड़े से वक़्फ़े के बाद मुझसे मुख़ातिब हुआ, “हमारे चलने में अभी काफ़ी देर है। चांद कम अज़ कम एक घंटे तक पहाड़ी के ऊपर आएगा।”

मैंने कहा, “हमारे पास फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है... यहां आकर कोई इंसान भी उ’जलत के मुतअ’ल्लिक़ नहीं सोच सकता।”
विल्सन मुस्कुराया, “फ़ुर्सत... काश, लोग इससे वाक़िफ़ होते। हर इंसान को ये चीज़ मुफ़्त मयस्सर हो सकती है। लेकिन लोग कुछ ऐसे बेवक़ूफ़ हैं कि वो इसे हासिल करने की कोशिश ही नहीं करते... काम? कमबख़्त, इतना समझने के भी अह्ल नहीं कि काम करने से ग़रज़ सिर्फ़ फ़ुर्सत हासिल करना है।”

शराब का असर उमूमन बा’ज़ लोगों को गौर-ओ-फ़िक्र की तरफ़ ले जाता है। विल्सन का ख़याल अपनी जगह दुरुस्त था मगर कोई अछूती और अनोखी बात नहीं थी।
उसने सिगरेट सुलगाया और कहने लगा, “जब मैं पहली बार यहां आया, तो चांदनी रात का समां था... आज भी वही चौदहवीं का चांद आसमान पर नज़र आएगा।”

मैं मुस्कुरा दिया, “ज़रूर नज़र आएगा”
वो बोला, “दोस्त, मेरा मज़ाक़ न उड़ाओ... जब मैं अपनी ज़िंदगी के पिछले पंद्रह बर्सों पर नज़र डालता हूँ तो मुझे ये तवील अ’र्सा एक महीने का धुंदलका वक़्फ़ा सा लगता है। आह, वो रात, जब पहली बार, मैंने चबूतरे पर बैठ कर चांद का नज़ारा किया।

किरनें दरिया की सतह पर चांदी के पतरे चढ़ा रही थीं। मैंने उस वक़्त शराब ज़रूर पी रखी थी। लेकिन दरिया के नज़ारे और आस पास की फ़िज़ा ने जो नशा पैदा किया, वो शराब कभी पैदा न कर सकती।”
उसके होंट ख़ुश्क होने लगे। उसने अपना गिलास उठाया, मगर वो ख़ाली था, एक बोतल मंगवाई गई, विल्सन ने दो-चार बड़े बड़े घूँट पीए और कहने लगा, “अगले दिन मैं दरिया किनारे नहाया और जज़ीरे में इधर उधर घूमता रहा, बड़ी रौनक़ थी। मालूम हुआ कि हुस्न-ओ-इ’श्क़ की देवी अफ़्रो डाइट का त्योहार है... मगर मेरी तक़दीर में सदा बैंक का मुंतज़िम होना ही लिखा होता तो यक़ीनन मुझे ऐसी सैर कभी नसीब न होती।”

मैंने उससे पूछा, “क्या तुम किसी बैंक के मैनेजर थे?”
“हाँ भाई था... वो रात मेरे क़ियाम की आख़िरी रात थी क्योंकि पीर की सुब्ह मुझे बैंक में हाज़िर होना था। पर जब मैंने चांद दरिया और कश्तियों को देखा तो ऐसा बेखु़द हुआ कि वापस जाने का ख़याल मेरे ज़ेहन से उतर गया।”

इस के बाद उसने अपने गुज़िश्ता वाक़ियात तफ़सील से बताए और कहा कि वो जज़ीरे में पंद्रह साल से मुक़ीम है और अब उसकी उम्र उनचास बरस की थी।
पहली बार जब वो यहां आया तो उसने सोचा कि मुलाज़मत का तौक़ गले से उतार देना चाहिए और ज़िंदगी के बाक़ी अय्याम यहां की मस्हूरकुन फ़ज़ाओं में गुज़ारने चाहिऐं।

जज़ीरे की फ़ज़ा और चांद की रौशनी विल्सन के दिमाग़ पर इस क़दर ग़ालिब आई कि उसने बैंक की मुलाज़मत तर्क कर दी। अगर वो चंद बरस और वहां रहता तो उसे मा’क़ूल पेंशन मिल जाती। मगर उसने उसकी मुतलक़ पर्वा न की। अलबत्ता बैंक वालों ने उसे उसकी ख़िदमात के इवज़ इनाम दिया। विल्सन ने अपना घर बेचा और जज़ीरे का रुख़ किया। उसके अपने हिसाब के मुताबिक़ वो पच्चीस बरस तक ज़िंदगी बसर कर सकता था।
मेरी उससे कई मुलाक़ातें हुईं। इस दौरान में मुझे मालूम हुआ कि वो बड़ा ए’तिदाल पसंद है। उसे कोई ऐसी बात गवारा नहीं जो उसकी आज़ादी में ख़लल डाले, इसी वजह से औरत भी उसको मुतअस्सिर न कर सकी।

