महावटों की एक रात

गड़ गड़! गड़ड़ड़! इलाही ख़ैर! मालूम होता है कि आसमान टूट पड़ेगा। कहीं छत तो नहीं गिर रही। गड़ड़ड़ड़! उस के साथ ही टूटे हुए किवाड़ों की झिर्रियाँ एक तड़पती हुई रोशनी से चमक उठीं। हवा के एक तेज़ झोंके ने सारी इमारत को हिला कर रख दिया। सो-सौ सौ दर्द! क्या सर्दी है! यख़ जमी जाती है। बर्फ़ जमी जाती है, कपकपी है कि सारे जिस्म को तोड़े डालती है।
एक छोटे से मकान 24x 24 फिट और उसमें भी आधे से ज़्यादा में एक तंग दालान और उसके पीछे एक पतला सा कमरा, नीचा और अंधेरा। कोई फ़र्श नहीं। कुछ फटे पुराने बोरिये और टाट ज़मीन पर बिछे हैं जो गर्द और सिल से चिप-चिप कर रहे हैं। कोनों में बुग़चियों और गूदड़ का एक ढेर है। एक अकेला काठ का टूटा हुआ संदूक़, उस पर भी मिट्टी के बर्तन जो साल-हा-साल के इस्तिमाल से काले हो गए हैं और टूटते टूटते आधे पौने रह गए हैं। उनमें एक ताँबे की पतीली भी है जिसके किनारे झड़ चुके हैं। बरसों से क़लई तक नहीं हुई और घिसते घिसते पेन्दा जवाब देने के क़रीब है।

छत है कि कड़ियाँ रह गईं हैं और उस पर बारिश! या अल्लाह क्या महावटें अब के ऐसी बरसेंगी कि गोया उनको फिर बरसना ही नहीं। अब तो रोक दो। कहाँ जाऊं, क्या करूँ। इससे तो मौत ही आ जाये! तू ने ग़रीब ही क्यों बनाया। या अच्छे दिन ही ना दिखाये होते या ये हालत है कि लेटने को जगह नहीं। छत छलनी की तरह टपके जाती है। बिल्ली के बच्चों की तरह सब कोने झांक लिए लेकिन चैन कहाँ। मेरा तो ख़ैर कुछ नहीं, बच्चे निगोड मारों की मुसीबत है। ना मालूम सो भी कैसे गए हैं।
सर्दी है कि उफ़! बोटी बोटी काँपी जाती है और इस पर एक लिहाफ़ और चार जानें! ए मेरे अल्लाह ज़रा तो रहम कर। या वो ज़माना था कि महल थे, नौकर थे, गिरिश और पलंग थे। आह! वो मेरा कमरा! एक छप्पर खट सुनहरी पर्दों से ज़रक़-बरक़, मख़मल की चादरें और सुंबुल के तकिए। क्या नरम नरम तोशक थी कि लेटने से नींद आ जाये और लिहाफ़ आह! रेशमें छींट का और इस पर सच्चे फटे की गोट। अन्नाएं मामाएं खड़ी हैं, बीवी सर दबाऊं, बीवी पैर दबाऊं? कोई तेल डाल रही है कोई हाथ मल रही है। गुदगुदा गुदगुदा बिस्तरा, ऊपर से ये सब चोंचले, नींद है कि कहकशानी कपड़े पहने सामने खड़ी है।

सब्ज़ शीशों पर नीले, सुर्ख़ और नारंजी अक्स, बड़े बड़े हश्त पहल जवाहरात के साबूत डले जगमग-जगमग कर रहे हैं। दस्तरख़्ववान पर चांदी की तश्तरियां, एक झिलमिलाहट, कोरमा, पुलाव, बिरयानी, मुतंजन, बाक़िर ख़ानियाँ, मीठे टुकड़े...
एक बाग़ दरख़्तों से घिरा हुआ जिनके काही पत्तों पर तारों की चमक शबनम में और तारे चमका रही है। वाह वाह, क्या ख़ुशनुमा फल हैं। आम मुँह लाल, कलेजा बाल। माँ का बगदू बच्चा, सेब कैसे ख़ूबसूरत हैं। अंधेरे अंधेरे, दरख़्तों में सुर्ख़ और गुलाबी और पिस्तई लटके हुए हैं। डालियों समेत झुके हुए हैं। अरे बेर तो देखो, कैसे मोटे मोटे और उन्नाबी हैं, शीख़पोरे के से। एक नहर, अँधेरी रात में चांदी की चादर बिछी हुई है। शायद दूध है, कहीं जन्नत तो नहीं? एक कश्ती बड़ी आहिस्तगी से, बतखों की सी नज़ाकत से बहती हुई, जल्दी आओ, जल्दी बैठ जाओ, बहिश्त की सैर कराएँ।

