हरनाम कौर

निहाल सिंह को बहुत ही उलझन हो रही थी। स्याह-व-सफ़ेद और पत्ली मूंछों का एक गुच्छा अपने मुँह में चूसते हुए वो बराबर दो ढाई घंटे से अपने जवान बेटे बहादुर की बाबत सोच रहा था।
निहाल सिंह की अधेड़ मगर तेज़ आँखों के सामने वो खुला मैदान था जिसपर वो बचपन में बरंटों से कबड्डी तक तमाम खेल खेल चुका था। किसी ज़माने में वो गांव का सबसे निडर और जियाला जवान था। किमाद और मकई के खेतों में उसने कई हटीली मुटियारों को कलाई के एक ही झटके से अपनी मर्ज़ी का ताबे’ बनाया। थूक फेंकता था तो पंद्रह गज़ दूर जा के गिरती थी। क्या रंगीला सजीला जवान था। लहरिया पगड़ी बांध कर और हाथ में छुरी लेकर जब मेले ठेले को निकलता तो बड़े बूढ़े पुकार उठते। “किसी को सुंदर जाट देखना है तो सरदार निहाल सिंह को देख ले।”

सुंदर जाट तो डाकू था। बहुत बड़ा डाकू जिसके गाने अभी तक लोगों की ज़बान पर थे लेकिन निहाल सिंह डाकू नहीं था। उसकी जवानी में दरअसल कृपान की सी तेज़ी थी। यही वजह है कि औरतें उस पर मरती थीं। हरनाम कौर का क़िस्सा तो अभी गांव में मशहूर था कि उस बिजली ने कैसे एक दफ़ा सरदार निहाल सिंह को क़रीब क़रीब भस्म कर डाला था।
निहाल सिंह ने हरनाम कौर के मुतअ’ल्लिक़ सोचा तो एक लहज़े के लिए उसकी अधेड़ हड्डियों में बीती हुई जवानी कड़-कड़ा उठी। क्या पतली छमक जैसी नार थी। छोटे छोटे लाल होंट जिनको वो हर वक़्त चूसती रहती। एक रोज़ जबकि बेरियों के बेर पके हुए थे, सरदार निहाल सिंह से उसकी मुडभेड़ हो गई। वो ज़मीन पर गिरे हुए बेर चुन रही थी और अपने छोटे छोटे लाल होंट चूस रही थी। निहाल सिंह ने आवाज़ा कसा, “केहड़े यार दातता दुध पीता... सड़गया्यं लाल बुल्लियां?”

हरनाम कौर ने पत्थर उठाया और तान कर उसको मारा। निहाल सिंह ने चोट की पर्वा न की और आगे बढ़ कर उसकी कलाई पकड़ ली लेकिन वो बिजली की सी तेज़ी से मच्छी की तरह तड़प कर अलग हो गई और ये जा वो जा। निहाल सिंह को जैसे किसी ने चारों शाने चित्त गिरा दिया। शिकस्त का ये एहसास और भी ज़्यादा हो गया, जब ये बात सारे गांव में फैल गई।
निहाल सिंह ख़ामोश रहा। उसने दोस्तों दुश्मनों सबकी बातें सुनीं पर जवाब न दिया। तीसरे रोज़ दूसरी बार उसकी मुडभेड़ गुरुद्वारा साहिब से कुछ दूर बड़की घनी छाओं में हुई। हरनाम कौर ईंट पर बैठी अपनी गुरगाबी को कीलें अंदर ठोंक रही थी। निहाल सिंह को पास देख कर वो बिदकी, पर अब के उसकी कोई पेश न चली।

