दुनिया का सबसे अनमोल रतन

दिल-फ़िगार एक पुरख़ार दरख़्त के नीचे दामन चाक किए बैठा हुआ ख़ून के आँसू बहा रहा था। वो हुस्न की देवी यानी मलिका दिल-फ़रेब का सच्चा और जाँ-बाज़ आशिक़ था। उन उश्शाक में नहीं जो इत्र-फुलेल में बस कर और लिबास-ए-फ़ाखिरा में सज कर आशिक़ के भेस में माशूक़ियत का दम भरते हैं, बल्कि उन सीधे सादे भोले भाले फ़िदाइयों में जो कोह और बयाबाँ में सर टकराते और नाला-ओ-फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिल-फ़रेब ने उससे कहा था कि, “अगर तू मेरा सच्चा आशिक़ है तो जा और दुनिया की सबसे बेश-बहा शय लेकर मेरे दरबार में आ। तब मैं तुझे अपनी गु़लामी में क़बूल करुँगी। अगर तुझे वो चीज़ न मिले तो ख़बरदार! इधर का रुख़ न करना वर्ना दार पर खींचवा दूँगी।” दिल-फ़िगार को अपने जज़्बे के इज़हार का, शिकवा-शिकायत और जमाल-ए-यार के दीदार का मुतलक़ मौक़ा न दिया गया। दिल-फ़रेब ने जूँ ही ये फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिल-फ़िगार को धक्के दे कर बाहर निकाल दिया और आज तीन दिन से ये सितम-रसीदा शख़्स उसी पुरख़ार दरख़्त के नीचे इसी वहशत-नाक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ? दुनिया की सब से बेश-बहा शय! ना-मुम्किन! और वो है क्या? क़ारून का ख़ज़ाना? आब-ए-हयात? ताज-ए-ख़ुसरो? जाम-ए-जम? तख़्त-ए-ताऊस? ज़र-ए-परवेज़? नहीं ये चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे गिराँ तर, इनसे भी बेश-बहा चीज़ें मौजूद हैं। मगर वो क्या हैं? कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या ख़ुदा मेरी मुश्किल क्यों कर आसान होगी!
दिल-फ़िगार इन्ही ख़यालात में चक्कर खा रहा था और अक़्ल कुछ काम न करती थी। मुनीर-ए-शामी को हातिम सा मददगार मिल गया। ऐ काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता। ऐ काश मुझे भी उस चीज़ का, जो दुनिया की सब से बेश-बहा है, नाम बतला दिया जाता। बला से वो शय दस्तयाब न होती मगर मुझे इतना मालूम हो जाता कि वो किस क़िस्म की चीज़ है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। मैं समंदर का नग़्मा, पत्थर का दिल, क़ज़ा की आवाज़, और उनसे भी ज़्यादा बे-निशान चीज़ों की तलाश में कमर हिम्मत बाँध सकता हूँ। मगर दुनिया की सब से बेश-बहा शय, ये मेरे पर परवाज़ से बाला-ए-तर है।

आसमान पर तारे निकल आए थे। दिल-फ़िगार यकायक ख़ुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ, भूका-प्यासा। बरहना तन ख़स्ता-ओ-ज़ार, वो बरसों वीरानों और आबादियों की ख़ाक छानता फिरा। तलवे काँटों से छलनी हो गए। जिस्म में तार-ए-सतर की तरह हड्डियाँ ही हड्डियाँ नज़र आने लगीं। मगर वो चीज़ जो दुनिया की सब से बेश-बहा शय थी। मयस्सर न हुई। और न उस का कुछ निशान मिला।
