शादी के एक महीने बाद सुहेल परेशान हो गया। उसकी रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो गया। उस का ख़याल था कि बच्चा कम अज़ कम तीन साल के बाद पैदा होगा मगर अब एक दम ये मालूम कर के उसके पांव तले की ज़मीन निकल गई कि जिस बच्चे का उसको वहम-ओ-गुमान भी नहीं था उसकी बुनियाद रखी जा चुकी है। उसकी बीवी को भी इतनी जल्दी माँ बनने का शौक़ नहीं था और सच पूछिए तो वो अभी ख़ुद बच्चा थी। चौदह-पंद्रह बरस की उम्र क्या होती है। जुमा जुमा आठ दिन हुए आयशा गुड़ियाँ खेलती थी और सिर्फ़ पाँच महीने की बात है कि सुहेल ने उसे गली में जंगली बिल्ली की तरह निकम्मे चुन्नूं पर ख़्वांचे वाले से लड़ते झगड़ते देखा था। मुँह लाल किए वो उससे कह रही थी, “तुमने मुझे कल भी खीलें इसी तरह कम कर दी थीं, तुम बेईमान हो... मेरे पैसे क्या मुफ़्त के आते हैं जो मैं तौल में हर बार कम चीज़ लेलूं।” और उसने ज़बरदस्ती झपट्टा मार कर मुट्ठी भर नमकीन चने उसके ख़्वांचे से उठा लिये थे। अब सुहेल ये मंज़र याद करता और सोचता कि आयशा की गोद में बच्चा होगा जब वो घर जाते हुए ट्रेन का सफ़र करेगी तो अपने इस नन्हे को इसी तरह दूध पिलाएगी जिस तरह रेल के डिब्बों में दूसरी औरतें पिलाया करती हैं। उसकी लड़की या लड़का उसी तरह चुसर चुसर करेगा। उसी तरह होंट सुकेड़ कर रोएगा, तो वो आयशा से कहेगा, “बच्चा रो रो कर हलकान हुआ जा रहा है और तुम खिड़की में से बाहर का तमाशा देख रही हो...” इसका तसव्वुर करते ही सुहेल का हलक़ सूख जाता है। “इस उम्र में बच्चा? भई मेरा तो सत्यानास हो जाएगा... सारी शायरी तबाह हो जाएगी। वो माँ बन जाएगी, मैं बाप बन जाऊंगा। शादी का बाक़ी रहेगा क्या? सिर्फ़ एक महीना जिसमें हम दोनों मियां बीवी बन के रहे। समझ में नहीं आता कि ये औलाद का सिलसिला क्यों मियां-बीवी के साथ जोड़ दिया गया है। मैं ये नहीं कहता कि औलाद बुरी चीज़ है, बच्चे पैदा हों पर उस वक़्त जब उनकी ख़्वाहिश की जाये। ये नहीं कि बिन बुलाए मेहमानों की तरह आन टपकें। मैं ख़ुदा मालूम क्या सोच रहा था, कैसे कैसे हसीन ख़याल मेरे दिमाग़ में पैदा हो रहे थे। शुरू शुरू के दिन तो एक अ’जीब क़िस्म की अफ़रातफ़री में गुज़रे थे। अब एक महीने के बाद सब चीज़ों की नोक-पलक दुरुस्त हुई थी। अब शादी का असली लुत्फ़ आने लगा था कि बैठे बिठाए ये आफ़त आ गई... अभी जाने कितने और हों।” सुहेल परेशान हो गया। अगर दफ़अ’तन आसमान से कोई जहाज़ बम बरसाना शुरू कर देता तो वो इस क़दर परेशान न होता मगर इस हादिसे ने उसका दिमाग़ी तवाज़ुन दरहम बरहम कर दिया था। वो इतनी जल्दी बाप नहीं बनना चाहता था। “मैं अगर बाप बन जाऊं तो कोई हर्ज नहीं, मगर मुसीबत ये कि आयशा माँ बन जाएगी... उसको इतनी जल्दी हर्गिज़ हर्गिज़ माँ नहीं बनना चाहिए। वो जवानी कहाँ रहेगी उसकी जिसको मैं अब भी शादी होने के बाद भी कनखियों से देखता हूँ और एक लरज़िश सी अपने ख़यालात में महसूस करता हूँ। उसकी तेज़ी-ओ-तर्रारी कहाँ रहेगी, वो भोलापन जो अब मुझे आयशा में नज़र आता है, माँ बन कर बिल्कुल ग़ायब हो जाएगा। वो खलनडरा पन जो उसकी रगों में फड़कता है, मुर्दा हो जाएगा, वो माँ बन जाएगी, और साबुन के झाग की तरह उसकी तमाम चुलबुलाहटों बैठ जाएंगी। गोद में एक छोटे से