शाम को जब लोगों ने निहाल सिंह को बहुत ख़ुश ख़ुश ऊंचे सुरों में, “नी हरनाम कौरे, ओ-नारे...” गाते सुना तो उनको मालूम हो गया, कौन सा क़िला सर हुआ है... लेकिन दूसरे रोज़ निहाल सिंह ज़िना बिल जब्र के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार हुआ और थोड़ी सी मुक़दमेबाज़ी के बाद उसे छः साल की सज़ा हो गई।
छः साल के बजाय निहाल सिंह को साढे़ सात साल की क़ैद भुगतनी पड़ी क्योंकि जेल में उसका दो दफ़ा झगड़ा हो गया था। लेकिन निहाल सिंह को उसकी कुछ पर्वा न थी। क़ैद काट कर जब गांव रवाना हुआ और रेल की पटड़ी तय कर के मुख़्तलिफ़ पगडंडियों से होता हुआ गुरुद्वारे के पास से गुज़र कर बड़ के घने दरख़्त के क़रीब पहुंचा तो उसने क्या देखा कि हरनाम कौर खड़ी है और अपने होंट चूस रही है। इससे पेशतर कि निहाल सिंह कुछ सोचने या कहने पाए, वो आगे बढ़ी और उसकी चौड़ी छाती के साथ चिमट गई।

निहाल सिंह ने उसको अपनी गोद में उठा लिया और गांव के बजाय किसी दूसरी तरफ़ चल दिया... हरनाम कौर ने पूछा, “कहाँ जा रहे हो?”
निहाल सिंह ने नारा लगाया, “जो बोले सो निहाल, सत सिरी अकाल।” दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।

निहाल सिंह ने हरनाम कौर से शादी कर ली और चालीस कोस के फ़ासले पर दूसरे गांव में आबाद हो गया। यहां बड़ी मिन्नतों से छः बरस के बाद बहादुर पैदा हुआ और बैसाखी के रोज़ जब कि वो अभी पूरे ढाई महीने का भी नहीं हुआ था, हरनाम कौर के माता निकली और वो मर गई।
निहाल सिंह ने बहादुर की परवरिश अपनी बेवा बहन के सिपुर्द कर दी जिसकी चार लड़कियां थीं छोटी छोटी... जब बहादुर आठ बरस का हुआ तो निहाल सिंह उसे अपने पास ले आया।

चार बरस हो चले थे कि बहादुर अपने बाप की निगरानी में था। शक्ल सूरत में वो बिल्कुल अपनी माँ जैसा था, उसी तरह दुबला पतला और नाज़ुक। कभी कभी अपने पतले पतले लाल लाल होंट चूसता तो निहाल सिंह अपनी आँखें बंद कर लेता।
निहाल सिंह को बहादुर से बहुत मोहब्बत थी। चार बरस उसने बड़े चाव से नहलाया-धुलाया। हर रोज़ दही से ख़ुद उसके केस धोता, उसे खिलाता, बाहर सैर के लिए ले जाता, कहानियां सुनाता। वर्ज़िश कराता मगर बहादुर को इन चीज़ों से कोई रग़्बत न थी। वह हमेशा उदास रहता। निहाल सिंह ने सोचा, इतनी देर अपनी फूफी के पास जो रहा है, इसलिए उदास है। चुनांचे फिर उसको अपनी बहन के पास भेज दिया और ख़ुद फ़ौज में भर्ती हो कर लाम पर चला गया।

चार बरस और गुज़र गए। लड़ाई बंद हुई और निहाल सिंह जब वापस आया तो वो पचास बरस के बजाय साठ-बासठ बरस का लगता था। इसलिए उसने जापानियों की क़ैद में ऐसे दुख झेले थे कि सुन कर आदमी के रोंगटे खड़े होते थे।
अब बहादुर की उम्र निहाल सिंह के हिसाब के मुताबिक़ सोलह के लगभग थी मगर वो बिल्कुल वैसा ही था जैसा चार बरस पहले था... दुबला पतला, लेकिन ख़ूबसूरत।

निहाल सिंह ने सोचा कि उसकी बहन ने बहादुर की परवरिश दिल से नहीं की। अपनी चार लड़कियों का ध्यान रखा जो बछेरियों की तरह हर वक़्त आंगन में कुदक्कड़े लगाती रहती हैं। चुनांचे झगड़ा हुआ और वो बहादुर को वहां से अपने गांव ले गया।
लाम पर जाने से उसके खेत खलियान और घर बार का सत्यानास हो गया था। चुनांचे सबसे पहले निहाल सिंह ने उधर ध्यान दिया और बहुत ही थोड़े अ’र्से में सब ठीक ठाक कर लिया। इसके बाद उसने बहादुर की तरफ़ तवज्जो दी। उसके लिए एक भूरी भैंस ख़रीदी। मगर निहाल सिंह को इस बात का दुख ही रहा कि बहादुर को दूध, दही और मक्खन से कोई दिलचस्पी नहीं थी। जाने कैसी ऊट-पटांग चीज़ें उसे भाती थीं। कई दफ़ा निहाल सिंह को ग़ुस्सा आया मगर वो पी गया। इसलिए कि उसे अपने लड़के से बेइंतिहा मोहब्बत थी।