एक रोज़ भूलता-भटकता एक मैदान में निकला। जहाँ हज़ारों आदमी हल्क़ा बाँधे खड़े थे। बीच में अम्मामे और अबा वाले रीशाईल क़ाज़ी शान-ए-तहक्कुम से बैठे हुए बाहम कुछ ग़ुरफ़िश कर रहे थे और उस जमा'अत से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिल-फ़िगार कुछ ना-तवानी के ग़लबे से और कुछ यहाँ की कैफ़ियत देखने के इरादे से ठिटक गया। क्या देखता है कि कई बरक़नदार एक दस्त-ओ-पा-ब-ज़ंजीर क़ैदी के ले चले आ रहे हैं। सूली के क़रीब पहुँच कर सब सिपाही रुक गए। और क़ैदी की हथकड़ियाँ बेड़ियाँ सब उतार ली गईं। उस बद-क़िस्मत शख़्स का दामन सद-हा-बे-गुनाहों के ख़ून के छींटों से रंगीन हो रहा था। और उसका दिल नेकी के ख़याल और रहम की आवाज़ से मुतलक़ मानूस न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहियों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया। मौत की फाँसी उसकी गर्दन में डाल दी। और जल्लादों ने तख़्ता खींचने का इरादा किया। कि बद-क़िस्मत मुजरिम चीख़ कर बोला, “लिल्लाह मुझे एक दम के लिए फाँसी से उतार दो। ताकि अपने दिल की आख़िरी आरज़ू निकाल लूँ।” ये सुनते ही चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। लोग हैरत में आकर ताकने लगे। क़ाज़ियों ने एक मरने वाले शख़्स की आख़िरी इस्तिदा को रद्द करना मुनासिब न समझा। और बद-नसीब सियह-कार काला चोर ज़रा देर के लिए फाँसी से उतार लिया गया।

इस मजमे में एक ख़ूबसूरत भोला भाला लड़का एक छड़ी पर सवार हो कर अपने पैसे पर उछल उछल कर फ़र्ज़ी घोड़ा दौड़ा रहा था। और अपने आलिम सादगी में मगन था, गोया वो उस वक़्त वाक़ई किसी अरबी रहवार का शहसवार है। उसका चेहरा इस सच्ची मुसर्रत से कँवल की तरह खिला हुआ था जो चंद दिनों के लिए बचपन ही में हासिल होती है। और जिस की याद हम को मरते दम नहीं भूलती। उसका सीना अभी तक मासियत के गर्द-ओ-ग़ुबार से बे-लौस था। और मासूमियत उसे अपनी गोद में खिला रही थी।
बद-क़िस्मत काला चोर फाँसी से उतरा। हज़ारों आँखें उसी पर गड़ी हुई थीं। वो उस लड़के के पास आया और उसे गोद में उठा कर प्यार करने लगा। उसे उस वक़्त वो ज़माना याद आया जब वो ख़ुद ऐसा ही भोला भाला, ऐसा ही ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम और आलाइशात-ए-दुनयवी से ऐसा ही पाक-ओ-साफ़ था। माँ गोदियों में खिलाती थी। बाप बलाएँ लेता था और सारा कुनबा जानें वारा करता था। आह! काले चोर के दिल पर इस वक़्त अय्याम-ए-गुज़िश्ता की याद का इतना असर हुआ कि उसकी आँखों से, जिन्होंने नीम-बिस्मिल लाशों को तड़पते देखा और न झपकी थीं, आँसू का एक क़तरा टपक पड़ा। दिल-फ़िगार लपक कर इस दर्रीकता को हाथ में ले लिया। और उसके दिल ने कहा, बेशक ये शय दुनिया की सब से अनमोल चीज़ है, जिस पर तख़्त-ए-ताऊस और जाम-ए-जम और आब-ए-हयात और ज़र-ए-परवेज़ सब तसद्दुक़ हैं।

