“मेरी तो आपने ज़िंदगी हराम कर रखी है… ख़ुदा करे मैं मर जाऊं।” “अपने मरने की दुआएं क्यों मांगती हो। मैं मर जाऊं तो सारा क़िस्सा पाक हो जाएगा... कहो तो मैं अभी ख़ुदकुशी करने के लिए तैयार हूँ। यहां पास ही अफ़ीम का ठेका है। एक तोला अफ़ीम काफ़ी होगी।” “जाओ, सोचते क्या हो।” “जाता हूँ... तुम उठो और मुझे... मालूम नहीं एक तोला अफ़ीम कितने में आती है। तुम मुझे अंदाज़न दस रुपय दे दो।” “दस रुपये?” “हाँ भई... अपनी जान गंवानी है... दस रुपये ज़्यादा तो नहीं।” “मैं नहीं दे सकती।” “ज़रूर आपको अफ़ीम ख़ा के ही मरना है?” “संख्या भी हो सकता है।” “कितने में आएगा?” “मालूम नहीं... मैंने आज तक कभी संख्या नहीं खाई।” “आपको हर चीज़ का इल्म है, बनते क्यों हैं?” “बना तुम मुझे रही हो... भला मुझे ज़हरों की क़ीमतों के मुतअ’ल्लिक़ क्या इल्म हो सकता है।” “आपको हर चीज़ का इल्म है।” “तुम्हारे मुतअ’ल्लिक़ तो मैं अभी तक कुछ भी न जान सका।” “इसलिए कि आपने मेरे मुतअ’ल्लिक़ कभी सोचा ही नहीं।” “ये सरीहन तुम्हारी ज़्यादती है... पाँच बरस हो गए हैं। तुम इनमें से कोई ऐसा दिन पेश करो जब मैंने तुम्हारे मुतअ’ल्लिक़ न सोचा हो।” “हटाईए... इन पाँच बरसों के जितने दिन होते हैं, उनमें आप मुझसे यही ख़ुराफ़ात कहते रहे हैं।” “तुम हक़ीक़त को ख़ुराफ़ात कहती हो? मैं अब क्या कहूं।” “जो कहना चाहते हैं कह डालिए... आप की ज़बान में लगाम ही कहाँ है।” “फिर तुम ने बद-ज़ुबानी शुरू कर दी।” “बद-ज़ुबान तो आप हैं... मैंने इन पाँच बरसों में, आप सर पर क़ुरआन उठा कर कहिए, कब आपसे इस क़िस्म की गुस्ताख़ी की है? गुस्ताख होंगे आपके...” “रुक क्यों गई हो... जो कहना चाहती हो कह दो।” “में कुछ कहना नहीं चाहती... आपसे कोई क्या कहे... आप तो ये चाहते हैं कि आदमी को तकलीफ़ पहुंचे, लेकिन वो उफ़ भी न करे। मैं तो ऐसी ज़िंदगी से घबरा गई हूँ, यहाँ आकर।” “तुम चाहती क्या हो, ये भी तो पता चले।” मैं कुछ नहीं चाहती।” “फिर ये गिले शिकवे क्या मा’नी रखते हैं?” “इनके मा’नी आप बख़ूबी समझते हैं। अंजान क्यों बनते हैं? इन गिले शिकवों के पीछे कोई बात तो होगी।” “क्या?” “मैं क्या जानूं।” “ये अ’जीब मंतिक़ है... ख़ुद ही फाड़ती हो ख़ुद ही रफू करती हो... जो सही बात है उसको बताती क्यों नहीं हो... मेरी समझ में नहीं आता, ये हर रोज़ के झगड़े हमें कहाँ ले जाऐंगे।” “जहन्नम में।” “वहां भी तो हमारा साथ होगा।” “मैं तो वहां बिल्कुल नहीं जाऊंगी।” “तो कहाँ होगी तुम?” “मुझे मालूम नहीं।” “तुम्हें बहुत सी बातें मालूम नहीं होतीं... सबसे बड़ी बात मेरी मुहब्बत है, जिसका एहसास तुम्हें अभी तक नहीं हुआ... मेरी समझ में नहीं आता... या मैंने उसके इज़हार में बुख़्ल किया है, या तुम में वो हिस नहीं जो उस जज़्बे को पहचान सके।” “कैसे?” “ये भी कोई बात है। इन पाँच बरसों में हर रोज़... हर रोज़...” “यही तो मेरी मुहब्बत का सुबूत है।” “ला’नत है ऐसी मुहब्बत से कि आदमी तंग आजाए।” “मुहब्बत से कौन तंग आ सकता है?” “मेरी मिसाल मौजूद है।” “इसका मतलब ये है कि तुम ने इक़रार किया है कि मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ?” “मैंने