हालाँकि बहादुर की परवरिश ज़्यादा तर उसकी फूफी ने की थी मगर उसकी बिगड़ी हुई आदतें देख कर लोग यही कहते थे कि निहाल सिंह के लाड प्यार ने उसे ख़राब किया है और यही वजह है कि वो अपने हम उम्र नौजवानों की तरह मेहनत मशक़्क़त नहीं करता। गो निहाल सिंह की हरगिज़ ख़्वाहिश नहीं थी कि उसका लड़का मज़दूरों की तरह खेतों में काम करे और सुबह से लेकर दिन ढलने तक हल चलाए।
वाह-गुरूजी की कृपा से उसके पास बहुत कुछ था। ज़मीनें थीं, जिनसे काफ़ी आमदन हो जाती थी। सरकार से जो अब पेंशन मिल रही थी, वो अलग थी। लेकिन फिर भी उसकी ख़्वाहिश थी, कि बहादुर कुछ करे... क्या? ये निहाल सिंह नहीं बता सकता था। चुनांचे कई बार उसने सोचा कि वो बहादुर से क्या चाहता है। मगर हर बार बजाए इसके कि उसे कोई तसल्ली बख़्श जवाब नहीं मिलता। उसकी बीती हुई जवानी के दिन एक एक कर के उसकी आँखों के सामने आने लगते और वो बहादुर को भूल कर उस गुज़रे हुए ज़माने की यादों में खो जाता।

लाम से आए निहाल सिंह को दो बरस हो चले थे। बहादुर की उम्र अब अठारह के लगभग थी... अठारह बरस का मतलब ये है कि भरपूर जवानी, निहाल सिंह जब ये सोचता तो झुँझला जाता। चुनांचे ऐसे वक़्तों में कई दफ़ा उसने अपना सर झटक कर बहादुर को डाँटा। नाम तेरा मैंने बहादुर रखा है, कभी बहादुरी तो दिखा, और बहादुर होंट चूस कर मुस्कुरा देता।
निहाल सिंह ने एक दफ़ा सोचा कि बहादुर की शादी कर दे। चुनांचे उसने इधर उधर कई लड़कियां देखीं। अपने दोस्तों से बात-चीत भी की। मगर जब उसे जवानी याद आई तो उसने फ़ैसला कर लिया कि नहीं, बहादुर मेरी तरह अपनी शादी आप करेगा। कब करेगा, ये उसको मालूम नहीं था। इसलिए कि बहादुर में अभी तक उसने वो चमक नहीं देखी थी, जिससे वो अंदाज़ा लगाता कि उसकी जवानी किस मरहले में है... लेकिन बहादुर ख़ूबसूरत था। सुंदर जाट नहीं था, लेकिन सुंदर ज़रूर था। बड़ी बड़ी काली आँखें, पतले पतले लाल होंट, सुतवां नाक, पतली कमर। काले भंवरा ऐसे केस मगर बाल बहुत ही महीन।

गांव की जवान लड़कियां दूर से उसे घूर घूर के देखतीं। आपस में कानाफूसी करतीं मगर वो उनकी तरफ़ ध्यान न देता। बहुत सोच बिचार के बाद निहाल सिंह इस नतीजे पर पहुंचा, शायद बहादुर को ये तमाम लड़कियां पसंद नहीं और ये ख़याल आते ही उसकी आँखों के सामने हरनाम कौर की तस्वीर आ गई। बहुत देर तक वह उसे देखता रहा। इसके बाद उसको हटा कर उसने गांव की लड़कियां लीं।
एक एक कर के वह उन तमाम को अपनी आँखों के सामने लाया मगर हरनाम कौर के मुक़ाबले में कोई भी पूरी न उतरी... निहाल सिंह की आँखें तमतमा उठीं, “बहादुर मेरा बेटा है। ऐसी वैसियों की तरफ़ तो वो आँख उठाकर भी नहीं देखेगा।”

