सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तरफ़ बढ़ाता है और सुनार कहता है, “बस अब दे दो मुझे।” सुनार अपने गाहक को अपनी टूटी हुई ऐ’नक में से देखता है और मुस्कुरा कर कहता है, “छः महीने से अलमारी में बने पड़े थे, आज आए हो तो कहते हो कि हाथों पर सरसों जमा दूँ।” गाहक जिसका नाम चिरंजी है, कुछ शर्मिंदा हो कर कहता है, “क्या बताऊं लाला किरोड़ी मल, इतनी रक़म जमा होने में आती ही नहीं थी। तुम से अलग शर्मिंदा, जोरू से अलग शर्मिंदा। अ’जब आफ़त में जान फंसी हुई थी। जाने इस सोने में क्या कशिश है कि औरतें इस पर जान देती हैं।” सुनार पॉलिश करने के बाद झुमके बड़ी सफ़ाई से काग़ज़ में लपेटता है और चिरंजी के हाथों में रख देता है। चिरंजी काग़ज़ खोल कर झुमके निकालता है। जब वो झुमर झुमर करते हैं तो वो मुस्कुराता है। “भई क्या कारीगरी की है लाला किरोड़ी मल। देखेगी तो फड़क उठेगी।” ये कह कर वो जल्दी जल्दी अपनी जेब से कुछ नोट निकालता है और सुनार से ये कह कर “खरे कर लो भाई” दुकान से बाहर निकलता है। दुकान के बाहर एक ताँगा खड़ा है घोड़ा हिनहिनाता है तो चिरंजी उसकी पीठ पर थपकी देता है, “तुम्हें भी दो झुमके बनवा दूँगा मेरी जान, फ़िक्र मत करो।” ये कह कर वो ख़ुश ख़ुश घोड़े की बागें थामता है, “चल मेरी जान, हवा से बातें कर के दिखा दे।” चिरंजी ख़ुश ख़ुश अपने तवेले पहुंचता है। धीमे धीमे सुरों में कोई गीत गुनगुनाता और यूँ अपनी ख़ुशी का इज़हार करता वो घोड़े को थपकी देता और कहता है, “अभी छुट्टी नहीं मिलेगी मेरी जान, तेरी मालिकन ये झुमके पहन कर क्या बाग़ की सैर को नहीं जाएगी?” चिरंजी जल्दी जल्दी घर का ज़ीना तय करता है और ज़ोर से आवाज़ देता है, “मुन्नी, मुन्नी...” एक छोटी सी लड़की भागती हुई अंदर से निकलती है और चिरंजी के साथ लिपट जाती है। चिरंजी झुमके निकाल कर उसकी कान की लवों के साथ लगाता है और कहता है, “माँ कहाँ है तेरी?” जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर वो घर के सारे कमरों में हाथ में झुमके लिए फिरता है, “मुन्नी की माँ, मुन्नी की माँ” कहता। लड़की उसके पीछे पीछे भागती है, “मुन्नी, माँ कहाँ है तेरी?” लड़की जवाब देती है, “वहां गई है।” लड़की का इशारा सामने बिल्डिंग की तरफ़ था। चिरंजी उधर देखता है, खिड़की के शीशों में से एक मर्द और एक औरत का साया नज़र आता है। मर्द औरत के कानों में बुन्दे पहना रहा है, लंबे लंबे बुन्दे। ये मंज़र देख कर चिरंजी के मुँह से दबी हुई चीख़ सी निकलती है। वो दोनों हाथों से अपनी नन्ही बच्ची को उठा कर सीने के साथ भींच लेता है और उस की आँखों पर हाथ रख देता है, जैसे वो नहीं चाहता कि उसकी बच्ची इस ख़ौफ़नाक साये को देखे। सीने के साथ इस तरह अपनी बच्ची को भींचे वो आहिस्ता आहिस्ता नीचे उतरता है वो झुमके जो वो अपने साथ लाया था उसके हाथों से फ़र्श पर गिर पड़ते हैं। नीचे तवीले में आकर वो अपनी बच्ची को जो कि सख़्त परेशान हो रही है, तांगे में बिठाता है और ख़ुद घोड़े की बागें थाम कर तांगे को बाहर निकालता है। चिरंजी बिलकुल ख़ामोश है जैसे उसे साँप सूँघ गया है उसकी नन्ही बच्ची सहमे हुए लहजे में बार बार पूछती है, “माता जी के झुमके कहाँ हैं पिता जी... माता जी के झुमके कहाँ हैं पिता जी?” चिरंजी की बीवी अपने घर वापस आ गई है और एक आईना सामने रखे अपने झुमकों को पसंदीदा नज़रों से देख रही है और गा रही है। आईना देखते देखते वो अपनी बच्ची को आवाज़ देती है, “मुन्नी, इधर आ तुझे एक चीज़ दिखाऊँ।” वो नहीं आती। चुनांचे वो फिर आवाज़ देती है, “मुन्नी, मुन्नी।” कोई जवाब नहीं मिलता, “कहाँ चली गई तू?” ये कह कर वो उठती है और इधर-उधर उसे ढूंढती है, जब वो नहीं मिलती तो बाहर निकलती है। सीढ़ियों के इख़्ततामी सिरे पर जो चबूतरा सा बना है उस पर खुले हुए काग़ज़ में दो झुमके दिखाई देते हैं। चिरंजी की बीवी उनको उठाती है। एक दम उसे ख़ौफ़नाक हक़ीक़त का एहसास