क्या बीवियां हैं, पाक साफ़, बिलौर जैसी गोरी। उजले बुर्राक़ कपड़े, नज़ाकत ऐसी जैसी हवा की। कश्ती बहते हुए चिराग़ की तरह पानी पर चली जा रही है। दोनों तरफ़ खुले खुले मैदान जो हरी हरी दूब से ढके हुए हैं। बीच बीच में फूलों के रंगीन तख़्ते और फलों के दरख़्त दिखाई देते हैं। जानवर चहचहा रहे हैं, शोर मचा रहे हैं। तो क्या ये जन्नत है? क्या हम जन्नत में हैं?
हाँ बहिश्त, ख़ुदा के नेक और प्यारे बंदों की जगह। कश्ती कुछ छोटे छोटे सीप की तरह चमकदार और गुम्बदों की तरह गोल मकानों के सामने से गुज़रे। क्या ख़ूबसूरती और क्या चमक है। निगाह तक नहीं ठहरती, टपकते तो ना होंगे? क्या उनमें मुझको भी जगह मिलेगी। ख़ुदा के नेक और सच्चे बंदों के लिए हैं। पाक बंदों के लिए।

पेट में एक खुरचन, कलेजा में एक तनाव, अंतड़ियां बल खा रही हैं। ऐसा मालूम हुआ कि गोद में किसी ने कुछ रख दिया। ये एक मोती की तरह सफ़ैद और सीप की तरह बड़ा फल था। डंडी में दो हरे हरे पत्ते भी लगे हुए थे। ऐसा मालूम होता था कि जैसे अभी अभी डाल से तोड़ा गया हो। आहा, क्या मज़ा है! काश कि और होते। गोद भरे हुई थी। कश्ती दो पहाड़ों के बीच से गुज़र रही थी। एक मोड़ था, थोड़ी देर में जब मोड़ ख़त्म हुआ तो यकायक दौर के एक ऊंचे पहाड़ से बिजली से ज़्यादा तेज़ रोशनी की लपटें आग की तरह उठती हुई दिखाई देने लगीं। आँखें चका-चौंद हो कर बंद हो गईं। अंधेरा घुप था। एक शोर की आवाज़ गरज से भी ज़्यादा तेज़ आने लगी, सूर फुंक रहा था। कान पड़ी आवाज़ सुनाई ना देती थी। कश्ती वाली बीवियां इधर उधर दौड़ रही थीं। इतने में फिर एक तेज़ रोशनी हुई। सूरज गिर रहा था। यकायक क़रीब ही से एक ऐसी आवाज़ आई जैसे कोई आतिश-फ़िशाँ पहाड़ फट रहा हो। एक ज़लज़ला आ गया। कश्ती लौट गई और सब दरिया के अंदर डूब रहे थे।


गड़ड़ड़ड़! टप टप की आवाज़ चारों तरफ़ से आ रही थी। अम्मां! अम्मां! अभी कानों में सनसनाहट बाक़ी थी, दिल गज़ों उछल रहा था, क्या है बेटा? क्या है? डर लग रहा है। ये आवाज़ काहे की थी? कुछ नहीं बेटा, गरज है। तीनों बच्चे चिमटे हुए एक कोने में सिकुड़े पड़े थे। टपका उनके लिहाफ़ तक पहुंच चुका था। मर्यम का कोना ख़ूब भीग गया था, बे-चारी ने उठकर बच्चों को और परे सरकाया। अब वो बिलकुल दीवार के बराबर पहुंच गए थे।
या अल्लाह अगर ये टपका इसी तरह बढ़ता रहा तो अब के भीगना ही पड़ेगा। अम्मां! सर्दी लग रही है। सिद्दीक़ा उस के बराबर लेटी हुई थी। उसने उसी को चिमटा के लिटा दिया। रूई नहीं तो दुई ही सही। उधर दोनों लड़के चिमटे पड़े थे। लिपटे हुए जैसे साँप दरख़्त से लिपट जाता है।