दिन गुज़रते गए। बेरियों के बेर कई दफ़ा पके, मकई के बूटे खेतों में कई दफ़ा निहाल सिंह के क़द के बराबर जवान हुए। कई सावन आए मगर बहादुर की यारी किसी के साथ न लगी और निहाल सिंह की उलझन फिर बढ़ने लगी।
थक हार कर निहाल सिंह दिल में एक आख़िरी फ़ैसला करके बहादुर की शादी के मुतअ’ल्लिक़ सोच ही रहा था कि एक गड़बड़ शुरू हो गई। भांत भांत की ख़बरें गांव में दौड़ने लगीं। कोई कहता अंग्रेज़ जा रहा है। कोई कहता रूसियों का राज आने वाला है। एक ख़बर लाता कांग्रेस जीत गई है। दूसरा कहता नहीं रेडियो में आया है कि मुल्क बट जाएगा। जितने मुँह, उतनी बातें।

निहाल सिंह का तो दिमाग़ चकरा गया। उसे उन ख़बरों से कोई दिलचस्पी नहीं थी। सच पूछिए तो उसे उस जंग से भी कोई दिलचस्पी नहीं थी, जिसमें वो पूरे चार बरस शामिल रहा था। वो चाहता था कि आराम से बहादुर की शादी हो जाये और घर में उसकी बहू आ जाए।
लेकिन एक दम जाने क्या हुआ। ख़बर आई कि मुल्क बट गया है। हिंदू-मुसलमान अलग अलग हो गए हैं। बस फिर क्या था चारों तरफ़ भगदड़ सी मच गई। चल चलाव शुरू हो गया और फिर सुनने में आया कि हज़ारों की तादाद में लोग मारे जा रहे हैं। सैंकड़ों लड़कियां अग़वा की जा रही हैं, लाखों का माल लूटा जा रहा है।

कुछ दिन गुज़र गए तो पक्की सड़क पर क़ाफ़िलों का आना जाना शुरू हुआ। गांव वालों को जब मालूम हुआ तो मेले का समां पैदा हो गया। लोग सौ सौ, दो दो सौ की टोलियां बना कर जाते। जब लौटते तो उनके साथ कई चीज़ें होतीं। गाय, भैंस, बकरियां, घोड़े, ट्रंक, बिस्तर और जवान लड़कियां।
कई दिनों से ये सिलसिला जारी था। गांव का हर जवान कोई न कोई कारनामा दिखा चुका था, हत्ता कि मुखिया का नाटा और कुबड़ा लड़का दरयाम सिंह भी... उसकी पीठ पर बड़ा कोहान था, टांगें टेढ़ी थीं, मगर ये भी चार रोज़ हुए पक्की सड़क पर से गुज़रने वाले एक क़ाफ़िले पर हमला करके एक जवान लड़की उठा लाया था। निहाल सिंह ने उस लड़की को अपनी आँखों से देखा था। ख़ूबसूरत थी, बहुत ही ख़ूबसूरत थी लेकिन निहाल सिंह ने सोचा कि हरनाम कौर जितनी ख़ूबसूरत नहीं है।

गांव में कई दिनों से ख़ूब चहल पहल थी। चारों तरफ़ जवान शराब के नशे में धुत बोलियां गाते फिरते थे। कोई लड़की भाग निकलती तो सब उसके पीछे शोर मचाते दौड़ते, कभी लूटे हुए माल पर झगड़ा हो जाता तो नौबत मरने-मारने पर आ जाती। चीख़-व-पुकार तो हर घड़ी सुनाई देती थी। ग़रज़ ये कि बड़ा मज़ेदार हंगामा था लेकिन बहादुर ख़ामोश घर में बैठा रहता।
शुरू शुरू में तो निहाल सिंह बहादुर की इस ख़ामोशी के मुतअ’ल्लिक़ बिल्कुल ग़ाफ़िल रहा लेकिन जब हंगामा और ज़्यादा बढ़ गया और लोगों ने मज़ाक़िया लहजे में उससे कहना शुरू किया, “क्यों सरदार निहाल सय्यां, तेरे बहादुर ने सुना है बड़ी बहादुरियां दिखाती हैं?” तो वो पानी पानी हो गया।