होता है। उन झुमकों को मुट्ठी में भींच कर वो चीख़ती है। उसे मालूम होगया है, सब कुछ मालूम हो गया है। दीवानों की तरह दौड़ी दौड़ी अंदर जाती है, सब कमरों में पागलों की तरह चकराती है और मुन्नी को आवाज़ें देती है। जब उसके दिमाग़ का तूफ़ान कुछ कम होता है तो वो वहीं बैठ जाती है जहां पहले बैठी थी। उसके सामने आईना पड़ा है, उसमें वो ग़ैर इरादी तौर पर अपनी शक्ल देखती है। चिरंजी की बीवी जब अपनी शक्ल उस ज़ाविए में देखती है तो उससे मुतनफ़्फ़िर हो कर आईना उठाती है और ज़मीन पर पटक देती है। आईना चकनाचूर हो जाता है... उठती है और वो आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठाती बाहर निकलती है। सामने वाली बिल्डिंग का एक कमरा... ये कमरा पुरतकल्लुफ़ तरीक़े से सजा हुआ है। एक लड़की और एक लड़का जिसकी उम्र में तक़रीबन दो बरस का फ़र्क़ है, लड़की छः बरस की और लड़का आठ बरस का है। दोनों अपने बाप के पास बैठे हैं और उससे खेल रहे हैं। इतने में दरवाज़े पर हौले-हौले दस्तक होती है। पहली बार जब दस्तक होती है तो बच्चों का बाप नहीं सुनता। जब दूसरी बार फिर होती है तो वो चौंकता है, बच्चों की तरफ़ देखता है फिर उनकी आया की तरफ़ और कहता है, “इनको बाहर ले जाओ। कोई मेरा मिलने वाला आया है।” जल्दी जल्दी बच्चों को निकाल कर दरवाज़ा बंद करता है। दूसरे दरवाज़े की तरफ़ बढ़ता है, जब दरवाज़ा खुलता है तो चिरंजी की बीवी अंदर दाख़िल होती है। उसको देख कर बच्चों के बाप को सख़्त हैरत होती है। वो उससे कहता है, “तुम तो कह रही थीं मुझे जल्दी घर जाना है अब वापस कैसे आ गईं।” चिरंजी की बीवी कुछ जवाब नहीं देती। साकित जामिद खड़ी रहती है। उसको ख़ामोश देख कर वो फिर उससे पूछता है, “वो अभी तक वापस नहीं आया।” चिरंजी की बीवी कुछ जवाब नहीं देती। वो फिर उससे सवाल करता है, “तुम ख़ामोश क्यों हो? झुमके पसंद नहीं आए।” चिरंजी की बीवी के होंट खुलते हैं। फीकी सी मुस्कुराहट के साथ कहती है, “क्यों नहीं आए। बहुत पसंद आए। क्या और ला दोगे मुझे?” बच्चों का बाप मुस्कुराता है, “जितने कहो, बस यही बात थी?” बड़े तल्ख़ लहजे में चिरंजी की बीवी कहती है, “बस यही बात थी लेकिन मुझे सिर्फ़ झुमके ही नहीं चाहिए, नाक के लिए कील, हाथों के लिए कंगनियाँ, कड़े, गले के लिए हार, माथे के लिए झूमर, पांव के लिए पाज़ेब, मुझे इतने ज़ेवर चाहिऐं कि मेरा पाप उनके बोझ तले दब जाये। अपनी इस्मत का ज़ेवर तो उतार चुकी हूँ अब ये गहने न पहनूंगी तो लोग क्या कहेंगे?” बच्चों का बाप ये गुफ़्तुगू सुनकर सख़्त मुतहय्यर होता है। उसकी समझ में कुछ नहीं आता, वो चिरंजी की बीवी से कहता है, “ये तू क्या बहकी बहकी बातें कर रही है?” चिरंजी की बीवी जवाब देती है, “बहकी पहले थी अब तो होश की बातें कर रही हूँ, सुनो। मैं तुम्हारे पास इसलिए आई हूँ कि वो चला गया है, मेरी बच्ची को भी साथ ले गया है। उसे सब कुछ मालूम हो चुका है, अब वो कभी वापस नहीं आएगा, जिस तरह मेरी लुटी हुई आबरू वापस नहीं आएगी... बोलो मुझे पनाह देते हो? मैं तुम्हें इस पाप का वास्ता दे कर इल्तिजा करती हूँ कि जो तुमने और मैंने मिल कर किया है कि मुझे पनाह दो।” बच्चों का बाप चिरंजी की बीवी की सब इल्तिजाएं सुनता है मगर वो कैसे उस औरत को पनाह दे सकता है जिसने अपने आपको झुमकों के बदले बेचा। एक सौदा था जो ख़त्म हो गया... चिरंजी की बीवी को ये सुन कर बहुत सदमा होता है। नाकाम और मायूस हो कर वो चली जाती है। चिरंजी अब एक नए घर में है, रात का वक़्त है। वो अपनी बच्ची मुन्नी को सुलाने की कोशिश करता है, मगर वो सोती नहीं, बार बार अपनी माँ के बारे में पूछती है। चिरंजी उसको टालने की कोशिश करता है, मगर बच्ची की मासूम बातें उसे परेशान कर देती हैं। आख़िर में घबरा कर उसके मुँह से ये निकलता है, “मुन्नी, तुम्हारी माता जी मर गई हैं। रास्ता भूल कर वो ऐसी जगह चली गई हैं जहां से वापस आना बड़ा मुश्किल होता है। दरवाज़ा