रोते पिल्ले को लिए कभी वो मेज़ पर पेपर वेट उठा कर बजाएगी, कभी कुंडी हिलाएगी और कभी कनसुरी तानों में ऊटपटांग लोरियां सुनाएगी... वल्लाह मैं तो पागल हो जाऊंगा।” सुहेल को दीवानगी की हद तक इस हादसे ने परेशान कर रखा था। तीन चार दिन तक उसकी परेशानी का किसी को इ’ल्म न हुआ। मगर इसके बाद जब उसका चेहरा फ़िक्र-ओ-तरद्दुद के बाइ’स मुरझा सा गया तो एक दिन उसकी माँ ने कहा, “सुहेल क्या बात है, आजकल तुम बहुत उदास उदास रहते हो।” सुहेल ने जवाब दिया, “कोई बात नहीं अम्मी जान... मौसम ही कुछ ऐसा है।” मौसम बेहद अच्छा था, हवा में लताफ़त थी। विक्टोरिया गार्डन में जब वो सैर के लिए गया तो उसे बेशुमार फूल खिले हुए नज़र आए थे। हर रंग के हरियावल भी आम थे। दरख़्तों के पत्ते अब मटियाले नहीं थे। हर शय धुली हुई नज़र आती थी। मगर सुहेल ने अपनी उदासी का बाइ’स मौसम की ख़राबी बताया। माँ ने जब ये बात सुनी तो कहा, “सुहेल तू मुझसे छुपाता है... देख, सच मुच बताओ क्या बात है... आयशा ने तो कोई ऐसी वैसी बात नहीं की।” सुहेल के जी में आई कि अपनी माँ से कह दे, “ऐसी वैसी बात? अम्मी जान, उसने ऐसी बात की है कि मेरी ज़िंदगी तबाह हो गई है... मुझसे पूछे बग़ैर उसने माँ बनने का इरादा कर लिया है।” मगर उसने ये बात न कही इसलिए कि ये सुन कर उसकी माँ यक़ीनी तौर पर ख़ुश न होगी। “नहीं अम्मी जान, आयशा ने कोई ऐसी बात नहीं की, वो तो बहुत ही अच्छी लड़की है। आप से तो उसे बेपनाह मोहब्बत है... दरअसल मेरी उदासी का बाइ’स... लेकिन अम्मी जान मैं तो बहुत ख़ुश हूँ।” ये सुन कर उसकी माँ ने दुआ’इया लहजे में कहा, “अल्लाह तुम्हें हमेशा ख़ुश रखे, आयशा वाक़ई बहुत अच्छी लड़की है। मैं तो उसे बिल्कुल अपनी बेटी की तरह समझती हूँ... अच्छा, पर सुहेल ये तो बता, अब मेरे दिल की मुराद कब पूरी होगी?” सुहेल ने मस्नूई लाइ’ल्मी का इज़हार करते हुए पूछा, “मैं आपका मतलब नहीं समझा?” “तू सब समझता है, मैं पूछती हूँ, कब तेरा लड़का मेरी गोद में खेलेगा। सुहेल, दिल की एक आरज़ू थी कि तुझे दुल्हा बनता देखूं, सो ये आरज़ू ख़ुदा ने पूरी कर दी। अब इस बात की तमन्ना है कि तुझे फलता फूलता भी देखूं।” सुहेल ने अपनी माँ के कांधे पर हाथ रखा और खिसियानी हंसी के साथ कहा, “अम्मी जान, आप तो हर वक़्त ऐसी ही बातें करती रहती हैं, दो बरस तक मैं बिल्कुल औलाद नहीं चाहता।” “दो बरस तक तू... बिल्कुल औलाद नहीं चाहता, कैसे? या’नी तू अगर नहीं चाहेगा तो बच्ची-बच्चा नहीं होगा? वाह, ऐसा भला कभी हो सकता है... औलाद देना न देना उसके हाथ में है और ज़रूर देगा, अल्लाह के हुक्म से कल ही मेरी गोद में पोता खेल रहा होगा।” सुहेल ने इस के जवाब में कुछ न कहा। वो कहता भी क्या? अगर वो अपनी माँ को बता देता कि आयशा हामिला हो चुकी है तो ज़ाहिर है कि सारा राज़ फ़ाश हो जाता और वो बच्चे की पैदाइश रोकने के लिए कुछ भी न कर सकता। शुरू शुरू में उसने सोचा था कि शायद कोई गड़बड़ हो गई है। उसने अपने शादीशुदा दोस्तों से सुना था कि औरतों के हिसाब-ओ-किताब में कभी कभी ऐसा हेरफेर हो जाया करता है। अभी तक ये ख़याल उसके दिमाग़ में जमा हुआ था। उसके मौहूम होने पर भी, उस को उम्मीद थी कि चंद ही दिनों में मतला साफ़ हो जाएगा। पंद्रह बीस दिन गुज़र