इसी ख़याल से ख़ुश होता, कामयाबी की उम्मीद से सरमस्त, दिल-फ़िगार अपनी माशूक़ा दिल-फ़रेब के शहर मीनोसवाद को चला। मगर जूँ मंज़िलें तय होती जाती थीं। उसका दिल बैठा जाता था। कि कहीं उस चीज़ की जिसे मैं दुनिया की सब से बेश-बहा चीज़ समझता हूँ, दिल-फ़रेब की निगाहों में क़द्र न हुई तो मैं दार पर खींच दिया जाऊँगा। और इस दुनिया से ना-मुराद जाऊँगा पर हर चे बादा-बाद। अब तो क़िस्मत-आज़माई है। आख़िर कोह-ओ-दरिया तय करके शहर मीनोसवाद में आ पहुँचा और दिल-फ़रेब के दर-ए-दौलत पर जा कर इल्तिमास की कि ख़स्ता-ओ-ज़ार दिल-फ़िगार ब-फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा तामील-ए-इरशाद कर के आया है और शरफ़-ए-क़दम-बोसी चाहता है। दिल-फ़रेब ने फ़िलफ़ौर हुज़ूर में बूला भेजा। और एक ज़र-निगार पर्दे की ओट से फ़रमाइश की, कि “वो हदिया-ए -बेश-बहा पेश करो।” दिल-फ़िगार ने एक अजब उम्मीद-ए-नीम के आलम में वो क़तरा पेश किया और उसकी सारी कैफ़ियत निहायत ही मोअस्सिर लहजे में बयान की। दिल-फ़रेब ने कुल रूदाद ब-ग़ौर सुनी। और तोहफ़ा हाथ में लेकर ज़रा देर तक ग़ौर कर के बोली, “दिल-फ़िगार बेशक तूने दुनिया की एक बेश-क़ीमत चीज़ ढूँढ निकाली। तेरी हिम्मत को आफ़रीं और तेरी फ़रासत को मर्हबा! मगर ये दुनिया की सब से बेश-क़ीमत चीज़ नहीं। इसलिए तू यहाँ से जा और फिर कोशिश कर। शायद अब की तेरे हाथ दर-ए-मक़दूर लगे और तेरी क़िस्मत में मेरी गु़लामी लिखी हो। अपने अहद के मुताबिक़ मैं तुझे दार पर खींचवा सकती हूँ। मगर मैं तेरी जान-बख़्शी करती हूँ। इसलिए कि तुझ में वो औसाफ़ मौजूद हैं जो मैं अपने आशिक़ में देखना चाहती हूँ और मुझे यक़ीन है कि तू ज़रूर कभी सुर्ख़-रू होगा।” ना-काम-ओ-ना-मुराद दिल-फ़िगार इस इनायत-ए-माशूक़ाना से ज़रा दिलेर हो कर बोला। ऐ महबूब दिल-नशीं बाद मुद्दत-हा-ए-दराज़ के तेरे आस्ताँ की जब रसाई नसीब हुई है। फिर ख़ुदा जाने ऐसे दिन कब आएँगे। क्या तू अपने आशिक़-ए-जाँ-बाज़ के हाल-ए-ज़ार पर तरस न खाएगी और अपने जमाल-ए-जहाँ-आरा का जल्वा दिखा कर इस सख़्त-तन दिल-फ़िगार को आने वाली सख़्तियों के छीलने के लिए मुस्तइद न बनाएगी। तेरी एक निगाह-ए-मस्त के नशे से बेख़ुद हो कर मैं वो कर सकता हूँ जो आज तक किसी से न हुआ हो। दिल-फ़रेब आशिक के ये इश्तियाक़-आमेज़ कलमात को सन कर बर-अफ़रोख़्ता हो गई और हुक्म दिया कि इस दीवाने को खड़े खड़े दरबार से निकाल दो। चोबदार ने फ़ौरन ग़रीब दिल-फ़िगार को धक्के दे कर कूचा-ए-यार से बाहर निकाल दिया।