खुलता है, चिरंजी फ़ौरन मुन्नी का चेहरा कम्बल से ढाँप देता है। चिरंजी की बीवी दाख़िल होती है, चिरंजी उठता है और उसे बाहर धकेल कर अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर देता है, “चली जाओ यहां से।” वो उससे कहता है। चिरंजी की बीवी जवाब देती है, “चली जाती हूँ, मेरी बच्ची मुझे देदो।” चिरंजी ग़ुस्से और नफ़रत भरे लहजे में उससे कहता है, “वो औरत जो मर्द की बीवी नहीं बन सकती औलाद की माँ कैसे हो सकती है? अपने पाप भरे सीने पर हाथ रख कर कहो, क्या तुम्हें मुन्नी की माँ कहलाने का हक़ हासिल है? क्या उस दिन के बाद जब तुमने ये झुमके लेकर एक ग़ैर मर्द को हाथ लगाने दिया, तुम अपनी औलाद के सर पर शफ़्क़त का हाथ फेर सकती हो, क्या तुम्हारी ममता उस दिन जल कर राख नहीं होगई थी, जब तुम्हारे क़दम डगमगाए थे। अपनी बच्ची लेने आई हो, वो झुमके पहन कर जिन्होंने तुम्हारी ज़िंदगी के सबसे क़ीमती ज़ेवर को उतार कर गंदी मोरी में फेंक दिया है। मैं ये पूछता हूँ जब ये झुमके हिलते हैं तो तुम्हारे कानों में ये आवाज़ नहीं आती कि न तुम माँ रही हो न बीवी। जाओ तुम्हारी मांग सिंदूर से और तुम्हारी गोद औलाद से हमेशा ख़ाली रहेगी... जिन क़दमों से आई हो उन्ही क़दमों से वापस चली जाओ।” चिरंजी अपनी बीवी की इल्तिजाओं को ठुकरा देता है तो वो चली जाती है अफ़सुर्दा और ख़ामोश। तांगे का पहिया घूम रहा है, ये बताने के लिए कि वक़्त गुज़र रहा है और कई साल बीत रहे हैं। तांगे का पहिया मुड़ता है और बड़े दरवाज़े में दाख़िल होता है। ये दरवाज़ा गर्वनमेंट कॉलिज का है जिसमें कई लड़के और लड़कियां गुज़र रही हैं। ताँगा कॉलिज के कम्पाऊंड में ठहरता है, चिरंजी अब काफ़ी बुढ्ढा हो चुका है। तक़रीबन आधे बाल सफ़ेद हैं। उसकी नन्ही बच्ची अब जवान है। तांगे की पिछली नशिस्त पर से जब उठती है तो चिरंजी उसको बहुत नसीहतें करता है, “बड़े साहब को हाथ जोड़ कर नमस्ते कहना, जो सवाल पूछें उनका ठीक ठीक जवाब देना, वग़ैरा वग़ैरा” लड़की अपने बाप की इन बातों से परेशान हो जाती है और अच्छा, अच्छा कहती वहां से चलती है, लेकिन फ़ौरन ही चिरंजी उसको रोकता है और जेब से बर्फ़ी निकाल कर उसको देता है और कहता है, “पहला दिन है मुँह मीठा कर लो।” ज़बरदस्ती वो अपनी लड़की के हाथ में बर्फ़ी रख देता है। सामने कॉलिज के बरामदे में दो तीन लड़के खड़े हैं जो आने-जाने वाले लड़कों और लड़कियों को घूर रहे हैं। जब कृष्णा कुमारी (चिरंजी की बेटी) बरामदे की तरफ़ आती है तो एक लड़का जिसका नाम जगदीश है, अपने साथी की पसलियों में कुहनी से ठोंका देता है और कहता है,”लो भई, एक फ़स्ट क्लास चीज़ आई है, तबीयत साफ़ हो जाएगी तुम्हारी।” ये कह कर जब वो कृष्णा कुमारी की तरफ़ इशारा करता है तो उसके दोस्त सब उधर मुतवज्जा होते हैं मगर उन्हें कृष्णा कुमारी के बजाय एक देहाती लड़का नज़र आता है जो बड़े इन्हिमाक से अपने फ़ार्म का मुताला करता हुआ उनकी तरफ़ चला आ रहा है। सब लड़के उस देहाती को देख कर हंसते हैं और कहते हैं, “भई क्या चीज़ है, तबीयत वाक़ई साफ़ हो गई।” कृष्णा कुमारी इस दौरान में एक तरफ़ होगई थी। ये देहाती लड़का जिसका नाम कृष्ण कुमार है कॉलिज के उन पुराने शरीर तालिब-ए-इलमों की तरफ़ बढ़ता है। जगदीश से वो बड़े सादा लहजे में पूछता है, “क्या आप बता सकते हैं कि मुझे कहाँ जाना है?” जगदीश ज़रा पीछे हिट कर उसे बड़े प्यार से देखता है और कहता है, “चिड़ियाघर।” कृष्ण कुमार उसी तरह सादा लोही से जवाब देता है, “जी नहीं, चिड़ियाघर मैं कल जाऊंगा। मैं यहां दाख़िल होने आया हूँ।” सब लड़के बेचारे कृष्ण कुमार का मज़ाक़ उड़ाते हैं, उसे छेड़ते हैं। इतने में एक लड़की कृष्णा कुमारी को साथ लिए उन लड़कों के पास आती है और उनमें से एक लड़के को जिसका नाम सतीश है मुख़ातिब कर के कहती है, “सतीश, मेरा पीरियड ख़ाली नहीं, तुम इन्हें बता दो कि कहाँ दाख़िला हो रहा है?” कृष्णा कुमारी