गए मगर मतला साफ़ न हुआ। अब उसकी परेशानी बहुत ज़्यादा बढ़ गई। वो जब भोली भाली आयशा की तरफ़ देखता तो उसे ऐसा महसूस होता कि वो किसी मदारी के थैले की तरफ़ देख रहा है। आज आयशा मेरे सामने खड़ी है। कितनी अच्छी लगती है लेकिन महीनों में इस का पेट फूल कर ठलिया बन जाएगा। हाथ पैर सूज जाऐंगे... हवा में अ’जीब अ’जीब खुशबूएं और बदबूएं सूंघती फिरेगी। क़ै करेगी और ख़ुदा मालूम क्या से क्या बन जाएगी! सुहेल ने अपनी परेशानी माँ से छुपाए रखी, बहन को भी पता न चलने दिया मगर बीवी को मालूम हो ही गया। एक रोज़ सोने से पहले आयशा ने बड़े तशवीशनाक लहजे में उससे कहा, “कुछ दिनों से आप मुझे बेहद मुज़्तरिब नज़र आते हैं, क्या वजह है?” लुत्फ़ ये है कि आयशा को कुछ मालूम नहीं था कि एक दो बार उसने सुहेल से कहा था कि ये अब की दफ़ा क्या हो गया है तो सुहेल ने बात गोल मोल कर दी थी और कहा था, “कि शादी के बाद बहुत सी तबदीलियां हो जाती हैं। मुम्किन है कोई ऐसी ही तबदीली हो गई हो।” मगर अब उसे सच्ची बात बताना ही पड़ी, “आयशा, मैं इसलिए परेशान हूँ कि तुम... तुम अब माँ बनने वाली हो।” आयशा शर्मा गई, “आप कैसी बातें करते हैं?” “कैसी बातें करता हूँ। अब जो हक़ीक़त है मैंने तुम से कह दी है। तुम्हारे लिए ये ख़ुशख़बरी होगी मगर ख़ुदा की क़सम इसने मुझे कई दिनों से पागल बना रखा है।” आयशा ने जब सुहेल को संजीदा देखा तो कहा, “तो... तो क्या सचमुच? ” “हाँ, हाँ... सचमुच... तुम माँ बनने वाली हो। ख़ुदा की क़सम जब मैं सोचता हूँ कि चंद महीनों ही में तुम कुछ और ही बन जाओगी तो मेरे दिमाग़ में एक हलचल सी मच जाती है। मैं नहीं चाहता कि इतनी जल्दी बच्चा पैदा हो। अब ख़ुदा के लिए तुम कुछ करो।” आयशा ये बात सुन कर सिर्फ़ मह्जूब सी हो गई थी। हिजाब के इलावा उसने होने वाले बच्चे के मुतअ’ल्लिक़ कुछ भी महसूस नहीं किया था। वो दरअसल ये फ़ैसला ही नहीं कर सकी थी कि उसे ख़ुश होना चाहिए या घबराहट का इज़हार करना चाहिए। उसको मालूम था कि जब शादी हुई है तो बच्चा ज़रूर पैदा होगा, मगर उसे ये मालूम नहीं था कि सुहेल इतना परेशान हो जाएगा। सुहेल ने उसको ख़ामोश देख कर कहा, “अब सोचती क्या हो, कुछ करो ताकि इस बच्चे की मुसीबत टले।” आयशा दिल ही दिल में होने वाले बच्चे के नन्हे नन्हे कपड़ों के मुतअ’ल्लिक़ सोच रही थी, सुहेल की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। “क्या कहा?” “मैं कहता हूँ, कुछ बंदोबस्त करो कि ये बच्चा पैदा न हो।” “बताईए, मैं क्या करूं?” “अगर मुझे मालूम होता तो मैं तुमसे क्यों कहता। तुम औरत हो, औरतों से मिलती रही हो। शादी पर तुम्हारी ब्याही हुई सहेलियों ने तुम्हें कई मशवरे दिए होंगे। याद करो, किसी से पूछो। कोई न कोई तरकीब तो ज़रूर होगी।” आयशा ने अपने हाफ़िज़ा पर ज़ोर दिया। मगर उसे कोई ऐसी तरकीब याद न आई, “मुझे तो आज तक किसी ने इस बारे में कुछ नहीं बताया। पर मैं पूछती हूँ कि इतने दिन आपने मुझसे क्यों न कहा। जब भी मैंने आपसे इस बारे में बातचीत की आप ने टाल दिया।” “मैंने तुम्हें परेशान करना मुनासिब न समझा। ये भी सोचता रहा कि शायद मेरा वाहिमा हो, पर अब कि बात बिल्कुल पक्की हो गई है। तुम्हें बताना ही पड़ा। आयशा अगर इसका कोई ईलाज न हुआ तो ख़ुदा की