या अल्लाह रहम कर, ख़ुदा ग़रीबों के साथ होता है, उनकी मदद करता है, उनकी आह सुन लेता है, क्या मैं ग़रीब भी नहीं। ख़ुदा सुनता क्यों नहीं...? कोई अमीर क्यों? कोई ग़रीब क्यों? उसकी हिक्मत है अच्छी हिक्मत है। कोई जाड़े में ऐन्ठें, लेटने को पलंग तक ना हों। ओढ़ने को कपड़े तक ना हों। सर्दी खाईं। बारिशें सहीं। फ़ाक़े करें और मौत भी ना आए। कोई हैं कि लाखों वाले हैं, हर किस्म का सामान है, किसी बात की तकलीफ़ नहीं। अगर वो थोड़ा सा ही हमको दे दें तो उनका किया जाएगा। ग़रीबों की जानें पिल जाएँगी लेकिन उनको क्या पड़ी? किस की बकरी और कौन डाले घास? हमको बनाया किस ने? अल्लाह ने, तो फिर हमारी परवाह क्यों नहीं करता, किस लिए बनाया? रंज सहने और मुसीबत उठाने के लिए। अरे क्या इन्साफ़ है? वो क्यों अमीर हैं? हम क्यों नहीं? आक़िबत में इस का बदला मिलेगा... ज़रूरत तो अब है। बुख़ार तो इस वक़्त चढ़ा हुआ हो और दवा दस बरस बाद की मिलेगी? बाज़ आए ऐसी आक़िबत से, जब की जब भुगत लेते, अब तो कुछ हो... और मज़हब है कि वो भी ये ही सिखाता है। ये ही पढ़ाता है, फिर कहते हैं कि इल्म का ख़ज़ानाहै और फिर अफ़्लास का बहाना है। बेवक़ूफ़ों की अक़्ल है, आगे बढ़ते हुओं, ऊपर चढ़ते हुओं को पीछे खींचता है। तरक़्क़ी के रास्ते में एक रुकावट है, ग़रीब रहो। ग़ुर्बत में ही ख़ुदा मिलता है, हमने तो पाया नहीं, अमीरों से क्यों नहीं रुपया दिलवा देता? दौलत का क्या होगा, सिर्फ इतना चाहिए कि औक़ात बसर हो जाये। आख़िर अमीर ही दौलत का क्या करते हैं? तह ख़ानों में पड़ी ज़ंग खाती है। किसी का ख़र्च भी ठीक नहीं, जो है बेतुकेपन से उठता है, लेटता है, सरकार ही कुछ क्यों नहीं करती और उन्हें तो सबको बराबर रुपया दिला दे। और अगर इतना नहीं तो आधा ही सिर्फ हमको मिल जाये लेकिन सरकार की जूती को क्या ग़रज़ पड़ी जो अपनी जान हलकान करें। इस के खज़ाने तो पुर हैं। बैठे बिठाए रुपया मिल जाता है उस को क्या। मौत तो हमारी है, जब पड़े तो जाने। ऊंट जब पहाड़ के नीचे आता है तो बिलबिलाता है। अभी तो... अम्मां! हाँ बेटा क्या है? अम्मां भूक लगी है भूक,मर्यम के जिस्म में सनसनी दौड़ गई, या इलाही क्या करूँ? बेचारे बच्चे! मियां ये भी कोई भूक का वक़्त है, भूक ना हुई दीवानी हो गई, सो जाओ, सुबह होते ही खाना। नहीं अम्मां मैं तो अभी खाऊंगा। बड़े ज़ोर की भूक लगी है। नहीं बेटा ये कोई वक़्त नहीं है लेट जाओ। वो देखो कड़क हुई। बच्चा बेचारा कड़क की आवाज़ सुनते ही सहम कर लेट गया। कहाँ से लाऊँ? क्या करूँ? बारिश ने तो दिन-भर निकलने भी ना दिया कि किसी के हाँ जाती और थोड़ा बहुत जो कुछ मिल जाता ला कर सेती। बे-चारी फ़य्याज़ बेगम के हाँ भी जाना ना हुआ। वो ही बेचारे बचा खुचा जो कुछ होता है बराबर दे देती हैं। अब जो अगर कल भी कहीं से काम ना मिला तो क्या होगा? आख़िर कहाँ तक मांग मांग के लाऊँ, देते-देते भी तो लोग उकता जाते होंगे।
अम्मां भूक लगी है। देखो तो पेट ख़ाली पड़ा है। कल दिन से नहीं खाया और नींद बिलकुल नहीं आती, कलेजा मुँह को आ रहा है।