कुछ देर तक तो दिल-फ़िगार माशूक़ाना सितम-केश की इस तुंद-ख़ूई पर आँसू बहाता रहा। बाद-ए-अज़ाँ सोचने लगा कि अब कहाँ जाऊँ। मुद्दतों की रह-नवर्दी-ओ-बादिया-पैमाई के बाद ये क़तरा-ए-अशक मिला था। अब ऐसी कौन सी चीज़ है जिस की क़ीमत इस दर-ए-आबदार से ज़ाइद हो। हज़रत ख़िज़र! तुम ने सिकंदर को जाह-ओ-ज़ुलमात का रास्ता दिखाया था। क्या मेरी दस्तगीरी न करोगे? सिकंदर शाह-ए-हफ़्त-किश्वर था। मैं तो एक ख़ानुमाँ-बर्बाद मुसाफ़िर हूँ। तुम ने कितनी ही डूबती कश्तियाँ किनारे लगाई हैं। मुझ ग़रीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ जिब्रईल आली मक़ाम! कुछ तुम्हें इस आशिक़-ए-नीम-जान-ओ-असीर-रंज-ओ-मेहन पर तरस खाओ। तुम मुक़र्रबान-ए-बारगाह से हो। क्या मेरी मुश्किल आसान न करोगे? अल-ग़रज़ दिल-फ़िगार ने बहुत फ़रियाद मचाई। मगर कोई उसकी दस्तगीरी के लिए नमूदार न हुआ। आख़िर मायूस हो कर वो मजनूँ- सिफ़त दुबारा एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ।

दिल-फ़िगार ने पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही दयारों की ख़ाक छानी। कभी बर्फ़िस्तानी चोटियों पर सोया। कभी हौलनाक वादियों में भटकता फिरा। मगर जिस चीज़ की धुन थी, वो न मिली। यहाँ तक कि उसका जिस्म एक तूदा-ए-उस्तख़्वाँ हो गया।
एक रोज़ वो शाम के वक़्त किसी दरिया के किनारे ख़स्ता-हाल पड़ा था। नश्शा-ए-बे-खु़दी से चौंका, देखता है कि संदल की चिता बनी हुई है और उस पर एक नाज़नीन शहाने जोड़े पहने, सोलहों सिंगार किए बैठी हुई है। उसके ज़ानू पर उसके प्यारे शौहर की लाश है। हज़ारों आदमी हल्क़ा बाँधे खड़े हैं। और फूलों की बरखा कर रहे हैं। यकायक चिता में से ख़ुद-ब-ख़ुद एक शोला उठा। सती का चेहरा उस वक़्त एक पाक जज़्बे से मुनव्वर हो रहा था। मुबारक शोले उसके गले लिपट गए। और दम-ज़दन में वो फूल सा जिस्म तूदा-ए-ख़ाकिस्तर हो गया। माशूक़ ने अपने तईं आशिक़ पर निसार कर दिया। और दो फ़िदाइयों की सच्ची, ला-फ़ानी और पाक मुहब्बत का आख़िरी जल्वा निगाह-ए-ज़ाहिर से पिन्हाँ हो गया। जब सब लोग अपने घरों को लौटे तो दिल-फ़िगार चुपके से उठा और अपने गिरेबान-ए-चाक-दामन में ये तूदा-ए-ख़ाक समेट लिया। और इस मुश्त-ए-ख़ाक को दुनिया की सब से गिराँ-बहा चीज़ समझता हुआ कामरानी के नश्शे में मख़मूर कूचा-ए-यार की तरफ़ चला। अब की जूँ जूँ वो मंज़िल-ए-मक़्सूद के क़रीब आता था, उसकी हिम्मतें बढ़ती जाती थीं। कोई उसके दिल में बैठा हुआ कह रहा था अब की तिरी फ़त्ह है और इस ख़याल ने उसके दिल को जो ख़्वाब दिखाए, उसका ज़िक्र फ़ुज़ूल है। आख़िर वो शहर मीनोसवाद में दाख़िल हुआ। और दिल-फ़रेब के आस्तान-ए-रिफ़अत-निशान पर जाकर ख़बर दी कि दिल-फ़िगार सुर्ख़-रू और बा-वक़ार लौटा है और हुज़ूरी में बारयाब हुआ चाहता है। दिल-फ़रेब के आशिक़-ए-जाँ-बाज़ को फ़ौरन दरबार में बुलाया और उस चीज़ के लिए, जो दुनिया की सब से बेश-बहा जिंस थी, हाथ फैला दिया। दिल-फ़िगार ने जुरअ'त कर के इस साइद-ए-सीमीं का बोसा ले लिया और