क़सम बहुत बड़ी आफ़त आजाएगी। आदमी शादी करता है कि चंद बरस हंसी ख़ुशी में गुज़ारे, ये नहीं कि सर मुंडाते ही ओले पड़ें। झट से एक बच्चा पैदा हो जाये, किसी डाक्टर से मशवरा लेता हूँ।” आयशा ने जो अब दिमाग़ी तौर पर सुहेल की परेशानी में शरीक हो चुकी थी, कहा, “हाँ किसी डाक्टर से ज़रूर मशवरा लेना चाहिए। मैं भी चाहती हूँ कि बच्चा इतनी जल्दी न हो।” सुहेल ने सोचना शुरू किया। पोलैंड का एक डाक्टर उसका वाक़िफ़ था, पिछले दिनों जब शराब की बंदिश हुई थी तो वो उस डाक्टर के ज़रिये ही से विस्की हासिल करता था। पर अब वो देव लाली में नज़रबंद था क्योंकि हुकूमत को उसकी हरकात-ओ-सकनात पर शुबहा हो गया था। ये डाक्टर अगर नज़रबंद न होता तो यक़ीनन सुहेल का काम कर देता। इस पुलिसतानी डाक्टर के इलावा एक यहूदी डाक्टर को भी वो जानता था जिससे उसने अपनी छाती के दर्द का ईलाज कराया था। सुहेल उसके पास चला जाता मगर उसका चेहरा इतना रोबदार था कि वो उससे ऐसी बात के मुतअ’ल्लिक़ इरादे के बावजूद मशवरा न ले सकता। यूं तो बम्बई में हज़ारों डाक्टर मौजूद थे, मगर बग़ैर वाक़फ़ियत इस मुआ’मले के मुतअ’ल्लिक़ बातचीत नामुमकिन थी। बहुत देर तक ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने के बाद मअ’न उसको मिस फ़रिया का ख़याल आया जो नागपाड़े में प्रैक्टिस करती थी और उसका ख़याल आते ही मिस फ़रिया उसके आँखों के सामने आ गई। मोटे और भारी जिस्म की ये क्रिस्चियन औरत अ’जीब-ओ-ग़रीब कपड़े पहनती थी। नागपाड़े में कई यहूदी, क्रिस्चियन और पारसी लड़कियां रहती हैं। सुहेल ने उनको हमेशा चुस्त और शोख़ रंग लिबासों में देखा था। स्कर्ट घुटनों से ज़रा नीची, नंगी पिंडलियां, ऊंची एड़ी की सैंडल, सर के बाल कटे हुए, उन में लहरें पैदा करने के नए नए तरीक़े, होंटों पर गाढ़ी सुर्ख़ी, गालों पर उड़े उड़े रंग का ग़ाज़ा, भवें मूंद कर तीखी बनाई हुई। इन लड़कियों का बनाओ सिंघार कुछ इस क़िस्म का होता है कि निगाहें उन चीज़ों को पहले देखती थीं जिनसे औरत बनती है। मगर मिस फ़रिया टखनों तक लंबा ढीला ढाला फ़राक़ पहनती थी। पिंडलियां हमेशा मोटी जुराबों से ढकी रहती थीं। शू पहनती थी, बहुत ही पुराने फ़ैशन के बाल कटे हुए थे मगर उनमें लहरें पैदा करने की तरफ़ वो कभी तवज्जो ही नहीं देती थी, इस बेतवज्जोही के बाइ’स उसके बालों में एक अ’जीब क़िस्म की बेजानी और ख़ुश्की पैदा हो गई थी। रंग काला था जो कभी कभी सँवलाहट भी इख़्तियार कर लेता था। आयशा ने थोड़ी देर तक बच्चे की पैदाइश के मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर किया और सुहेल के पहलू में सो गई। ग़ौर-ओ-फ़िक्र हमेशा उसको सुला दिया करता था। आयशा सो गई मगर सुहेल जागता रहा और मिस फ़रिया के मुतअ’ल्लिक़ सोचता रहा। ठीक एक बरस पहले इन्ही दिनों में जब उसके कमरे में न ये नया पलंग था जो आयशा जहेज़ में लाई थी और न ख़ुद आयशा थी, तो सुहेल ने एक बार मिस फ़रिया को ख़ास ज़ाविए से देखा था। सुहेल की बहन के हाँ बच्चा पैदा होने वाला था। ये मालूम करने के लिए कि बच्चा कब पैदा होगा, मिस फ़रिया को बुलाया गया था। सुहेल ताज़ा ताज़ा बम्बई आया था। नागपाड़े की शोख़ तीतरियाँ देख देख कर जो बिल्कुल उसके पास से फड़फड़ाती हुई गुज़र जाती