का फ़ार्म सतीश को दे कर वो तेज़ क़दमी से चली जाती है। सतीश फ़ार्म देखता है और कहता है, “आप का नाम कृष्णा कुमारी है।” कृष्ण कुमार बोल उठता है, “जी नहीं, मेरा नाम कृष्ण कुमार है।” सब हंसते हैं। सतीश कृष्ण कुमार का फ़ार्म भी ले लेता है और दोनों से कहता है, “आईए कुमार और कुमारी साहिबा, मैं आपको रास्ता बता दूं।” सब चलते हैं। उस कमरे के बाहर जहां दाख़िला हो रहा है, सतीश ठहर जाता है और एक फ़ार्म कृष्ण कुमार और दूसरा कृष्णा को दे कर कहता है, “अन्दर चले जाएं।” कृष्णा कुमारी और कृष्ण कुमार दोनों अंदर दाख़िल होते हैं। कृष्ण कुमार एक मेज़ की तरफ़ बढ़ता है कृष्णा कुमारी दूसरे मेज़ की तरफ़ कृष्णा इधर कृष्णा कुमारी का इंटरव्यू शुरू होता है उधर कृष्ण कुमार का। कृष्णा कुमारी का नाम पढ़ कर प्रोफ़ेसर कहता है, “आप कबड्डी खेलती हैं। कुश्ती लड़ती हैं, गोला फेंकती हैं।” उधर दूसरा प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार से कहता है, “आपको कशीदाकारी, क्रोशिए और सिलाई के काम का शौक़ है।” कृष्ण कुमार और कृष्णा हैरान रह जाते हैं। कृष्णा कुमारी प्रोफ़ेसर से कहती है, “जी नहीं, मुझे तो कशीदाकारी, क्रोशिए और सिलाइयों का शौक़ है।” उधर कृष्ण कुमार परेशान हो कर प्रोफ़ेसर से कहता है, “जी नहीं, मुझे तो कबड्डी खेलने, गोला फेंकने और कुश्ती लड़ने का शौक़ है।” दोनों के फ़ार्म तबदील हो गए थे, हाल में क़हक़हे बुलंद होते हैं। हाल की खिड़कियों के बाहर जगदीश और सतीश और उनकी पार्टी खड़ी ये सब तमाशा देखती रहती है। बाज़ार में ताँगा खड़ा है चिरंजी उसको साफ़ कर रहा है, इतने में एक पठान आता है और चिरंजी से उन दो सौ रूपों का तक़ाज़ा शुरू कर देता है जो उसने क़र्ज़ ले रखे हैं। पठान रोज़-रोज़ के वा’दों से तंग आया हुआ है, चुनांचे वो चिरंजी से बड़े दुरुश्त लहजे में बातें करता है। चिरंजी पठान से माफ़ी मांगता है और कहता कि “वो बहुत जल्द उस का क़र्ज़ा अदा कर देगा।” पठान चिरंजी से कहता है कि वो ताँगा घोड़ा बेच कर क़र्ज़ अदा कर दे। इससे चिरंजी को सदमा होता है। ताँगा घोड़ा वो कभी बेचने के लिए तैयार नहीं, इसलिए कि वो उसे बहुत अ’ज़ीज़ है। इतने में कृष्णा कुमारी की आवाज़ आती है, “पिता जी, मेरी किताबें आप साथ ले आए हैं न...” चिरंजी अपनी लड़की को जवाब देता है, “हाँ बेटी ले आया हूँ, अपने साथ।” ये कह कर वो पठान की ठोढ़ी को हाथ लगाता है और कहता है, “ख़ान, मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ में है। मेरी लड़की के सामने अपने रूपों का तक़ाज़ा न करना...” ख़ान का दिल कुछ पसीजता है, चुनांचे जब कृष्ण कुमारी आती है और तांगे में बैठती है तो वो चिरंजी से कुछ नहीं कहता, ख़ान को सलाम कर के चिरंजी ताँगा चलाता है। देहाती लड़के कृष्ण कुमार का मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है। जगदीश ने उसके पुरानी वज़ा के कोट के साथ ‘फ़र्स्ट इयर फ़ूल’ की चिट लगा रखी है। जिधर से वो बेचारा गुज़रता है, लड़के उसकी तरफ़ देख कर हंसते हैं। कृष्ण कुमार जब सब को हंसते देखता है तो ख़ुद भी हंसना शुरू कर देता है। इस दौरान में चिरंजी का ताँगा और एक मोटर आती है। मोटर में से सतीश और उसकी बहन आ निकलती है। ये वही लड़की है जिसने कृष्णा कुमारी का फ़ार्म सतीश को दिया था और कहा था, “इनको वो जगह बता दो जहाँ दाख़िला हो रहा है।” कृष्ण कुमारी जब सतीश की बहन निर्मला को देखती है तो उनको नमस्ते करती है। निर्मला नमस्ते का जवाब देती है और अपने भाई का तआ’रुफ़ कराते हुए कहती है, “ये मेरे भाई सतीश हैं, मगर आपकी एक बार पहले मुलाक़ात हो चुकी है।” सतीश कृष्णा कुमारी की तरफ़ देख कर मुस्कुराता है और कहता है, “आप कबड्डी खेलती हैं, कुश्ती लड़ती हैं और गोला फेंकती हैं,” कृष्णा कुमारी उस रोज़ का वाक़िया याद कर के शर्मा जाती है, मगर साथ ही हंस पड़ती है। तीनों कॉलिज की तरफ़ बढ़ते हैं, कुछ दूर जाते हैं