वो मुश्त-ए-ख़ाक उस में रख कर वो सारी कैफ़ियत निहायत दिल-सोज़ अंदाज़ में कह सुनाई और माशूक़ा-ए-दिल-पज़ीर के नाज़ुक लबों से अपनी क़िस्मत का मुबारक और जाँ-फ़ज़ा फ़ैसला सुनने के लिए मुंतज़िर हो बैठा। दिल-फ़रेब ने इस मुश्त-ए-ख़ाक को आँखों से लगा लिया और कुछ देर तक दरिया-ए-तफ़क्कुर में ग़र्क़ रहने के बाद बोली। ऐ आशिक़ ऐ जाँ-निसार दिल-फ़िगार! बेशक ये ख़ाक-ए-कीमिया-सिफ़त जो तू लाया है, दुनिया की निहायत बे-शक़ीमत चीज़ है। और मैं तेरी सिद्क़-ए-दिल से ममनून हूँ कि तू ने ऐसा बेश-बहा तोहफ़ा मुझे पेश-कश किया। मगर दुनिया में इस से भी ज़्यादा गिराँ-क़द्र कोई चीज़ है। जा उसे तलाश कर और तब मेरे पास आ। मैं तह-ए-दिल से दुआ करती हूँ कि ख़ुदा तुझे कामयाब करे। ये कह कर वो पर्दा-ए-ज़र-निगार से बाहर आई। और माशूक़ाना अदा से अपने जमाल-ए-जाँ-सोज़ का नज़ारा दिखा कर फिर नज़रों से ओझल हो गई। एक बर्क़ थी कि कौंदी और फिर पर्दा-ए-अब्र में छुप गई। अभी दिल-फ़िगार के हवास बजा न होने पाए थे कि चोबदार ने मुलाएमत से उसका हाथ पकड़ कर कूचा-ए-यार से निकाल दिया। और फिर तीसरी बार वो बंदा-ए-मुहब्बत, वो ज़ाविया-नशीन, कुंज-ए-ना-कामी यास के अथाह समंदर में ग़ोता खाने लगा।

दिल-फ़िगार का हबाओ छूट गया। उसे यक़ीन हो गया कि में दुनिया में ना-शाद-ओ-ना-शाद मर जाने के लिए पैदा किया गया था और अब महज़ इस के कोई चारा नहीँ कि किसी पहाड़ पर चढ़ कर अपने तईं गिरा दूँ। ताकि माशूक़ की जफ़ा-कारियों के लिए एक रेज़ा उस्तख़्वाँ भी बाक़ी न रहे। वो दीवाना-वार उठा और अफ़्ताँ-ओ-ख़ीज़ाँ एक सर-ब-फ़लक कोह की चोटी पर जा पहुँचा। किसी और वक़्त वो ऐसे ऊँचे पहाड़ पर चढ़ने की जुरअ'त न कर सकता था मगर इस वक़्त जान देने के जोश में उसे वो पहाड़ एक मामूली टीकरे से ज़्यादा ऊँचा न नज़र आया। क़रीब था कि वो नीचे कूद पड़े कि एक सब्ज़-पोश पिसर मर्द सब्ज़ अमामा बाँधे एक हाथ में तस्बीह और दूसरे हाथ में असा लिए बरामद हुए। और हिम्मत-अफ़्ज़ा लहजे में बोले,
“दिल-फ़िगार! नादान दिल-फ़िगार! ये क्या बुज़दिलाना हरकत है? इस्तिक़्लाल राह-ए-इश्क़ की पहली मंज़िल है। बा-ईं-हमा-इद्दआ-ए-आशिक़ी तुझे इतनी भी ख़बर नहीं। मर्द बन और यूँ हिम्मत न हार। मशरिक़ की तरफ़ एक मुल्क है जिस का नाम हिंदुस्तान है। वहाँ जा और तेरी आरज़ू पूरी होगी।।” ये कह कर हज़रत ग़ायब हो गए। दिल-फ़िगार ने शुक्रिया की नमाज़ अदा की। और ताज़ा हौसले, ताज़ा जोश, और ग़ैबी इमदाद का सहारा पाकर ख़ुश ख़ुश पहाड़ से उतरा और जानिब-ए-हिंद मुराजअत की।