थीं, उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हो गई थी कि वो इन सब को पकड़ कर अपनी जेब में रख ले, मगर जब ये ख़्वाहिश पूरी न हुई और वो नाउम्मीदी की हद तक पहुंच गया तो उसे मिस फ़रिया दिखाई दी। पहली नज़र में सुहेल के जमालियाती ज़ौक़ को सदमा सा पहुंचा, “कैसी बेडौल औरत है... लिबास कैसा बेहूदा है और क़द... थोड़े ही दिनों में भैंस बन जाएगी।” मिस फ़रिया ने उस रोज़ काले रंग की जालीदार टोपी पहन रखी थी जिसमें तीन चार शोख़ रंग के फुंदने लगे हुए थे। ऐसा मालूम होता कि कीचड़ में आलूचे गिर पड़े हैं। फ़राक़ जो टखनों तक बड़े उदास अंदाज़ में लटक रहा था छपी हुई जॉर्जट का था। फूल ख़ुशनुमा थे, कपड़ा भी अच्छा था मगर बहुत ही भोंडे तरीक़े पर सिया गया था। मिस फ़रिया जब दूसरे कमरे से फ़ारिग़ हो कर आई तो उसने सुहेल से अंग्रेज़ी में कहा, “ग़ुस्लख़ाना किधर है, मुझे हाथ धोने हैं।” ग़ुस्लख़ाने में सुहेल ने मिस फ़रिया को बहुत क़रीब से देखा तो उसे निस्वानियत के कई ज़र्रे उसके साथ चिमटे हुए नज़र आए। सुहेल ने अब उसे पसंद करने की नीयत से देखना शुरू किया, बुरी नहीं... आँखें ख़ूबसूरत हैं। मेकअप नहीं करती तो क्या हुआ, ठीक है। हाथ कैसे अच्छे हैं। मिस फ़रिया के बालाई होंट पर हल्की हल्की मूंछें थीं। काम करने के बाइ’स पसीने की नन्ही नन्ही बूंदें नुमूदार हो गई थीं। सुहेल ने जब उनकी तरफ़ देखा तो मिस फ़रिया उसे पसंद आगई। पसीने की ये फ़ुवार सी जो उसकी मूंछों की रोएं पर कपकपा रही थी, उसे बहुत ही भली मालूम हुई। सुहेल के जी में आई कि वो कुछ करना शुरू कर दे जिससे उसका सारा जिस्म अ’र्क़ आलूद हो जाये। मिस फ़रिया जब हाथ पोंछ कर फ़ारिग़ हो गई तो उसने सुहेल की माँ से कहा, “आप इनको हमारे साथ भेज दीजिए, मैं दवा तैयार करके दे दूंगी और इस्तेमाल करने की तरकीब भी समझा दूंगी।” नागपाड़े तक जहां वो प्रैक्टिस करती थी, विक्टोरिया में, सुहेल ने उससे कोई ख़ास बात न की। कुनैन के मुतअ’ल्लिक़ उसने चंद बातें दरयाफ़्त कीं कि मलेरिया में कितनी मिक़दार उसकी खानी चाहिए। फिर इस ने दाँतों की सफ़ाई के बारे में उससे कुछ मालूमात हासिल कीं कि इतने में वो जगह आ गई जहां मिस फ़रिया एम.बी.बी.एस का बोर्ड लटका रहता था। पहली मंज़िल के एक कमरे में मिस फ़रिया का मतब था। इस कमरे के दो हिस्से किए गए थे, एक हिस्से में मिस फ़रिया की मेज़ थी जहां वो आम तौर पर बैठती थी। दूसरे हिस्से में उसकी डिस्पेंसरी थी। डिस्पेंसरी की दो अलमारियों के इलावा वहां एक छोटा सा तख़्त भी था जिस पर ग़ालिबन वो मरीज़ लेटा कर देखा करती थी। मिस फ़रिया ने कमरे में दाख़िल होते ही अपनी टोपी उतार दी और एक कील पर लटका दी। सुहेल उस बेंच पर बैठ गया जो मेज़ के पास बिछी थी। टोपी उतार कर मिस फ़रिया ने नीम अंग्रेज़ी और नीम हिंदुस्तानी लहजे में आवाज़ दी, “छोकरा...” कमरे के दूसरे हिस्से से एक मरियल सा आदमी निकल आया और कहने लगा, “हाँ मेम साहब।” मेम साहब कुछ न बोलीं और दवा बनाने के लिए अंदर चली गईं। सुहेल इस दौरान में सोचता रहा कि मिस फ़रिया से किसी तरह दोस्ती पैदा करनी चाहिए। वो थोड़ा सा वक़्त जो उसे मिला इसी सोच बिचार में ख़र्च हो गया और मिस फ़रिया दवा बना कर ले आई। कुर्सी पर बैठ कर उसने शीशी पर