तो एक शोर सुनाई देता है। जगदीश और उसके साथियों ने कृष्ण कुमार को कीचड़ भरे गढ़े में धक्का देकर गिरा दिया था। कीचड़ में बेचारा लतपत् है। लड़के छेड़ रहे हैं, जगदीश आगे बढ़ कर जब उसे उठाने लगता है तो उसका कोट फट जाता है। कृष्ण कुमार से अब बर्दाश्त नहीं हो सकता क्योंकि ये कोट उसे बेहद अ’ज़ीज़ है। ये उसके मरहूम बाप का था जो उसकी माँ ने सँभाल कर उसके लिए रखा हुआ था। जब उसका कोट फट जाता है तो वो दीवानों की तरह उठता है और जगदीश को पीटना शुरू कर देता है। कॉलिज में जगदीश की धाक बैठी हुई थी कि वो बहुत लड़ाका है। कोई उसके मुक़ाबल में नहीं ठहर सकता, मगर जब कृष्ण कुमार उसे बुरी तरह लताड़ता है तो सब लड़के हैरान रह जाते हैं और जगदीश और कृष्ण कुमार दोनों कुश्ती लड़ते लड़ते सतीश कृष्णा कुमारी और निर्मला के पास आ जाते हैं तो ज़बरदस्त घूंसा मार कर जब कृष्ण कुमार जगदीश को गिराता है तो बेइख़्तियार कृष्णा कुमारी के मुँह से निकलता है, “ये क्या वहशियानापन है ?” कृष्ण कुमार ये आवाज़ सुनता है और अपना हाथ रोक लेता है। सतीश जगदीश को उठा कर एक तरफ़ ले जाता है, इतने में घंटी बजती है, सब लोग चले जाते हैं, सिर्फ़ कृष्ण कुमार, कृष्णा कुमारी अकेले रह जाते हैं। दोनों चंद लम्हात ख़ामोश खड़े रहते हैं, आख़िर में कृष्ण कुमार नदामत भरे लहजे में कृष्णा कुमारी से कहता है, “मुझे माफ़ कर दो। आइन्दा मुझसे कभी ऐसी वहशियाना हरकत नहीं होगी।” कृष्णा कुमारी उसकी सादगी से बहुत मुतअस्सिर होती है जब वो उससे कहता है, “मैं किसी से कुछ नहीं कहता लेकिन ये लड़के मेरी तरफ़ देख देख कर क्यों हंसते हैं। क्यों छेड़ते हैं क्यों तंग करते हैं। मुझे कीचड़ में लतपत् कर दिया है। ये मेरा कोट फाड़ दिया है, जो मेरे बाप का है।” कृष्णा कुमारी उससे हमदर्दी करती है और उसे बताती है कि, “लड़के उसको सिर्फ़ इसलिए छेड़ते हैं कि उसका लिबास पुरानी वज़ा का है। अगर वो उस तरह का लिबास पहनना शुरू कर दे जैसा कि दूसरे पहनते हैं तो उसे कोई नहीं सताएगा।” कृष्णा कुमारी की बातें कृष्ण कुमार के ज़ेहन में बैठ जाती हैं। जगदीश और उसके साथी झाड़ियों के पीछे से उन दोनों को बातें करते देख लेते हैं। होस्टल... कृष्ण कुमार अपने कमरे में आईने के सामने खड़ा है और सूट का मुआइना कर रहा है। इस दौरान में वो एक गाना गाता है बड़े जज़्बात भरे अंदाज़ में। उसके गाने से मालूम होता है कि वो किसी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गया है साथ वाले कमरे में जगदीश दंड पेल रहा है और डम्बल फेर रहा है जब उसे गाने की आवाज़ आती है तो वो बहुत हैरान होता है। दरवाज़ा खोल कर वो बाहर निकलता है और ये मालूम करता है कि साथ वाले कमरे में कोई गा रहा है। बाहर निकलता है और कमरे के दरवाज़े पर दस्तक देता है, अंदर से आवाज़ आती है, “आ जाओ।” जगदीश दरवाज़ा खोल कर अंदर दाख़िल होता है तो क्या देखता है कि कृष्ण कुमार नया सूट पहने खड़ा है, जब दोनों की आँखें चार होती हैं तो कृष्ण कुमार कहता है, “आप लड़ने आए हैं तो मेहरबानी कर के यहां से चले जाईए क्योंकि मैं अब किसी पर हाथ नहीं उठाऊंगा।” जगदीश मुस्कुराता है और अपने तेल लगे बदन की तरफ़ देखता है, “नहीं, नहीं मैं लड़ने नहीं आया सुलह करने आया हूँ।” ये कह कर वो अपने हाथ बढ़ाता है जिसे कृष्ण कुमार क़बूल कर लेता है। इस के बाद जगदीश उसके गाने की तारीफ़ करता है और कहता है, “दोस्त, ऐसा मालूम होता है कि तुम्हारे दिल को लगी है। आवाज़ में ये दर्द ऐसे ही पैदा नहीं हुआ। ज़रूर किसी की तिरछी नज़र ने तुम्हें घायल किया है।” कृष्ण कुमार बहुत सादा लौह है, फ़ौरन ही अपने दिल का राज़ जगदीश को बता देता है, “अब तुम ने दोस्त कहा है तो तुम से क्या पर्दा है? उस लड़की कृष्णा कुमारी ने ऐसी प्यारी-प्यारी बातें की हैं कि कुछ समझ में नहीं आता, मेरे दिल को क्या हो गया है? बड़ी शरीफ़ और बड़ी हमदर्द लड़की है। उसने मुझे बताया कि