कब इक़रार किया है।” “ये इक़रार ही तो था।” “होगा।” “होगा नहीं... था... लेकिन तुम मानोगी नहीं। इसलिए कि ज़िद्दी हो। मेरी समझ में नहीं आता कि औरतों की नफ़्सियात क्या हैं। जब उनसे प्यार किया जाये तो घबरा जाती हैं, और जब उनसे ज़रा बे-ए’तिनाई बरती जाये तो बरहम हो जाती हैं।” “महज़ बकवास है।” “इसलिए कि ये पुर-ख़ुलूस ख़ाविंद की ज़बान से निकली है।” “हटाईए... आपका ख़ुलूस मैं देख चुकी हूँ।” “जब देख चुकी हो तो ईमान क्यों नहीं लाती हो?” “मुझे तंग न कीजिए, मेरी तबीयत ख़राब है। मुझे कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती...” “अपने आपको भी अच्छा नहीं समझती?” “ख़ुदा की क़सम... आज नहीं।” “कल तो अच्छा समझोगी।” “मुझे कुछ मालूम नहीं।” “ये अ’जीब बात है कि तुम्हें सब कुछ मालूम होता है... मगर तुम्हें मालूम नहीं होता... ये क्या सिलसिला है? तुम साफ़ अल्फ़ाज़ में ये क्यों नहीं कह देतीं कि तुम मुझ से नफ़रत करती हो।” “तो सुन लीजिए... मैं आपसे नफ़रत करती हूँ।” “मुझे ये सुन कर बड़ा दुख हुआ है... मैंने तुम्हारी हर आसाइश का ख़याल रखा...” “लेकिन एक बात का ख़याल नहीं रखा।” “किस बात का?” “आप अक़लमंद हैं... ख़ुद समझिए... मैं क्यों बताऊं?” “कोई इशारा तो कर दो।” “मैं ऐसी इशारे बाज़ियां नहीं जानती।” “तुमने ऐसी गुफ़्तुगू कहाँ से सीखी है?” “आप से” “मुझसे? मुझे हैरत है कि ये इल्ज़ाम तुमने मुझ पर क्यों लगाया है।” “आप पर तो हर इल्ज़ाम लग सकता है।” “मिसाल के तौर पर?” “मैं आपको मिसाल नहीं दे सकती... ख़ुदा के लिए ये गुफ़्तगु बंद कीजिए, मैं तंग आ गई हूँ... बस, मैंने कह दिया है कि मुझे...” “क्या?” “या अल्लाह मेरी तौबा! मुझे ज़्यादा तंग न कीजिए... मेरा जी चाहता है अपने सर के बाल नोचना शुरू करदूँ।” “मेरा सर मौजूद है... तुम इसके बाल बड़े शौक़ से नोच सकती हो।” “आपको तो अपने बाल बड़े अ’ज़ीज़ हैं।” “इंसान को अपनी हर चीज़ अ’ज़ीज़ होती है।” “लेकिन मर्दों के सर पर बालों के छत्ते भड़ों के छत्ते मालूम होते हैं... आप मालूम नहीं बाल कटवाने से क्यों परहेज़ करते हैं।” “मैं परहेज़ी आदमी हूँ।” “इस क़दर झूट... अभी परसों आपने मुझसे कहा कि आपने एक पार्टी में शराब पी थी।” “लाहौल वला... मैंने तो सिर्फ़ शीरी का एक गिलास पिया था।” “वो क्या बला होती है?” बड़ी बेज़रर क़िस्म की चीज़ है।” “तुम्हारी बद-ज़ुबानियां कहीं मुझे भी बद-ज़ुबान न बना दें।” “जैसे आप बद-ज़ुबान नहीं हैं।” “बद-ज़ुबान तुम्हारा बाप था... जानती हो... वो हर बात में मुग़ल्लज़ात बकता था।” “मैं कहती हूँ मेरे मुए बाप के मुतअ’ल्लिक़ कुछ न कहिए... आप बड़े वाहियात होते जा रहे हैं।” “वाहियात कैसे होता जा रहा हूँ?” “मैं नहीं जानती।” “जानने के बग़ैर तुमने ये फ़त्वा कैसे आ’इद कर दिया।” “मैं ये पूछना चाहती हूँ कि आपने इतने बाल क्यों बढ़ा रखे हैं, मुझे वहशत होती है।” “बस इतनी सी बात थी जिसको तुमने बतंगड़ बना दिया... मैं जा रहा हूँ।” “कहाँ?” “बस जा रहा हूँ।” “ख़ुदा के लिए मुझे बता दीजिए... मैं ख़ुदकुशी कर लूंगी।” “मैं नुसरत हेयर कटिंग सैलून में जा रहा हूँ।”