गोंद से लेबल चिपकाया और पुड़ियों पर नंबर लगाने के बाद कहा, “ये दो दवाएं हैं, पुड़िया अभी जा कर पानी के साथ दे दीजिए और इसमें से एक ख़ुराक आधे घंटे के बाद पिला दीजिएगा। फिर हर तीसरे घंटे के बाद इसी तरह।” सुहेल ने पुड़ियां उठा कर जेब में रख लीं। शीशी हाथ में ले ली, और मिस फ़रिया की तरफ़ कुछ अ’जीब निगाहों से देखना शुरू कर दिया। वो घबरा गई, “आप भूल तो नहीं गए।” सुहेल ने इसी अंदाज़ से देखते हुए कहा, “मैं भूला नहीं, मुझे सब कुछ याद है।” मिस फ़रिया की समझ में न आया कि वो क्या कहे, “तो... तो ठीक है...” सुहेल दरअसल अपने इरादे को मुकम्मल कर रहा था और साथ ही साथ टकटकी बांधे उसे देखे जा रहा था। मिस फ़रिया ने चंद काग़ज़ात उठा कर मेज़ के एक तरफ़ रख दिए, “इसके... इसके दाम?” सुहेल ने ख़ामोशी से बटुवा निकाला, “कितने हुए।” ये कह कर उसने पाँच का नोट बढ़ा दिया। मिस फ़रिया ने नोट लिया। मेज़ की दराज़ खोल कर उसमें रखा। जल्दी जल्दी रेज़गारी निकाली और हिसाब करके बाक़ी पैसे सुहेल की तरफ़ बढ़ा दिए। सुहेल ने उसका हाथ पकड़ लिया और जल्दी से कहा, “तुम्हारा हाथ कितना ख़ूबसूरत है।” मिस फ़रिया थोड़ी देर तक फ़ैसला न कर सकी कि उसे क्या करना चाहिए, “आप कैसी बातें कर रहे हैं।” सुहेल ने बड़े ही ख़ाम अंदाज़ में अपने दिल पर हाथ रख कर कहा जैसे वो स्टेज पर इश्क़िया पार्ट अदा कर रहा है, “मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ।” सुहेल को जब मिस फ़रिया के लहजे में खुरदरापन महसूस हुआ तो वो चौंका। उसने लोगों से सुन रखा था कि एंग्लो इंडियन और क्रिस्चियन लड़कियां फ़ौरन ही फंस जाया करती हैं। चुनांचे इसी सुनी सुनाई बात के ज़ेर-ए-असर उसने इतनी जुरअत की थी मगर यहां जब उसे मुआ’मला बिल्कुल बरअ’क्स नज़र आया तो उसने जल्दी से दवा की शीशी उठाई और कहा, “मैं आप से माफ़ी चाहता हूँ। दरअसल मुझे आपसे ऐसी फ़ुज़ूल बातें नहीं करना चाहिए थीं... मैं... मैं न जाने क्या बक गया। मुझे माफ़ कर दीजिएगा।” मिस फ़रिया उठ खड़ी हुई। उसका गु़स्सा कुछ कम हो गया, “तुमने जो कुछ किया है इस पर मुझे बेहद गु़स्सा आया था। मगर मैं अब तुम्हारी तरफ़ देखती हूँ तो मुझे तुम बहुत ही मासूम नज़र आते हो... बेवक़ूफ़ी की हद तक मासूम, जाओ फिर कभी ऐसी हरकत न करना।” सुहेल सहम सा गया। मिस फ़रिया को वो स्कूल की उस्तानी समझने लगा, “आपने मुझे माफ़ कर दिया है ना।” मिस फ़रिया के होंटों पर मुस्कुराहट पैदा न हुई जो सुहेल चाहता था कि पैदा हो, “जाओ, मैंने कह दिया कि फिर ऐसी हरकत न करना... दवा किसी और जगह से न लेना। कल यहीं चले आना... और देखो तुमने मेरे आने जाने के पैसे नहीं दिए।” सुहेल ने पूछा, “कितने होते हैं।” “बारह आने।” सुहेल ने बारह आने मेज़ पर रख दिए और जब वो बाज़ार में पहुंचा तो उसने ख़याल किया कि विक्टोरिया वाले को तो वो बारह आने अदा कर चुका था लेकिन उसने सोचा कि चलो, बला टल गई है, क्या हुआ अगर बारह आने ज़्यादा चले गए। सुहेल का ये पहला मौक़ा नहीं था। अमृतसर में वो कई लड़कियों से ऐसी और इससे भी सख़्त झिड़कियां खा चुका था। चंद घंटों तक इस वाक़िया का सुहेल पर बहुत ही ज़्यादा असर रहा। लेकिन जब वो दूसरे दिन मिस फ़रिया के हाँ दवा लेने के लिए गया तो उसने दूसरे