मुद्दतों तक पुरख़ार जंगलों, शरर-बार रेगिस्तानों, दुशवार गुज़ार वादियों और ना-क़ाबिल-ए-उबूर पहाड़ों को तय करने के बाद दिल-फ़िगार हिंद की पाक सर-ज़मीन में दाख़िल हुआ। और एक ख़ुश-गवार चश्मे में सफ़र की कुलफ़तें धो कर ग़लबा-ए-माँदगी से लब-ए-जू-ए-बार लेट गया गया। शाम होते वो एक कफ़-ए-दस्त मैदान में पहुँचा जहाँ बेशुमार नीम-कुश्ता और बेजान लाशें बे-गोर-ओ-कफ़न पड़ी हुई थीं। ज़ाग़-ओ-ज़ग़न और वहशी दरिंदों की गर्म-बाज़ारी थी। और सारा मैदान ख़ून से शंगर्फ़ हो रहा था। ये हैबत-नाक नज़ारा देखते ही दिल-फ़िगार का जी दहल गया। ख़ुदाया! किसी अज़ाब में जान फँसी। मरने वालों का कराहना सिसकना और एड़ियाँ रगड़ कर जान देना। दरिंदों का हड्डियों को नोचना और गोश्त के लोथड़ों को लेकर भागना। ऐसा हौल-नाक सीन दिल-फ़िगार ने कभी न देखा था। यकायक उसे ख़याल आया, मैदान कारज़ार है और यह लाशें सूरमा सिपाहियों की हैं। इतने में क़रीब से कराहने की आवाज़ आई। दिल-फ़िगार उस तरफ़ फिरा तो देखा कि एक क़ौमी हैकल शख़्स, जिस का मर्दाना चेहरा ज़ोफ़ जाँ-कंदनी से ज़र्द हो गया है। ज़मीन पर सर-निगूँ पड़ा है। सीने से ख़ून का फ़व्वारा जारी है। मगर शमशीर-ए-आबदार का क़ब्ज़ा पंजे से अलग नहीं हुआ। दिल-फ़िगार ने एक चीथड़ा लेकर दहान-ए-ज़ख़्म पर रख दिया ताकि ख़ून रुक जाए और बोला। “ऐ जवान मर्द तू कौन है?” जवान मर्द ने ये सुन कर आँखें खोलीं और दिलेराना लहजे में बोला, “क्या तू नहीं जानता कि मै कौन हूँ? क्या तू ने आज इस तलवार की काट नहीं देखी? मैं अपनी माँ का बेटा और भारत का लख़्त-ए-जिगर हूँ। ये कहते कहते उसके तेवरों पर बल पड़ गए। ज़र्द चेहरा ख़शम-गीं हो गया और शमशीर-ए-आबदार फिर अपना जौहर दिखाने के लिए चमक उठी। दिल-फ़िगार समझ गया कि ये इस वक़्त मुझे दुश्मन ख़याल कर रहा है। मुलाएमत से बोला, “ऐ जवान मर्द! मैं तेरा दुश्मन नहीं हूँ। एक आवारा वतन ग़ुर्बत-ज़दा मुसाफ़िर हूँ। इधर भूलता भटकता आ निकला। बराह-ए-करम मुझ से यहाँ की मुफ़स्सिल कैफ़ियत बयान कर।” ये सुनते ही ज़ख़्मी सिपाही निहायत शीरीं लहजे में बोला, “अगर तू मुसाफ़िर है तो आ और मेरे ख़ून से तर पहलू में बैठ जा क्योंकि यही दो उंगल ज़मीन है जो मेरे पास बाक़ी रह गई है और जो सिवाए मौत के कोई नहीं छीन सकता। अफ़सोस है कि तू यहाँ ऐसे वक़्त में आया। जब हम तेरी मेहमान-नवाज़ी करने के क़ाबिल नहीं। हमारे बाप दादा का देस आज हमारे हाथ से निकल गया। और इस वक़्त हम बे-वतन हैं। मगर (पहलू बदल) हम ने हमला-आवर ग़नीम को बता दिया कि राजपूत अपने देस के लिए कैसी बे-जिगरी से जान देता है। ये आस पास जो लाशें तू देख रहा है। ये उन लोगों की हैं जो इस तलवार के घाट उतरे हैं (मुस्करा कर) और गो कि मैं बे-वतन हूँ। मगर ग़नीमत है कि हरीफ़ के हल्क़े में मर रहा हूँ। (सीने के ज़ख़्म से चीथड़ा निकाल कर) क्या तू ने ये मरहम रख दिया। ख़ून निकलने दे। इसे रोकने से क्या फ़ायदा? क्या मैं अपने ही वतन में गु़लामी करने के लिए ज़िंदा हूँ? नहीं, ऐसी ज़िंदगी से मरना अच्छा। इस से बेहतर मौत मुम्किन नहीं।