वो सिर्फ़ क़ुदरती मनाज़िर का परस्तार था। उसकी ज़िंदगी का वाहिद मक़सद सिर्फ़ अपने लिए ख़ुशी तलाश करना था और उसे ये नायाब चीज़ मिल गई थी।
बहुत कम इंसान ख़ुशी की तलाश करना जानते हैं, मैं नहीं कह सकता वो समझदार था या बेवक़ूफ़। इतना ज़रूर है कि अपनी ज़ात के हर पहलू से बख़ूबी वाक़िफ़ था।

आख़िरी मुलाक़ात के बाद मैंने अपने मेज़बान दोस्त से रुख़सत चाही और अपने घर रवाना होगया। इस दौरान में जंग छिड़ गई और मैं तेरह बरस तक उस जज़ीरे पर न जा सका।
तेरह बरस के बाद जब मैं जज़ीरे पर पहुंचा तो मेरे दोस्त की हालत बहुत ख़स्ता हो चुकी थी। मैंने एक होटल में कमरा किराए पर लिया खाने पर अपने दोस्त से विल्सन के मुतअ’ल्लिक़ बात हुई।

वो ख़ामोश रहा। उसकी ये ख़ामोशी बड़ी अफ़्सुर्दा थी। मैंने बेचैन हो कर पूछा, “कहीं उसने ख़ुदकुशी तो नहीं करली।”
मेरे दोस्त ने आह भरी, “ये दर्द भरी दास्तान मैं तुम्हें क्या सुनाऊं?” विल्सन की स्कीम माक़ूल थी कि वो पच्चीस बरस आराम से गुज़ार सकता है। पर उसे ये मालूम नहीं था कि आराम के पच्चीस बरस गुज़ारने के साथ ही उसकी क़ुव्वत-ए-इरादी ख़त्म हो जाएगी।

क़ुव्वत-ए-इरादी को ज़िंदा रखने के लिए कश्मकश ज़रूरी है। हमवार ज़मीन पर चलने वाले पहाड़ियों पर नहीं चढ़ सकते। उसका तमाम रुपया ख़त्म होगया। उधार लेता रहा, लेकिन ये सिलसिला कब तक जारी रहता।
क़र्ज़ ख्वाहों ने उसे तंग करना शुरू किया। आख़िर एक रोज़ उसने अपनी झोंपड़ी के उस कमरे में जहां वो सोता था, बहुत से कोयले जलाए और दरवाज़ा बंद कर दिया।

सुब्ह जब उसकी नौकरानी नाशता तैयार करने आई तो उसे बेहोश पाया। लोग उसे हस्पताल ले गए। बच गया पर उसका दिमाग़ क़रीब क़रीब माऊफ़ हो गया। मैं उससे मिलने गया लेकिन वो कुछ इस तरह हैरान नज़रों से मेरी तरफ़ देखने लगा जैसे मुझे पहचान नहीं सका।
मैंने अपने दोस्त से पूछा, “अब कहाँ रहता है?”

“घर-बार तो उसका नीलाम होगया है... पहाड़ियों पर आवारा फिरता रहता है। मैंने एक दो मर्तबा उसे पुकारा, मगर वो मेरी शक्ल देखते ही जंगली हिरनों की तरह क़ुलांचें भरता दौड़ गया।”
दो-तीन दिन के बाद जब मैं और मेरा दोस्त चहल-क़दमी कर रहे थे कि मेरा दोस्त ज़ोर से पुकारा, “विल्सन।”

मेरी निगाहों ने उसे ज़ैतून के दरख़्त के पीछे छुपता देखा। हमारे क़रीब पहुंचने पर उसने कोई हरकत न की, बस साकित-ओ-सामत खड़ा रहा। फिर एका एकी जवानों के मानिंद बेतहाशा भागना शुरू कर दिया। इसके बाद मैंने फिर उसको कभी न देखा।
घर वापस आया तो एक बरस के बाद मेरे दोस्त का ख़त आया कि विल्सन मर गया। उसकी लाश पहाड़ी के किनारे पड़ी थी। चेहरे से ये ज़ाहिर होता था कि सोते में दम निकल गया है... उस रात चौदहवीं का चांद था... मेरा ख़याल है, शायद ये चौदहवीं का चांद ही उसकी मौत का सबब हो।




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