ग्राहकों की तरह उससे बातचीत की तो वो शर्मिंदगी जिसका थोड़ा सा एहसास बाक़ी रह गया था, दूर हो गई। दस बारह रोज़ तक वो मुतवातिर दवा लेने के लिए मिस फ़रिया के हाँ जाता रहा। इस दौरान में कोई ऐसी बात न हुई जिससे सुहेल के दिमाग़ में इस ख़िफ़्फ़त अंगेज़ वाक़िया की याद ताज़ा होती। इसके बाद उसकी बहन तंदुरुस्त हो गई और मिस फ़रिया इस अ’र्सा के लिए उसकी आँखों से ओझल हो गई। अब एक दम बारह-तेरह महीने के बाद सुहेल को इसका ख़याल आया और उसने उससे मशवरा लेने का इरादा किया, औरत को रुपये-पैसे का बहुत लालच है। मेरा ख़याल है कि वो ज़रूर इस मुआ’मले में हमारी मदद करने को तैयार हो जाएगी और फिर उस वाक़िए को इस बात से क्या तअ’ल्लुक़ है। अगर वो मेरा काम कर देगी तो मैं उसे मुंहमांगे दाम अदा कर दूँगा। दूसरे रोज़ शाम को वो मिस फ़रिया के पास गया। सुहेल को देख कर उसने बड़े कारोबारी अंदाज़ में कहा, “बहुत मुद्दत के बाद तशरीफ़ लाए।” सुहेल शादी के बाद अब काफ़ी तबदील हो चुका था आराम से बेंच पर बैठ गया और कहने लगा, “इस दौरान में कोई बीमार नहीं हुआ इसलिए आपकी ख़िदमत में हाज़िर न होसका।” मिस फ़रिया मुस्कुराई, “अब कैसे आना हुआ?” सुहेल ने जवाब दिया, “मैं अपनी बीवी के मुतअ’ल्लिक़ कुछ पूछने आया हूँ।” मिस फ़रिया ने और ज़्यादा मुतवज्जो हो कर पूछा, “आपकी शादी हो गई।” “जी हाँ... हो गई।” “कब हुई?” “एक महीना पहले।” “सिर्फ़ एक महीना।” मिस फ़रिया ने कुर्सी पर अपना पहलू बदला, “कैसी है आपकी बीवी?” सुहेल ने बिल्कुल रस्मी अंदाज़ में जवाब दिया, “बहुत अच्छी है।” “मेरा मतलब है कि... कि... ख़ूबसूरत है? ज़रूर ख़ूबसूरत होगी। पंजाब की लड़कियां आम तौर पर ख़ूबसूरत होती हैं।” सुहेल ने फ़रिया की तरफ़ देखा, चेहरे पर उसने पोडर लगा रखा था जिससे रंग बहुत ही बदनुमा हो गया था। बाल ख़ुश्क और बेजान थे। फ़राक भी निहायत भोंडा था। जब उसने आयशा का ख़याल किया तो फ़रिया उसे भंगन मालूम हुई। दिल ही दिल में वो हंसा और पुराना बदला लेने की ख़ातिर उसने कहा, “मेरी बीवी बहुत ख़ूबसूरत है... तुम उसे देखोगी तो पता चलेगा।” मिस फ़रिया ने शायद ये बात न सुनी, क्योंकि वो कुछ और ही सोच रही थी, “तो एक महीने से तुम ऐश कर रहे हो।” सुहेल ने फिर उसे जलाने के लिए कहा, “इंसान को ज़िंदगी में एक बार ही ऐसा मौक़ा मिलता है। क्यों न उससे फ़ायदा उठाया जाये।” “हाँ, हाँ ज़रूर फ़ायदा उठाना चाहिए... मगर... मगर ज़्यादा नहीं, तुम ज़रूर ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाने की कोशिश करते होगे।” मिस फ़रिया के लहजे में एक अ’जीब क़िस्म की ललचाहट थी। सुहेल को इस गुफ़्तगु में मज़ा आने लगा मुस्कुरा कर उसने कहा, “ज़्यादा से ज़्यादा क्यों न उठाया जाये... यही वक़्त तो है कि जी भर के लुत्फ़ उठाया जाये, बीवी अच्छी हो, तबीयतें आपस में मिल जाएं... जवानी हो, हालात साज़गार हों, मौसम ख़ुशगवार हो तो...” मिस फ़रिया मुज़्तरिब हो गई। ये इज़तराब छुपाने की ख़ातिर उसने कहा, “आप... किस क़िस्म का मशवरा लेने के लिए आए हैं।” “मैं अपनी बीवी के मुतअ’ल्लिक़ कुछ पूछने आया था।” मिस फ़रिया फिर उसी रो में बह गई, “मैं... मैं उसको ज़रूर देखूंगी। मुझे... मुझे ख़ुशी होगी। किसे मालूम था कि तुम इतनी जल्दी