तुम लोग मुझे क्यों छेड़ते हो? अब देख लो उसके कहने पर मैंने तीन सूट बनवा लिए हैं।” जगदीश उसका हमराज़ बन जाता है और उससे कहता है, “तुम्हें इश्क़ हो गया है, समझे या’नी तुम्हारा दिल जो है न वो उस लड़की पर आ गया है। अब तुम्हें ये चाहिए कि तुम उस लड़की पर अपने इश्क़ का इज़हार कर दो। अगर तुमने अपनी मुहब्बत को अपने पहलू में दबाये रखा तो उसे ज़ंग लग जाएगा और देखो औरत को अपनी तरफ़ माइल करने का सबसे आसान तरीक़ा ये है कि तुम उसे कोई तोहफ़ा दो, अँगूठी, बुंदे, झुमके कुछ भी।” सादा लौह कृष्ण कुमार जगदीश की ये सब बातें अपने पल्ले बांध लेता है। कॉलिज के बाग़ीचे में कृष्णा कुमारी एक बेंच पर बैठी है। कृष्ण कुमार आहिस्ता आहिस्ता उसके पास जाता है, जिस तरह जगदीश ने कहा था, उस तरह वो उस पर अपने इश्क़ का इज़हार करता है। बड़े ख़ाम अंदाज़ में। इसके बाद वो अपनी जेब से एक छोटी सी डिबिया निकालता है और कृष्णा कुमारी को सोने के झुमके तोहफ़े के तौर पर पेश करता है। कृष्णा कुमारी ये डिबिया ग़ुस्से में आकर एक तरफ़ फेंक देती है। कृष्ण कुमार को सदमा पहुंचता है और हैरत भी होती है। चूँकि वो बेहद सादा लौह है इसलिए वो सारी बात कृष्णा को बता देता है। मुझे जगदीश ने कहा था कि, “दिल में कोई बात नहीं रखनी चाहिए, मुझे कई रातों से नींद नहीं आई मैं हर वक़्त तुम्हारे मुतअ’ल्लिक़ सोचता रहता हूँ। तुमने क्यों मुझसे हमदर्दी का इज़हार किया था? अगर मेरे दिल में तुम्हारे लिए मुहब्बत पैदा हुई है तो ये तुम्हार क़ुसूर है मेरा नहीं। ये झुमके जो मैंने तुम्हें दिए हैं, इनसे मेरी मुहब्बत ज़ाहिर नहीं होती। ये तो मुझसे जगदीश ने कहा था कि ऐसे मौकों पर तोहफ़ा ज़रूर देना चाहिए। मैं तो अपनी सारी ज़िंदगी तुम्हें तोहफ़े के तौर पर देने के लिए तैयार हूँ।” जब कृष्णा कुमारी को ये मालूम होता है कि जगदीश ने उसे बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की थी और वो कृष्ण कुमार की साफ़गोई से मुतअस्सिर होती है तो वो झुमकों की डिबिया उठा लेती है और अपने पास रख लेती है और उससे कहती है, “मुझे तुम्हारा ये तोहफ़ा क़बूल है।” कृष्ण कुमार बहुत ख़ुश होता है। झुमके लेकर कृष्ण कुमारी कुछ और कहे सुने बग़ैर चली जाती है। कृष्ण कुमार चंद लम्हात ख़ामोश खड़ा रहता है, इतने में जगदीश और सतीश दोनों झाड़ियों के पीछे से निकलते हैं और कृष्ण कुमार को मुबारकबाद देते हैं। कृष्ण कुमार बहुत झेंपता है, इसके साथ ही वो जगदीश से कहता है, “मगर यार तुमने तो कहा था कि मैं ये बात किसी को नहीं बतलाऊंगा।” सतीश की तरफ़ देख कर वो फिर कहता है, “इनको भी पता लग गया है।” जगदीश कृष्ण कुमार को तसल्ली देता है कि सतीश अपना आदमी है वो किसी से कुछ नहीं कहेगा, चुनांचे सतीश भी कृष्ण कुमार को हर मुम्किन तसल्ली देता है कि वो उसके इश्क़ का राज़ किसी को नहीं बताएगा। तवेले में चिरंजी साज़ पालिश कर रहा है। तांगे की पीतल की चीज़ें पालिश कर रहा है। घोड़े को मालिश कर रहा है। जब मालिश करता है तो उससे प्यार-ओ-मुहब्बत की बातें करता है। “दोस्त तुम ने मेरी बहुत ख़िदमत की है, अगर तुम न होते तो जाने ज़िंदगी कितनी कैसे हो जाती... तुमने और मैंने दोनों ने मिल कर मुन्नी को पढ़ाया है।” इतने में उसके दो-तीन दोस्त जो तांगे वाले हैं, आते हैं उनमें एक चिरंजी से कहता है, “ये तुम घोड़े से क्या बातें कर रहे हो, जैसे ये सब कुछ समझता है।” चिरंजी घोड़े की पीठ पर थपकी देता है और कहता है, “इंसानों से हैवानों की दोस्ती अच्छी मेरे भाई। इन्हें कोई वरग़ला तो नहीं सकता। ग़ुलाम मुहम्मद तेरी जान की क़सम सच कहता हूँ, इस जानवर ने मेरी बड़ी ख़िदमत की है। तांगे में अठारह अठारह घंटे जोते रखा है ग़रीब को...” इतने में पठान आता है, चिरंजी उसको सलाम करता है और अपने तहमद के डब से नोट निकालता है और कहता है,”ख़ानसाहब ये रहे आप के सौ रुपये खरे कर लीजिए। बाक़ी रहे सौ, उसका भी बंदो- बस्त