बे-चारी आख़िर को उठी और देवे की मद्धम रोशनी में टटोलती हुई संदूक़ की तरफ़ गई कि अगर कुछ मिल जाये तो बच्चे को दे। आख़िर तो सिर्फ पाँच बरस की जान है। काश! मैंने इन बच्चों को जना ही ना होता। मैं तो मर गिर के काट ही लेती लेकिन उनकी तकलीफ़ नहीं देखी जाती। एक सूखी हुई रोटी एक हंडिया में पड़ी पा गई उस को तोड़ कर पानी में भिगोया और बच्चे के सामने ला रखी। पेट बड़ी बुरी बला है। बेचारा कुत्ते की तरह चिमट गया। थोड़ी खाने के बाद बोला, अम्मां ज़रा सा गुड़ हो तो दे दो। मर्यम फिर खड़ी हो गई कि शायद गुड़ की डली भी मिल जाये। इत्तिफ़ाक़ से एक छोटी सी डली पा गई। बच्चे ने जो हो सका खाया। दो-चार निवाले जो बचे थे मर्यम अपने आपको ज़ब्त ना कर सकी और थोड़ा थोड़ा कर के खा गई...
कड़क और चमक रुक चुकी थी। बारिश भी कम हो गई थी। फिर सिद्दीक़ा से चिमट कर लेट गई और अकेली थी।

आह, काश कि वो होते, आह, वो होते, वो वो वो, रात को आए कुछ ना कुछ लिये चले आते हैं। क्या लाये हो? हलवा सोहन है। वो ही निगोड़ा पपड़ी का होगा तुम जानते हो कि मुझे हब्शी पसंद है। लो! फिर चीख़ने लगीं, देखा तो होता। आह, वो झगड़े और वो मिलाप, सावन और भादों के मिलाप, क्या दिन थे, अब तो एक ख़्वाब हैं। फिर चांदनी रातों में फूल वालों की सैर, ए काश वो होते, वो टांगें एक सरसब्ज़ दरख़्त, गोश्त और हड्डी और गूदे का। उसका रस ख़ून से ज़्यादा गर्म और उसकी खाल गोश्त से ज़्यादा नर्म। एक तना सुबुक और मज़बूत और दो डालें और एक तना, एक दूसरे में पैवंद। एक दूसरे से चिम्टी हुई, एक दूसरे में एक दूसरे की रूह, जुड़ी हुई बल खाई हुई, एक दूसरे की जान और एक एक दूसरे में एक तीसरी रूह की उम्मीद, एक पूरी ज़िंदगी का ख़ज़ाना, एक लम्हा का सरमाया, पर नेस्ती में हस्ती की ताक़त। आह! वो टांगें, दो नाग बल खाए हुए, ओस से भीगी हुई घास पर मस्त पड़े हैं। एक सूई के नाके में तागा और दो उंगलियां, तेज़ तेज़ चलती हुई, सपाटे भर्ती हुई, नर्म नर्म रोएँदार मख़मल पर गुलकारियां कर रही हैं। एक मकड़ी अपनी जगह क़ायम जाला बुन रही है। ऊपर नीचे हो रही है। कुछ ख़बर नहीं कि मक्खी जाल में फंस चुकी है और लुआब है कि तार बुना जाता है। जाल बुना जाता है। एक डोल कुंएं की गहराई में लटका हुआ, तह तक पहुंचा हुआ। उसकी मुलायम रेत की गर्मी महसूस कर रहा है। पानी की सतह पर छोटे छोटे दायरे जो बढ़ते बढ़ते सारे में फैल गए, दीवारों से टकराने लगे, बाहर जाने लगे, अंदर वापस आने लगे, एक सनसनी और हरारत सारे में फैला रहे हैं। दो जुड़वां दरख़्त, एक पीपल और एक आम।
एक ही जड़ में उगे हुए, एक ही तने से पैदा, एक ही ज़िंदगी के हमराज़ थे कि उग रहे थे। एक दूसरे का सहारा, एक दूसरे की तसल्ली, एक ही हवा में सांस लेते। एक ही सूत के पानी से जीते थे। आह! वो जिस्म। और अब तो पीपल को बिजली ने जला डाला। जड़ से मसल डाला। मगर आम है कि क़िस्मत का मारा अब तक खड़ा है। काश कि उसपर भी बिजली गिरी होती। लुंजा अकेला मुरझाया हुआ, अभी तक ठोकरें खाने को ज़िंदा है। अगर वो होते ...