चौपाल पर एक शाम को यरक़ान के मारे हुए हलवाई बिशेशर ने दून की फेंकी और निहाल सिंह से कहा, “दो तो मेरा गंडा सिंह लाया है... एक मैं लाया हूँ बंद बोतल”, और ये कहते हुए बिशेशर ने ज़बान से पटाख़े की आवाज़ पैदा की जैसे बोतल में से काग उड़ता है। “नसीबों वाला ही खोलता है ऐसी बंद बोतलें सरदार निहाल सय्यां।”
निहाल सिंह का जी जल गया। क्या था बिशेशर और क्या था गंडा सिंह? एक यरक़ान का मारा हुआ, दूसरा तपेदिक़ का... मगर जब निहाल सिंह ने ठंडे दिल से सोचा तो उसको बहुत दुख हुआ। क्योंकि जो कुछ बिशेशर ने कहा हक़ीक़त थी। बिशेशर और उसका लड़का गंडा सिंह कैसे भी थे। मगर तीन जवान लड़कियां, उनके घर में वाक़ई मौजूद थीं और चूँकि बिशेशर का घर उसके पड़ोस में था, इस लिए कई दिनों से निहाल सिंह उन तीनों लड़कियों के मुसलसल रोने की आवाज़ सन रहा था।

गुरुद्वारे के पास एक रोज़ दो जवान बातें कर रहे थे और हंस रहे थे।
“निहाल सय्याँ के बारे में तो बड़ी बातें मशहूर हैं।”

“अरे छोड़, बहादुर तो चूड़ियां पहन कर घर में बैठा है।”
निहाल सिंह से अब न रहा गया। घर पहुंच कर उसने बहादुर को बहुत ग़ैरत दिलाई और कहा, “तू ने सुना लोग क्या कहते फिरते हैं... चूड़ियां पहन कर घर में बैठा है तू। क़सम वाह-गुरुजी की, तेरी उम्र का था तो सैंकड़ों लड़कियां मेरी इन टांगों...”

निहाल सिंह एक दम ख़ामोश हो गया क्यों कि शर्म के मारे बहादुर का चेहरा लाल हो गया था। बाहर निकल कर वह देर तक सोचता चला गया और सोचता सोचता कुँवें की मुंडेर पर बैठ गया... उसकी अधेड़ मगर तेज़ आँखों के सामने वो खुला मैदान था जिसपर ब्रंटों से ले कर कबड्डी तक तमाम खेल खेल चुका था।
बहुत देर तक निहाल सिंह इस नतीजे पर पहुंचा कि बहादुर शर्मीला है और ये शर्मीलापन उसमें ग़लत परवरिश की वजह से पैदा हुआ है। चुनांचे उसने दिल ही दिल में अपनी बहन को बहुत गालियां दीं और फ़ैसला किया कि बहादुर के शर्मीलेपन को किसी न किसी तरह तोड़ा जाये और इसके लिए निहाल सिंह के ज़ेहन में एक ही तरकीब आई।

ख़बर आई कि रात को कच्ची सड़क पर से एक क़ाफ़िला गुज़रने वाला है। अंधेरी रात थी, जब गांव से एक टोली उस क़ाफ़िले पर हमला करने के लिए निकली तो निहाल सिंह भी ठाठा बांध कर उनके साथ हो लिया।
हमला हुआ। क़ाफ़िले वाले निहत्ते थे, फिर भी थोड़ी सी झपट हुई लेकिन फ़ौरन ही क़ाफ़िले वाले इधर उधर भागने लगे। हमला करने वाली टोली ने उस अफ़रा-तफ़री से फ़ायदा उठाया और लूट मार शुरू कर दी। लेकिन निहाल सिंह को माल-ओ-दौलत की ख़्वाहिश नहीं थी। वह किसी और ही चीज़ की ताक में था।