हो जाएगा। ये मेरा घोड़ा सलामत रहे।” ये कह कर वो बड़े फ़ख़्र से अपने घोड़े की तरफ़ देखता है, पठान नोट लेकर चला जाता है। इतने में एक तांगे वाला चिरंजी से कहता है, “तुम लड़की को पढ़ाना शुरू कर के ख़्वाहमख़्वाह एक जंजाल में फंस गए हो। कोई न कोई क़र्ज़ख़्वाह तुम्हारे पीछे लगा ही रहता है।” चिरंजी हँसता है, “सबसे बड़ी क़र्ज़ख़्वाह मेरी बेटी है, उसका क़र्ज़ अदा हो जाये तो ऐसे लाख क़र्ज़ लेने वाले मेरे पीछे फिरते रहें, मुझे कोई परवा नहीं। तुममें से कोई अफ़ीम का नशा करता है, कोई शराब का, मुझे भी एक नशा है, जब मैं देखता हूँ कि मेरी लड़की दौलतमंद आदमियों की लड़कियों की तरह पढ़ रही है तो मेरा दिल-ओ-दिमाग़ एक अ’जीब नशे से झूमने लगता है। औरत को ज़रूर ता’लीम हासिल करनी चाहिए। मेरे भाई उसके क़दम मज़बूत हो जाते हैं।” ये कह कर वो घोड़े को थपकी देता है और ख़ुश ख़ुश बाहर निकलता है ताकि घर जाये। अंदर आईना सामने रखे कृष्णा कुमारी अपने कानों में कृष्ण कुमार के दिए हुए झुमके पहने बैठी है और उन्हें पसंदीदा नज़रों से देख रही है, गीत गा रही है और जैसे बेखु़द सी हो रही है। झुमके उसे बहुत पसंद आए हैं, इस पसंदीदगी का इज़हार उसकी हर हरकत से मालूम होता है। चिरंजी आता है घर के अंदर दाख़िल होते ही वो गाने की आवाज़ सुनता है। कृष्णा कुमारी बदस्तूर गाने में मशग़ूल है। दफ़अ’तन पागलों की तरह चिरंजी अंदर दाख़िल होता है। कृष्णा कुमारी एक दम गाना बंद करके दोनों हाथों से अपने कानों को ढाँप लेती है। चिरंजी आगे बढ़ता है, ज़ोर से कृष्णा कुमारी के दोनों हाथ नीचे झटक देता है। क़रीब है कि झुमकों को उसके कानों से नोच ले। कृष्णा कुमारी ख़ौफ़ज़दा हो कर पीछे हटती है। चिरंजी पागलों की तरह उसकी तरफ़ बढ़ता है और चिल्लाना शुरू कर देता है, “कहाँ से लिये हैं तू ने झुमके बता, कहाँ से लिये हैं ये झुमके?” वो इस क़दर ज़ोर से चिल्लाता है कि एक दम उसे चक्कर आ जाता है। वफूर-ए-जज़्बात से उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा छा जाता है। उसकी बलंद आवाज़ बिल्कुल धीमी हो जाती है, “कहाँ से लिये हैं तू ने ये झुमके?” सर को दोनों हाथों में थाम कर वो चारपाई पर बैठ जाता है, उसकी लड़की फ़ौरन पंखा लेकर झलना शुरू कर देती है। चंद लम्हात की ख़ामोशी के बाद वो एक गिलास पानी मांगता है। कृष्ण कुमारी उसको पानी पिलाती है। पानी पीने के बाद वो कृष्णा कुमारी से फिर पूछता है, “मुन्नी, ये झुमके तू ने कहाँ से लिये हैं?” कृष्णा कुमारी थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद ज़रा हिक्मत से झूट बोलते हुए जवाब देती है, “कॉलेज की एक सहेली ने दिए हैं।” चिरंजी अपनी लड़की की आँखों में आँखें डाल कर देखता है और कहता है, “अपनी सहेली को वापस दे आओ।” लड़की पूछती है, “क्यों पिता जी?” चिरंजी जवाब देता है, “तुम्हारी माँ को ये ज़ेवर पसंद नहीं था।” ये कह कर वो उठता है और बीमारों की तरह क़दम उठाता बाहर चला जाता है। उसकी लड़की उससे पूछती है, “खाना नहीं खाएंगे आप?” चिरंजी जवाब देता है, “नहीं।” बाहर निकल कर चिरंजी घोड़े की बागें थामता है और ताँगा चलाता है और (घोड़े को) मुख़ातिब कर के उससे कहता है, “आज मेरी लड़की ने पहली बार झूट बोला है,” ये कह कर वो घोड़े की बागें थामता है और तांगा चलाता है। अफ़सुर्दगी के आलम में वो तांगे पर कई बाज़ारों के चक्कर लगाता है हत्ता कि रात हो जाती है। एक नीम रोशन बाज़ार में से उसका ताँगा गुज़र रहा है कि अचानक एक औरत चंद मर्दों की झपट से निकल कर तेज़ी से चिरंजी के तांगे की जानिब बढ़ती है और लड़खड़ाते हुए क़दमों से भागती तांगे की पिछली नशिस्त पर बैठ जाती है। ये औरत शराब के नशे में चूर है। ज़ेवरात से लदी हुई है। तांगे में बैठते ही वो चिरंजी से बातें शुरू कर देती है, “मुझे छेड़ते थे उल्लु के पट्ठे, पर मैं दाम लिये बग़ैर किसी को हाथ लगाने देती हूँ? क्यों तांगे वाले