शादी करलोगे। तुम्हारी ज़िंदगी में... मेरा मतलब है कि तुम्हारी ज़िंदगी में ज़रूर एक बहुत बड़ी तबदीली हो गई होगी।” सुहेल ने जवाब दिया, “तबदीली... कोई ख़ास तबदीली पैदा तो नहीं हुई। मैं पहले भी ऐसा ही था... ख़ास फ़र्क़ पड़ भी क्या सकता है। हर हाल में ख़ुश हूँ, बहुत ही ख़ुश हूँ... शादी बहुत अच्छी चीज़ है?” मिस फ़रिया ने थूक निगल कर कहा, “क्या शादी वाक़ई बहुत अच्छी चीज़ है?” “बहुत ही अच्छी चीज़ है... मैं तो कहता हूँ कि तुम भी शादी करलो।” मिस फ़रिया ने मेज़ पर से रंगीन तीलियों का बना हुआ जापानी पंखा उठाया और झलना शुरू कर दिया, “मुझे अपनी बीवी के मुतअ’ल्लिक़ कुछ और बताओ... या’नी तुम्हारी अज़दवाजी ज़िंदगी कैसे गुज़र रही है... उसके ख़यालात क्या हैं।” फ़रिया के होंटों पर खिसियानी सी मुस्कुराहट पैदा हुई। उसके होंट कुछ इस अंदाज़ से बातें करते वक़्त खुल रहे थे कि सुहेल को महसूस हुआ फ़रिया के चेहरे पर मुँह के बजाये एक ज़ख़्म है जिसके टाँके उधड़ रहे हैं। सुहेल ने ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा और यूं देखते हुए वो एक बरस पीछे चला गया। जब उसने बड़ी नेक नीयती से उस औरत में चंद ख़ूबसूरतियाँ तलाश की थीं और उनका सहारा लेकर उससे दोस्ताना तअ’ल्लुक़ात पैदा करने की एक निहायत ही भोंडी कोशिश की थी। अब वही औरत उसके सामने कुर्सी पर बैठी पंखा झल कर अपना अंदरूनी इज़तराब हल्का कररही थी। एक बरस उसके काले चेहरे और ख़ुश्क बालों पर से मज़ीद स्याही और ख़ुश्की पैदा किए बग़ैर गुज़र गया था। मगर सुहेल अब बिल्कुल तबदील हो चुका था। वो ये सोच ही रहा था कि मिस फ़रिया ने उससे कहा, “तुम कितने तबदील हो गए हो। अब तुम पूरे मर्द बन चुके हो।” सुहेल ने फ़रिया की तरफ़ देखा। उसकी मूंछों पर पसीने के नन्हे नन्हे क़तरे नुमूदार हो रहे थे। उनको देख कर अब उसके दिल में वो पहली सी ख़्वाहिश पैदा न हुई। मिस फ़रिया ने पंखा मेज़ पर रख दिया और कुहनियाँ टेक कर सुहेल की तरफ़ उन बिल्लियों की तरह देखने लगी जो मौसम-ए-बहार में लोट कर उदास उदास आवाज़ें निकाला करती हैं। सुहेल ने पंखे की एक उखड़ी हुई तीली नोचने के लिए हाथ बढ़ाया तो मिस फ़रिया ने उसे आहिस्ता से पकड़ कर कहा, “याद है तुम्हें, एक दफ़ा इसी तरह तुमने मेरा हाथ दबाया था।” मिस फ़रिया की आवाज़ लर्ज़ां थी। सुहेल ने अपना हाथ खींच लिया और बड़े ख़ुश्क लहजे में कहा, “मिस फ़रिया, तुम्हारी ये हरकत बहुत ही नाज़ेबा है... देखो, फिर कभी ऐसा न करना।” ये कह कर उसने अपना बटुवा लरज़ते हुए हाथों से खोला और बारह आने निकाल कर मेज़ पर रख दिए, “ये रहा तुम्हारे आने जाने का कराया।” सुहेल जब नीचे उतरा तो बाज़ार में चलते हुए उसने सोचा, जब बच्चा पैदा होगा तो मैं उसे गोद में उठा कर मिस फ़रिया के पास ज़रूर आऊँगा और फ़ख़्र के साथ कहूंगा, “इसके मुतअ’ल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़याल है?” सुहेल बहुत ख़ुश था। जब उसने मज़ा लेने की ख़ातिर ये सारा वाक़िया दुहराया तो आख़िर में बारह आने आए जो उसने काँपते हुए हाथों से निकाल कर मिस फ़रिया की मेज़ पर रखे थे, “अरे... मैंने उसे बारह आने क्यों दिए... ये किराया किसका था?” सुहेल जब इस का जवाब तलाश न कर सका तो बेइख़्तयार हंस पड़ा।