सख़्त अंधेरा था गो गांव वालों ने मशालें रोशन की थीं मगर भाग-दौड़ और लूट-खसोट में बहुत सी बुझ गई थीं। निहाल सिंह ने अंधेरे में कई औरतों के साये दौड़ते देखे मगर फ़ैसला न कर सका कि इनमें से किस पर हाथ डाले। जब काफ़ी देर हो गई और लोगों की चीख़-व-पुकार मद्धम पड़ने लगी तो निहाल सिंह ने बेचैनी के आलम में इधर उधर दौड़ना शुरू किया। एक दम तेज़ी से एक साया बग़ल में गठड़ी दबाये उसके सामने से गुज़रा।
निहाल सिंह ने उसका तआ’क़ुब किया। जब पास पहुंचा तो उसने देखा कि लड़की है और जवान... निहाल सिंह ने फ़ौरन अपने गाढ़े की चादर निकाली और उस पर जाल की तरह फेंकी। वो फंस गई। निहाल सिंह ने उसे काँधों पर उठा लिया और एक ऐसे रास्ते से घर का रुख़ किया कि उसे कोई देख न ले।

मगर घर पहुंचा तो बत्ती गुल थी। बहादुर अंदर कोठरी में सो रहा था। निहाल सिंह ने उसे जगाना मुनासिब ख़याल न किया। किवाड़ खोला, चादर में से लड़की निकाल कर अंदर धकेल, बाहर से कुंडी चढ़ा दी। फिर ज़ोर ज़ोर से किवाड़ पीटे, ताकि बहादुर जाग पड़े।
जब निहाल सिंह ने मकान के बाहर खटिया बिछाई और बहादुर और उस लड़की की मुडभेड़ की कपकपाहट पैदा करने वाली बातें सोचने के लिए लेटने लगा तो उसने देखा कि बहादुर की कोठड़ी के रोशनदानों में दीये की रोशनी टिमटिमा रही है।

निहाल सिंह उछल पड़ा और एक लहज़े के लिए महसूस किया कि वो जवान है। किमाद के खेतों में मुटियारों को कलाई से पकड़ने वाला नौजवान।
सारी रात निहाल सिंह जागता रहा और तरह तरह की बातें सोचता रहा। सुबह जब मुर्ग़ बोलने लगे तो वह उठ कर कोठड़ी में जाने लगा, मगर ड्युढ़ी से लौट आया। उसने सोचा कि दोनों थक कर सो चुके होंगे और हो सकता है... निहाल सिंह के बदन पर झुरझुरी सी दौड़ गई और वह खाट पर बैठ कर मूंछों के बाल मुँह में डाल कर चूसने और मुस्कराने लगा।

जब दिन चढ़ गया और धूप निकल आई तो उसने अंदर जा कर कुंडी खोली। सटर-पटर की आवाज़ें सी आईं। किवाड़ खोले तो उसने देखा कि लड़की चारपाई पर केसरी दुपट्टा ओढ़े बैठी है। पीठ उसकी तरफ़ थी जिस पर ये मोटी काली चुटिया साँप की तरह लटक रही थी। जब निहाल सिंह ने कोठड़ी के अंदर क़दम रखा तो लड़की ने पांव ऊपर उठा लिये और सिमट कर बैठ गई।
ताक़ में दीया अभी तक जल रहा था। निहाल सिंह ने फूंक मार कर उसे बुझाया और दफ़अ’तन उसे बहादुर का ख़याल आया... बहादुर कहाँ है? उसने कोठड़ी में इधर उधर नज़र दौड़ाई मगर वो कहीं नज़र न आया। दो क़दम आगे बढ़ कर उसने लड़की से पूछा, “बहादुर कहाँ है?”

लड़की ने कोई जवाब न दिया। एक दम सटर-पटर सी हुई और चारपाई के नीचे से एक और लड़की निकली... निहाल सिंह हक्का बक्का रह गया... लेकिन उसने देखा। उसकी हैरतज़दा आँखों ने देखा कि जो लड़की चारपाई से निकल कर बिजली की सी तेज़ी के साथ बाहर दौड़ गई थी। उसके दाढ़ी थी, मुंडी हुई दाढ़ी।
निहाल सिंह चारपाई की तरफ़ बढ़ा, लड़की जो कि उस पर बैठी थी और ज़्यादा सिमट गई मगर निहाल सिंह ने हाथ के एक झटके से उसका मुँह अपनी तरफ़ किया। एक चीख़ निहाल सिंह के हलक़ से निकली और दो क़दम पीछे हट गया, “हरनाम कौर!”

ज़नाना लिबास, सीधी मांग, काली चुटिया... और बहादुर होंट भी चूस रहा था।



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