तुम्हारा क्या ख़याल है? दुनिया में पैसा ही तो है। तुम कुछ बोलते नहीं, मुझे याद आया, मेरा पति एक तांगे वाला ही था पर उसके पास इतने पैसे भी न थे कि मुझे निगोड़े झुमके ला देता लेकिन अब देखो मेरी तरफ़ ये कड़े, ये ग्लुबंद, ये अंगूठियाँ, एक से एक बढ़ कर...” ये कह कर वो दर्द भरे अंदाज़ में हंसती है, “इस्मत का गहना उतर जाये तो ये ज़ेवर तो पहनने ही चाहिऐं।” चिरंजी पहचान लेता है कि ये औरत कौन है? उसकी बीवी थी जो इस हालत को पहुंच चुकी थी। चिरंजी कम्बल से अपना चेहरा क़रीब क़रीब छुपा लेता है, इस पर तवाइफ़ उससे कहती है, “तुम क्यों अपना चेहरा छुपाते हो, छुपाना तो मुझे चाहिए ये चेहरा, जिसपर कई फटकारें पड़ी हैं।” ये कह कर वो फिर हंसती है, “तुम ख़ामोश क्यों हो, ताँगा रोक दो मेरा घर आ गया है।” चिरंजी ताँगा रोक देता है, तवाइफ़ पाएदान पर पांव रख कर उतरने लगती है कि लड़खड़ा कर गिरती है, औंधे मुँह। चिरंजी दौड़ कर उसे उठाता है, तवाइफ़ हंसती है, “गिरने वालों को उठाया नहीं करते मेरी जान।” ये कह कर जब वो घर की तरफ़ चलने लगती है तो लड़खड़ा कर फिर गिरती है। चिरंजी उसको थाम लेता है और उसको उसके घर तक छोड़ आता है। जब चलने लगता है तो तवाइफ़ उस को किराया देती है, चिरंजी किराया ले लेता है। तवाइफ़ उसका बाज़ू पकड़ कर अंदर घसीटती है, “आओ मेरी जान आओ... आज की रात मेरे मेहमान रहो। मैं तुम से एक पैसा भी नहीं लूंगी... आओ शराब की पूरी बोतल पड़ी है, ऊपर आओ।” चिरंजी तांगे में बैठ कर चला जाता है। तवाइफ़ हंसती है और कहती है, “बेवक़ूफ़ कहीं का, मुफ़्त की क़ाज़ी भी नहीं छोड़ता।” चिरंजी घर पहुंचता है जब अंदर दाख़िल होता है तो उसे रोने की आवाज़ सुनाई देती है। कमरे में जा कर देखता है कि उसकी लड़की बिस्तर पर औंधे मुँह लेटी है और ज़ार ज़ार रो रही है। चिरंजी उसके पास जाता है, उसके सर पर हाथ फेरता है और रोने का सबब पूछता है। उसकी लड़की और ज़्यादा रोना शुरू कर देती है। जब चिरंजी दुबारा उससे रोने का सबब पूछता है तो वो कहती है, “मुझे माँ याद आरही है, अगर वो आज ज़िंदा होतीं तो मैं... मैं...” वो इसके आगे कुछ नहीं कह सकी और बाप के पांव पकड़ कर कहती है, “मुझे माफ़ कर दीजिए पिता जी, मैंने आज आप से झूट बोला है...” चिरंजी कहता है, “मुझे मालूम है।” इस पर उसकी लड़की कहती है, “अगर आज मेरी माता जी होतीं तो मैंने ये झूट कभी न बोला होता, बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो लड़कियां सिर्फ़ अपनी माओं को ही बता सकती हैं।” चिरंजी अपनी लड़की को उठाता है और अपने पास बिठाता है, “मैं तुम्हारी माँ हूँ, बोलो क्या बात है, शर्माओ नहीं।” कृष्णा कुमारी झेंप जाती है और शर्मा कर कहती है, “ये झुमके मुझे कॉलिज के एक लड़के ने दिए हैं पिता जी। वो बहुत ही अच्छा है।” ये कह कर वो तेज़ी से कमरे से बाहर निकल जाती है, सिसकियां लेती हुई। चिरंजी बिस्तर पर पड़े हुए झुमकों को उठाता है और उनकी तरफ़ देखता है। चिरंजी का ताँगा कॉलिज के दरवाज़े में दाख़िल होता है, कृष्णा कुमारी अपनी किताबें लेकर नीचे उतरती है। चिरंजी अपनी जेब से झुमकों की डिबिया निकालता है और लड़की को दे कर कहता है, “इसे आज वापस कर देना।” कृष्णा कुमारी डिबिया लेकर ख़ामोशी से चली जाती है। आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठाती वो कॉलिज के बग़ीचे की तरफ़ बढ़ती है। बग़ीचे में एक बेंच पर कृष्ण कुमार बैठा है और एक ख़त पढ़ रहा है, कृष्णा कुमारी को देख कर वो उठ खड़ा होता है और उससे बातें शुरू कर देता है, “माता जी का ख़त आया है, लो पढ़ो... नहीं ठहरो। मैं पढ़ के सुनाता हूँ, पर तुम हंसना नहीं, मेरी माँ बेचारी सीधी सादी देहातिन है। मैंने उनको तुम्हारी बात लिखी है, मैं उनसे कोई बात छुपा कर नहीं रखता। सुनो, उन्होंने क्या लिखा है... बेटा कुमार, ऐसी कोई बात न करना जिससे उस लड़की की बदनामी हो। उसके माँ बाप से मिलो और कहो जैसी वो