लिहाफ़ में एक हरकत, सिद्दीक़ा ने एक करवट ली।
आह ज़माना किसी के बहलावे में नहीं आता। किसी के फुसलावे में नहीं आता। और में एक अकेली हूँ। आह! में अकेली हूँ। इस से तो ज़िंदगी का लुत्फ़ ना ही देखा होता। जो आज ये तन्हाई महसूस ना होती। मेरे दिल में कोई जगह ख़ाली ना होती। मुहब्बत की जगह। उम्मीद भी किया झोंटे झुलाती है। कभी पास आती है कभी दूर जाती है। लेकिन उम्मीद काहे की? अब तो एक मायूसी है कि सारे में फैली हुई है। बादलों की तरह उमड़ी हुई है। वो सूत की रस्सी का झूला, चार हम-जोलियाँ, टफड़े के एक एक किनारे दो दो। और पेंग हैं कि दरख़्त को हिलाए डालते हैं। घनगोर घटाओं में घुसे जाते हैं।

झूला किन ने डालो रे अमोरियाँ, वाह! अनवरी और किश्वर, बस इतने ही पेंग ले सकते हो? देखो में और कुबरा कितना बढ़ाते हैं। चक्कर ना आ जाएं जब ही कहना। फिर एक हंसी का गुल, और फिर एक क़हक़हों का शोर... आह!
अब तो ज़िंदगी एक हवा है। बाग़-ए-इरम और हूरों की ख़ुश फे’लियाँ, फूलों के हार और ओस का झूमर, ना वो बेर की डाली! कहाँ मेरा आशयाना, फिर एक तप्ती हुई चट्टान, बंजर और सख़्त और उसके पहलू से ज़िंदगी लेकिन फिर एक नई हस्ती, फिर एक नई आन, मन-ओ-सल्वा के मज़े, दूध की नहरों में नहाना और उनमें खेलना। फिर दिन ईद, रात शबरात, लेकिन आह! ज़माने की एक करवट। इबलीस और गेहूँ और नेस्ती।

तन्हाई तन्हाई एक पहाड़ टूट पड़ा। काश कि वो होते। अरे आदम, न फिर अज़ीयत, मुसीबत, बलाऐं। फिर वही ख़ुशी और ख़ुर्रमी, एक क़यामत बपा है। नफ़सा-नफ़सी का आलम है। इसराफ़ील का शोर, दज्जाल है कि सबको फुसला रहा है। मैं तो उसी के पास जाऊँगी। उम्मीद तो है। आह ये तन्हाई। उम्मीद तो है। आह! कोई सर पर हाथ रखने वाला नहीं, न तसल्ली न तशफ्फी न दिलासा। तन्हाई तन्हाई, रात अँधेरी और भयानक रात, अरे ला दो कोई जंगल मुझे। जंगल ... मुझे ... बाज़ार ... बा... ज़ार... मूड... ओझ... रात।


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