बाग़ में जितने फूल थे। सबके सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उसकी एक एक रग आतिशीं जज़्बे के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उसने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़ रख कर अपने साथीयों से मुख़ातिब हुआ, “किसी को कोई हक़ हासिल नहीं कि हमारे पसीने से अपने ऐश का सामान मुहय्या करे... हमारी ज़िंदगी की बहारें हमारे लिए हैं और हम इसमें किसी की शिरकत गवारा नहीं कर सकते!” गुलाब का मुँह ग़ुस्से से लाल हो रहा था। उसकी पंखुड़ियां थरथरा रही थीं। चंबली की झाड़ी में तमाम कलियां ये शोर सुन कर जाग उठीं और हैरत में एक दूसरे का मुँह तकने लगीं। गुलाब की मर्दाना आवाज़ फिर बुलंद हुई, “हर ज़ी रूह को अपने हुक़ूक़ की निगरानी का हक़ हासिल है और हम फूल इससे मुस्तस्ना नहीं हैं। हमारे क़ुलूब ज़्यादा नाज़ुक और हस्सास हैं। गर्म हवा का एक झोंका हमारी दुनिया-ए-रंग-ओ-बू को जला कर ख़ाकिस्तर कर सकता है और शबनम का एक बेमानी क़तरा हमारी प्यास बुझा सकता है। क्या हम इस काने माली के खुरदरे हाथों को बर्दाश्त कर सकते हैं जिस पर मौसमों के तग़य्युर-ओ-तबद्दुल का कुछ असर ही नहीं होता?” मोतिया के फूल चिल्लाए, “हर्गिज़ नहीं।” लाला की आँखों में ख़ून उतर आया और कहने लगा, “उसके ज़ुल्म से मेरा सीना दागदार होरहा है। मैं पहला फूल हूँगा जो उस जल्लाद के ख़िलाफ़ बग़ावत का सुर्ख़ झंडा बुलंद करेगा।” ये कह कर वह ग़ुस्से से थरथर काँपने लगा। चम्बेली की कलियां मुतहय्यर थीं कि ये शोर क्यों बुलंद हो रहा है। एक कली नाज़ के साथ गुलाब के पौदे की तरफ़ झुकी और कहने लगी, “तुमने मेरी नींद ख़राब करदी है। आख़िर गला फुला फुला कर क्यों चिल्ला रहे हो?” गुल-ए-खैरा जो दूर खड़ा गुलाब की क़ाइदाना तक़रीर पर ग़ौर कर रहा था बोला, “क़तरा-क़तरा मिल कर दरिया बनता है। गो हम नातवां फूल हैं लेकिन अगर हम सब मिल जाएं तो कोई वजह नहीं कि हम अपनी जान के दुश्मन को पीस कर न रख दें। हमारी पत्तियां अगर ख़ुशबू पैदा करती हैं तो ज़हरीली गैस भी तैयार कर सकती हैं... भाईयो! गुलाब का साथ दो और अपनी फ़तह समझो।” ये कह कर उस ने उख़ुव्वत के जज़्बे के साथ हर फूल की तरफ़ देखा। गुलाब कुछ कहने ही वाला था कि चम्बेली की कली ने अपने मर्मरीं जिस्म पर एक थरथरी पैदा करते हुए कहा, “ये सब बेकार बातें हैं... आओ तुम मुझे शे'र सुनाओ, मैं आज तुम्हारी गोद में सोना चाहती हूँ... तुम शायर हो, मेरे प्यारे आओ हम बहार के इन ख़ुशगवार दिनों को ऐसी फ़ुज़ूल बातों में ज़ाए न करें और उस दुनिया में जाएं जहां नींद ही नींद है... मीठी और राहत बख़्श नींद!” गुलाब के सीने में एक हैजान बरपा हो गया। उसकी नब्ज़ की धड़कन तेज़ होगई, उसे ऐसा महसूस हुआ कि वो किसी अथाह गहराई में उतर रहा है। उसी ने कली की गुफ़्तगु के असर को दूर करने की सई करते हुए कहा, “नहीं मैं मैदान-ए-जंग में उतरने की क़सम खा चुका हूँ। अब ये तमाम रुमान मेरे लिए मुहमल हैं।” कली ने अपने लचकीले जिस्म को बल दे कर ख़्वाबगूं लहजे में कहा, “आह, मेरे प्यारे गुलाब, ऐसी बातें न करो, मुझे वहशत होती है... चांदनी रातों का ख़याल करो... जब मैं अपना लिबास उतार कर इस नूरानी फव्वारे के नीचे नहाऊँगी तो तुम्हारे गालों पर सुर्ख़ी का उतार चढ़ाओ मुझे कितना प्यारा मालूम होगा और तुम मेरे सीमीं लब किस तरह दीवानावार चूमोगे... छोड़ो इन फ़ुज़ूल बातों को, मैं तुम्हारे कांधे पर सर रख कर सोना चाहती हूँ।” और चम्बेली की नाज़ुक अदा कली गुलाब के थर्राते हुए गाल के साथ लग कर सो गई... गुलाब मदहोश होगया। चारों तरफ़ से एक अर्से तक दूसरे फूलों की सदाएं बुलंद होती रहीं मगर गुलाब न जागा... सारी रात वो मख़मूर रहा। सुबह काना माली आया। उसने गुलाब के फूल की टहनी के साथ चम्बेली की कली चिमटी हुई पाई। उसने अपना खुरदरा हाथ बढ़ाया और दोनों को तोड़ लिया...