जवान मर्द की आवाज़ मध्म हो गई। अज़ा ढीले हो गए। ख़ून इस कसरत से बहा कि अब ख़ुद-ब-ख़ुद बंद हो गया। रह रह कर एक आध क़तरा टपक पड़ता था। आख़िर कार सारा जिस्म बेदम हो गया। क़ल्ब की हरकत बंद हो गई। और आँखें मुँद गईं। दिल-फ़िगार ने समझा अब काम तमाम हो गया कि मरने वाले ने आहिस्ता से कहा, “भारत माता की जय” और उसके सीने से आख़िरी क़तरा ख़ून निकल पड़ा। एक सच्चे मुहिब-ए-वतन और देस-भगत ने हुब्ब-उल-वतनी का हक़ अदा कर दिया। दिल-फ़िगार इस नज़ारे से बेहद मुतास्सिर हुआ। और उसके दिल ने कहा, बेशक दुनिया में इस क़तरा ख़ून से बेश-क़ीमत शय नहीं हो सकती। उसने फ़ौरन उस रश्क-ए-लाल-ए-रमानी को हाथ में ले लिया। और उस दिलेर राजपूत की बिसालत पर अश अश करता हुआ आज़िम-ए-वतन हुआ। और वही सख़्तियाँ झेलता हुआ बिल-आख़िर एक मुद्दत-ए-दराज़ में मलिका अक़्लीम-ए-ख़ूबी और दर-ए-सदफ़-ए-महबूबी के दर-ए-दौलत पर जा पहुँचा। और पैग़ाम दिया कि दिल-फ़िगार सुर्ख़-रू-ओ-कामगार लौटा है और दरबार-ए-गहर-बार में हाज़िर होना चाहता है। दिल-फ़रेब ने उसे फ़ौरन हाज़िर होने का हुक्म दिया। ख़ुद हस्ब-ए-मामूली पर्दा-ए-ज़र-निगार के पसे-पुश्त बैठी और बोली, “दिल-फ़िगार! अब की तू बहुत दिनों के बाद वापिस आया है। ला दुनिया की सब से बेश-क़ीमत चीज़ कहाँ है? दिल-फ़िगार ने पंजा-ए-हिनाई का बोसा लेकर वह क़तरा-ए-ख़ून उस पर रख दिया। और उसकी मुशर्रह कैफ़ियत पुर-जोश लहजे में कह सुनाई। वो ख़ामोश भी न होने पाया था कि यकायक वो पर्दा-ए-ज़र-निगार हट गया और दिल-फ़िगार के रू-ब-रू एक दरबार हुस्न-ए-आरास्ता नज़र आया। जिस में एक नाज़नीन-ए-रश्क-ए-ज़ुलेख़ा थी, दिल-फ़रेब ब-सद-शान-ए-रानाई मस्नद-ज़रीं-कार पर जल्वा-अफ़रोज़ थी। दिल-फ़िगार ये तिलिस्म-ए-हुस्न देख कर मुतहय्यर हो गया। और नक़्श-ए-दीवार की तरह सकते में आ गया कि दिल-फ़रेब मस्नद से उठी और कई क़दम आगे बढ़ कर उसके हम-आग़ोश हो गई। रक़सान-ए-दिल-नवाज़ ने शादयाने गाने शुरू किए। हाशिया -नशीनान-ए-दरबार ने दिल-फ़िगार को नज़रें गुज़ारीं। और माह-ओ-ख़ुरशीद को ब-इज़्ज़त तमाम मस्नद पर बैठा दिया। जब नग़्मा-ए-दिल-पसंद बंद हुआ तो दिल-फ़रेब खड़ी हो गई। और दस्त-बस्ता हो कर दिल-फ़िगार से बोली, “ऐ आशिक़-ए-जाँनिसार दिल-फ़िगार! मेरी दुआएँ तीर-ब-हदफ़ हुईं और ख़ुदा ने मेरी सुन ली और तुझे कामयाब-ओ-सुर्ख़-रू किया। आज से तू मेरा आक़ा है और मैं तेरी कनीज़ ना-चीज़।”

ये कह कर उसने एक मुरस्सा सन्दूकचा मँगाया और उसमें से एक लौह निकाला जिस पर आब-ए-ज़र से लिखा हुआ था,
“वो आख़िरी क़तरा-ए-ख़ून जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे, दुनिया की सब से बेश-क़ीमत शय है।”


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